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प्रिय मोदी जी,अंबेडकर ने कुछ इस तरह ‘अनलॉक’ किया होता हिंदुस्तान

री-ओपनिंग 1.0 और अंबेडकर की राह

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जब बाघ घायल और भूखा हो, तो कोई नहीं जानता कि उसे कैसे काबू करना है. लॉकडाउन 4.0 के अंत में ऐसी ही चुनौती का सामना प्रधानमंत्री मोदी ने बीते हफ्ते किया.

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भारत की अपंग अर्थव्यवस्था - जो वास्तव में आकलन से ज्यादा बदहाल निकली जब सरकार ने पिछली तिमाही की ग्रोथ के अपने ही अनुमान से काफी कम ग्रोथ को स्वीकारा - घायल, भूखी और नाराज, बहुत नाराज थी. तो मोदी सरकार ने तेजी से छलांग लगाई. इस उम्मीद में कि जानवर को चौंका देगी और उसका ध्यान दूसरे शिकार (राज्य सरकारों) की तरफ मोड़ देगी. एक तरह से एक बार में ही सबकुछ खोल दिया गया. इंटर स्टेट ट्रैफिक, राज्यों के भीतर आवाजाही, फैक्ट्रियां, दुकानें, मॉल, रेस्टोरेंट, रेल और घरेलू एयरलाइंस- इस तेजी और दुस्साहस (लगभग हताशा में) को देख नौ हफ्ते तक घर में कैद रहकर सुस्त पड़ गया देश हक्का बक्का रह गया.

मगर इतनी जबरदस्त कार्रवाई के लिए अनलॉक 1.0 जैसे सपाट शब्दों से सरकार की घबराहट साफ दिख रही थी. पुराने प्रदर्शन को देखते हुए हर किसी की उम्मीद रही होगी कि मोदी सरकार इसे भव्य आयोजन बनाएगी और इसका नामकरण और भी भव्य होगा. उम्मीदें जगाने वाले नारे उछालने में मैं उनसे बेहतर कभी नहीं हो सकता, लेकिन शायद कुछ इस तरह का हो सकता था जैसे, नव निर्माण 1.0 या कुछ ऐसा ही.

लेकिन सचमुच, इतना सामान्य फ्रेज, अनलॉक 1.0? ऐसा लगा मानो सरकार चार लॉकडाउन की दर्द भरी यादों को मिटा देना चाहती हो. यह भी लगा कि जिम्मेदारी राज्य सरकारों को पकड़ाते हुए एकतरफा फैसले लेने के टैग को भी धो डालने के लिए अधीर थी सरकार. साथ ही, संवैधानिकता की नैतिकता को लागू करने के लिए भी. “देखिए, आप हम पर 24 मार्च 2020 को एकतरफा फैसला लेने का आरोप लगाते हैं जब किसी मुख्यमंत्री को इस बात की भनक तक नहीं थी कि उनके प्रदेश में बंद (शटडाउन) लागू किया जा रहा है. और, जब हम दिल्ली से माइक्रो-मैनेज करते हैं तब भी आप हम पर राज्यों के सीमाक्षेत्र में गलत तरीके से घुसने का आरोप लगाते हैं. यहां, हम आपको दिखाते हैं कि किस तरह सही मायने में हम संघवाद पर विश्वास करते हैं, जो परस्पर विश्वास का आधार है. आगे से सारे प्रदेश सारे फैसले लेंगे.”

संघवाद से ‘सनकवाद’

दुर्भाग्य से यह ‘संघवाद की भावना’ तेजी से ‘सनकवाद’ में बदल गई. केंद्र की पकड़ से मुक्त होकर हर मुख्यमंत्री ने अपनी राह खुद चुनी...नतीजा थी अराजकता. राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र (एनसीआर), जो तीन प्रदेशों के ट्राइ-सेक्शन में है और इसलिए तीन मुख्यमंत्रियों के रहमो करम पर है, ने अजब तमाशा देखा. अरविंद केजरीवाल की दिल्ली उदार तरीके से खुलने की ओर बढ़ी, जबकि हरियाणा और उत्तर प्रदेश सख्ती के पक्ष में थे और सीमाएं बंद कर रहे थे. अचानक जब लॉकडाउन 4.0 के बाद हरियाणा खुला, तो दिल्ली बंद हो गई. लेकिन एक और मोड़ आया, जब दिल्ली ने कहा कि रेल से आने वालों या हवाई यात्रियों को क्वॉरंटीन नहीं होना पड़ेगा, लेकिन कुछ दिनों बाद ही कहा गया कि 7 दिन तक अलग-थलग रहना होगा. राजधानी की दिक्कत यहीं खत्म नहीं हुई. पहले दिल्ली चाहती थी कि यहां ऑड और ईवन डे पर बारी-बारी से दुकानें खुले, मगर अब यह बार्बर शॉप्स और सैलून समेत सारी दुकानें सारे दिन खोलना चाहती दिखी. पैसेंजर कार, ऑटो और ई-रिक्शा चाहे जितनी सवारी चढ़ा लें. यह यू टर्न घुमावदार और समझ से परे था.

मगर केवल दिल्ली ‘मैं, मुझको, मेरा’ नहीं कह रही थी. आप मुंबई और कोलकाता को भी देख सकते हैं. दुकानें खुल सकती हैं, लेकिन रेस्टोरेंट्स और मॉल्स नहीं खुल सकते. फिल्में शूट होना शुरू हो सकती हैं लेकिन उपासनास्थल को बंद रखना होगा. निजी दफ्तर सौ फीसदी कर्मचारियों के साथ काम कर सकते हैं, लेकिन सरकारी दफ्तरों में 70 फीसदी की पाबंदी (क्यों? क्यों?)

ऊपर मैंने बीमार नियमों, आदेशों और यू-टर्न की जो छोटी सी बदसूरत तस्वीर रखी है, उन सबने डींगें हांकने वाले अनलॉक 1.0 के बावजूद अर्थव्यवस्था को वास्तव में शिथिल कर दिया है. ठीक है कि यह उतना बुरा नहीं है जितना कि लॉकडाउन के दौरान था, लेकिन कहीं से भी यह ‘खुलने’ के आसपास भी नहीं है.

री-ओपनिंग 1.0, अंबेडकर की राह

लॉकडाउन 4.0 के बाद अनलॉक में मिली असफलता यह सवाल पूछती है: किस तरह से हमें री-ओपनिंग 1.0 को अंजाम देना चाहिए? क्या हमें संघवाद/विकेंद्रीकरण के सिद्धांतों को निश्चित रूप से छोड़ना होगा और आदेश एवं नियंत्रण पूर्व स्थिति में लाने होंगे? क्या कोई और रास्ता नहीं है?

हां, बिल्कुल है. लेकिन सबसे पहले, सभी सरकारों- केंद्रीय, राज्य और स्थानीय- को गहरी सांस लेना चाहिए, विवादास्पद नियमों के कोलाहल से पीछे हटना चाहिए और डॉ. भीमराव अंबेडकर के संविधान 1.0 की वास्तविक हस्तलिपि से जुड़ना चाहिए. इसमें संघवाद तीन हिस्सों में संहिताबद्ध है: एक केंद्रीय सूची, जहां संघीय सरकार का आदेश सर्वोच्च है; एक समवर्ती सूची, जो संघीय और राज्य सरकारों को मिलकर फैसले करने के लिए कहता है; और अंत में एक राज्य सूची, जो क्षेत्रीय सरकारों को कानून बनाने का पूरा अधिकार देता है.

अब, सफल, स्पष्ट, विवादरहित अर्थव्यवस्था की री-ओपनिंग का रहस्य- मतलब ये कि एक घायल, भूखे, क्रोधित बाघ को काबू करना- संवैधानिकता में ही मौजूद है, जिसे अंबेडकर द्वारा बहुत स्पष्ट तरीके से तैयार किया गया. खोलने वाली सारी कार्रवाइयों या जिसे हम री-ओपनिंग 1.0 कह रहे हैं, को बिना किसी भ्रम, इन तीन सूचियों में स्पष्ट रूप से बांट लेना चाहिए.
  • केंद्रीय सूची: अंतरराज्यीय गतिविधियां इस सूची की परिधि में निश्चित रूप से होनी चाहिए. केंद्र अगर एक बार “खुली आवाजाही” का आदेश दे तो किसी राज्य को यह अनुमति नहीं दी जानी चाहिए कि वो अपनी सीमाओं को मनमाने ढंग से बंद कर सकें- जैसे कोई राज्य यह न कह सके कि उसकी सीमा से होकर ट्रेनें चल नहीं सकतीं या कि उड़ानें उड़ नहीं सकतीं. इसके अलावा एक बार अगर केंद्र सरकार आर्थिक गतिविधियों की नकारात्मक सूची बना कर देती है तो उसके अलावा सबकुछ खुला होना चाहिए, बगैर इस तमाशे के कि शराब की दुकानें यहां खुली रहें वहां नहीं, बार्बर शॉप बंद रहें लेकिन मॉल्स खुले रहें, इलेक्ट्रिकल्स की दुकानें ऑड तारीख पर खुलें, किताब की दुकानें ईवेन तारीख पर आदि. इसके आगे कोई बहस, तोड़-मरोड़ या अस्पष्टता नहीं होनी चाहिए- केवल कंटेनमेंट जोन में प्रतिबंध जैसे मामलों को छोड़कर. (आगे देखें)
  • समवर्ती सूची: यहां केंद्र और प्रदेश सरकारों को निश्चित रूप से सहमति बनानी होगी. उदाहरण के लिए, प्रति वर्ग किमी में कितने ग्राहकों को अनुमति दी जाए, यात्री वाहन में कितने यात्री हों आदि.
  • राज्य सूची: यही वो जगह है जहां राज्य पूरी स्वायत्तता का आनंद ले सकता है. उदाहरण के लिए, कंटेनमेंट/संवेदनशील जोन तय करने में, जहां सख्ती होगी. यहां केंद्र सरकार का कोई हस्तक्षेप नहीं होना चाहिए और न ही पर्दे के पीछे से उसका कोई योगदान हो.

COVID-19 उन्मूलन कोष के लिए संवैधानिक आयोग

आखिर में हमें उस मुद्दे को हल करने की जरूरत है जो संवैधानिकता के केंद्र में है यानी संसाधनों और लागतों का बंटवारा. COVID-19 कोई ऐसी आपदा नहीं है जिसे किसी राज्य ने खुद अपने लिए पैदा किया हो. यह राष्ट्रीय संकट है जो विभिन्न राज्यों में जनसंख्या और आर्थिक हालत के हिसाब से खुद का प्रसार कर रहा है.

अगर मुंबई और दिल्ली में अधिकतम मामले हैं तो ऐसा इसलिए नहीं है कि ये मेट्रो शहर अपने आप में जटिल या लापरवाह हैं. सत्ता, आर्थिक गतिविधियों और निवेश का केंद्र होने के कारण अधिकतम संख्या में प्रवासी यहां नौकरी की खोज में पहुंचते हैं और ये आगंतुकों के लिए प्रवेश द्वार हैं. इसमें भी उनकी कोई गलती नहीं है कि वहां गैर बीजेपी सरकारें हैं. इसलिए उन्हें उनकी लड़ाई में अकेले नहीं छोड़ा जा सकता या फिर महामारी से लड़ाई में अतिरिक्त संसाधनों की कमी होने नहीं दी जा सकती.

राष्ट्रीय पूल या फंड बनाना महत्वपूर्ण है - जैसे COVID-19 उन्मूलन फंड - जिससे हर राज्य को संकट से लड़ाई के लिए पैसा मिलना चाहिए. तटस्थ मध्यस्थ के रूप में जीएसटी काउंसिल या वित्त आयोग की तर्ज पर एक संवैधानिक प्राधिकरण बनाया जाना चाहिए. संवैधानिक तरीके से इसे साफ-सुथरा होना चाहिए और केंद्रीय मदद के आवंटन में वर्तमान राजनीतिक पक्षपात के संदेह से बाहर निकलना चाहिए.

भारतीय संविधान के वास्तविक लेखक/संकलक डॉ. भीमराव अंबेडकर ने यही तरीके अपनाए होते.

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