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ओपिनियन:मोदी के दूसरे टर्म पर ग्रहण लगा सकती है SP-BSP की साझेदारी

अखिलेश-मायावती का मिलना देश की राजनीति को बदलने की क्षमता रखता है, कई कारण हैं जो इसे खास बनाते हैं

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बड़ा पुराना नारा है - “मिले मुलायम कांशीराम, हवा में उड़ गये जय श्रीराम”. ये नारा चला था 1993 में. तब यूपी में विधानसभा चुनाव होने थे. मुलायम सिंह यादव और कांशीराम में समझौता हुआ था. दोनों ने एक साथ चुनाव लड़ने का फैसला किया था.

ये वो वक्त था जब देश में सांप्रदायिकता की आंधी पूरे शबाब पर थी. गली-गली, शहर-शहर मुसलमानों के खिलाफ गंदे-गंदे भड़काऊ नारे दिये जाते थे. विभाजन के समय का माहौल बनाने की कोशिश की जा रही थी. राममंदिर आंदोलन उभार पर था. बाबरी मस्जिद ढहाई जा चुकी थी. बीजेपी में तब लाल कृष्ण आडवाणी का डंका बजता था. और यूपी में कल्याण सिंह हिंदू ह्रदय सम्राट बने हुये थे. उनकी तूती बोलती थी.

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मुलायम-कांशीराम के गठजोड़ जैसी अखिलेश-मायावती की साझेदारी!

बाबरी मस्जिद ढहने के बाद बीजेपी की सरकार को बर्खास्त कर दिया गया था. चुनाव हो रहे थे और बीजेपी अपनी जीत को लेकर पूरी तरह से आश्वस्त थी. लेकिन मुलायम और कांशीराम के गठजोड़ ने समीकरण बदल दिया. वैसे ही जैसे यूपी के उपचुनाव में गोरखपुर और फूलपुर में अखिलेश यादव और मायावती के साथ ने गेम पलट दिया.

समाजवादी पार्टी के उम्मीदवार दोनों सीटें जीत गये. 1993 में भी बीजेपी यूपी का चुनाव हार गई थी. नारा सही साबित हुआ. कमंडल की राजनीति पर मंडल की राजनीति भारी पड़ी. जय श्रीराम का नारा भी बीजेपी की नैया पार नहीं लगा पाया.

क्या हैं गोरखपुर-फूलपुर में बीजेपी के हार के मायने?

गोरखपुर और फूलपुर के चुनावी नतीजे कई मायनों में दिलचस्प हैं. गोरखपुर से बीजेपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ 5 बार से जीतते आये थे. उनके पहले ये सीट महंत अवैद्यनाथ तीन बार जीते थे. यानी राम मंदिर के उभार के बाद बीजेपी ये सीट कभी हारी ही नहीं. 2014 में भी योगी इस सीट पर तीन लाख वोट से जीते थे. 2017 मे यूपी विधानसभा में भयंकर जीत के बाद योगी मुख्यमंत्री बनाये गये. तब सब हैरान रह गये थे.

योगी की छवि एक सांप्रदायिक नेता की थी. जिनके खिलाफ मुस्लिम समुदाय के खिलाफ भड़काऊ भाषण देने का मुकदमा चल रहा था. कट्टरपंथी नेता के तौर पर उनकी पहचान होने से ये सवाल खड़ा हुआ था कि वो क्या यूपी का शासन चला पायेंगे. पर बीजेपी के एक बड़े नेता ने मुझे कहा था वो भविष्य का नेता है. ये बात एक गंभीर नेता ने कही थी. मैं उनकी बात से सहमत नहीं था. कम से कम यूपी के लोगों को ये झटका लगा था.

शुरूआती दिनों में टीवी ने योगी पर इतना फोकस किया, उनको इतना दिखाया कि कुछ समय के लिये तो मोदी जी भी टीवी से बाहर हो गये थे. ये बातें कही जाने लगी थी कि योगी, मोदी के असली उत्तराधिकारी होंगे. वो भविष्य के प्रधानमंत्री हैं.

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‘संघ परिवार योगी में हिंदुत्व का असली रूप देखता है’

संघ परिवार योगी में हिंदुत्व का असली रूप देखता है. जहां राजनीति धर्म से आ मिलती है. जैसे पेशवाशाही के जमाने में धार्मिक और राजनीतिक सत्ता एक हो गयी थी. उसके बाद हिंदू राष्ट्र का सपना साकार होगा. यानी संघ की सोच में मोदी हिंदू राष्ट्र का मार्ग प्रशस्त करेंगे और उसकी असल स्थापना योगी के हाथों होगी.

संघ और बीजेपी को हमेशा ये लगता था कि कल्याण सिंह के बाद से राज्य में एक भी उनके कद का नेता नहीं आया जो पार्टी को अपने बल पर चुनाव जिता सके.

योगी आदित्यनाथ में कल्याण सिंह का अक्स?

राजनाथ सिंह बड़े नेता हैं पर बीजेपी उन्हे केंद्र की सत्ता में ही देखना चाहती है. वो भी राज्य की राजनीति में उलझना नहीं चाहते. संघ का भी आकलन था कि यूपी जीते बगैर दिल्ली नहीं जीती जा सकती, हिंदू राष्ट्र नहीं बन सकता. यही कारण है कि मोदी को बनारस से चुनाव लड़ाया गया. विधानसभा की जीत के बाद योगी को दूसरा कल्याण सिंह बनाने का ख्वाब देखा गया. योगी कल्याण सिंह की तरह ही संघ के हिंदूवादी रंग में रंगे हैं. आक्रामक हैं. उम्र उनके साथ है यानी वो लंबी रेस के घोड़े साबित हो सकते हैं.

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सरकार में आते ही एक्शन में योगी आदित्यनाथ

योगी ने मुख्यमंत्री बनते ही तेवर दिखाने शुरू किये. गोरक्षा के नाम पर बूचड़खानों पर कहर ढाना शुरू हो गया, यूपी से मांस गायब होने लगा. सबको पता था कि गोरक्षा तो बहाना है, मुसलमान असल निशाना है. फिर शुरू हुआ लव जिहाद पर हमला और रोमियो स्क्वॉड का गठन. थोड़े दिन बीते तो गुजरात की तर्ज पर पुलिस मुठभेड़ में अपराधी मारे जाने लगे. पुलिस की गोलियों से तकरीबन चालिस अपराधी या गुंडे मौत के घाट उतार दिये गये.

यानी एक ऐसा मुख्यमंत्री जिसके नाम पर अपराधी कांपते हैं. यानी एक “मांसलवादी हिंदुत्ववादी मर्द” जिसकी कल्पना कभी सावरकर ने की थी. ऐसा नेता अगर अपना चुनाव क्षेत्र न जिता पाये तो वो कैसे संघ का सपना पूरा करेगा? ये सवाल तो अब पूछा जायेगा. संघ के अंदर भी और संघ के बाहर भी.

मौर्य की सक्रियता भी नहीं बचा सकी सीट

फूलपुर की सीट केशव प्रसाद मौर्या की थी. वो प्रदेश अध्यक्ष रह चुके हैं, मौजूदा सरकार में उपमुख्यमंत्री भी. बीजेपी उन्हे नेता के तौर पर आगे बढ़ाना चाहती है. विश्वहिंदू परिषद में काफी एक्टिव होने की वजह से उनके हिंदुत्ववादी होने पर कोई संदेह नहीं. ठाकुर योगी और बहुजन मौर्या का जातीय समीकरण काफी सोच समझ कर बैठाया गया था. पर मौर्या भी फेल हो गये.

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यूपी के नतीजों की असल तस्वीर ज्यादा गहरी है

लेकिन यूपी के नतीजों का ये एक पक्ष है. असल तस्वीर ज्यादा गहरी है. जिसके सूत्र 1993 की हार में खोजे जा सकते हैं. सवाल ये है कि जब हिंदुत्व अपने उभार पर हो, जब मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद ये माना जाये कि हिंदुओं का एक बड़ा वर्ग बीजेपी और संघ का मुरीद हो गया है तो फिर बीजेपी दोनों सीट क्यों हारी ?

2014 के लोकसभा में मायावती का खाता नहीं खुला. समाजवादी पार्टी बड़ी मुश्किल से 5 सांसद जिता पायी थी. बीजेपी गठबंधन को 73 सीटें मिली थी. 2017 विधानसभा में मायावती की हालत और खस्ता हो गई वो सिर्फ 18 विधायक ही विधानसभा में भेज पायी. समाजवादी भी सिमट कर 48 सीट पर रह गई. फिर आखिर एक साल में क्या जादू हो गया कि बीजेपी अपने ही बड़े नेताओं के गढ़ नहीं बचा पायी ? दरअसल, ये कहानी भारतीय राजनीति से ज्यादा भारतीय समाज की है.

भारतीय राजनीति से ज्यादा भारतीय समाज का असर

ये किसी से छिपा नहीं है कि हिंदू समाज जातियों में बंटा है. ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और दलित. उच्च जातियों का हजारों साल से आधिपत्य रहा है. और दलित और पिछड़ी जातियां हमेशा से दबी कुचली रही. जिन्हें सिर उठाने की भी इजाजत नहीं थी, जो शास्त्र का अध्य्यन नहीं कर सकते थे, जिनके साथ छुआछूत बरता जाता था.

बाबा साहेब आंबेडकर कहते थे कि जिन्हें जानवर से भी बदतर माना जाता था. इंसान तो कभी समझा ही नहीं गया. आजादी की लड़ाई के समय आंबेडकर ने दलितों और पिछड़ी जातियों में नई चेतना का संचार किया. उन्हे बराबरी का दर्जा मिले ये लड़ाई लड़ी. बाद में मंडल कमीशन के लागू होने के बाद अगड़ी और पिछड़ी जातियों की लडाई और तीखी हो गई.

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संघ परिवार की उलझन

वो कानून के सामने बराबरी के साथ-साथ सत्ता में अपनी संख्या के अनुसार हिस्सा भी मांगने लगे. यहीं पर आकर संघ परिवार फंस जाता है. क्योंकि संघ की सामाजिक चेतना अगड़ी जातियों की है जिसे बाबासाहेब आंबेडकर “ब्राह्मणवाद” कहते हैं. ब्राह्मणवाद और पिछड़ा-दलितवाद में पुराना बैर है. ये अकारण नहीं है कि अखिलेश और मायावती के गठजोड़ को योगी ने अपने प्रचार में सांप-छछुंदर का मेल बोला था. ये एक सोच है.

अगड़ी-पिछड़ी जातियों का समीकरण

संख्याबल में पिछड़े और दलित हिंदू समाज का 80% है और अगड़ी जातियां 20%. लोकतंत्र संख्या बल का खेल है. जिसके साथ जितने लोग उतनी सत्ता उसके साथ. जब-जब लड़ाई 80 बनाम 20 के बीच होगी 20को हारना ही होगा. पर ऐसा तब होगा जब 80 एक साथ रहे. बंटे तो हारे.

2014, 2017 में दलित पिछड़े बंटे हुए थे, यानी मंडल वाली ताकतें एकजुट नहीं थी. समाजवादी और बीएसपी यानी अखिलेश यादव और मायावती अलग-अलग थे. बीजेपी एकजुट थी, कुछ दूसरी पिछड़ी जातियों को साथ में लाने से उसकी ताकत बढ़ गई थी. लिहाजा दोनों बार उसे बंपर जीत मिली. पर उपचुनावों में दोनों के साथ आते ही बीजेपी को दिन में तारे दिखने लगे.

सोशल इंजीनियरिंग बीजेपी के राह की सबसे बड़ी मुसीबत?

बीजेपी के एक जमाने में मज़बूत नेता रहे गोविंदाचार्य इसे “सोशल इंजीनियरिंग” कहते थे. इस बार ये सोशल इंजीनियरिंग हुई. नतीजा सबके सामने हैं. ये सोशल इंजीनियरिंग मोदी के रास्ते में सबसे बडा कांटा साबित होगा.

अगर मायावती और अखिलेश यादव एक साथ रहे तो मोदी जी कुछ भी कर ले 2014 की तरह बीजेपी गठबंधन 73 सीट नहीं जीत सकती. और अगर ऐसा हुआ तो फिर बीजेपी के लिये लोकसभा में बहुमत का आंकड़ा छूना असंभव हो जायेगा.

2014 में मोदी की आंधी चली थी, लोग मोदी जी को प्रधानमंत्री बनाने के लिये निकले थे, उत्तर भारत में उन्हे 80% से ज्यादा लोकसभा की सीटें आयी थी, 5 साल सरकार मे रहने के बाद पुरानी सारी सीटें ज्यादा असंभव हैं. अगर इस पर अखिलेश और मायावती का तड़का लग गया तो ये घाव में मिर्च मसलने जैसा होगा.
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अखिलेश-मायावती का मिलना राजनीति बदल सकता है

यानी किस्सा वहीं आकर रुक जाता है कि “मिले मुलायम कांशीराम, हवा में उड़ गये जय श्रीराम”. अखिलेश मायावती का मिलना देश की राजनीति को बदलने की क्षमता रखता है. मोदी के दूसरे टर्म पर ग्रहण लगा सकता है. ये गठजोड़ विपक्ष को ये संदेश भी देता है कि अगर सब एक हो जाये, अखिल भारतीय स्तर पर यूपी जैसी सोशल इंजीनियरिंग कर सके तो मोदी को रोका जा सकता है और साथ ही आरएसएस का भारत को हिंदू राष्ट्र बनाने का सपना भी चकनाचूर किया जा सकता है.

लेकिन लाख टके का सवाल ये है कि विपक्ष में क्या ये समझ स्थायी होगी और क्या मोदी जी इस समझ को तोड़ने के लिये सरकारी मशीनरी का इस्तेमाल नहीं करेंगे? और क्या विपक्ष में मोदी जी की तिकड़मों को निरस्त करने का माद्दा और मानसिक ताकत है या नहीं? यहाँ से मोदी जी से ज्यादा विपक्ष की परीक्षा का दौर शुरू होगा. अभी तो बस खेल शुरु हुआ है? देखते जाइये आगे आगे होता क्या है ?

(लेखक आम आदमी पार्टी के प्रवक्‍ता हैं. इस आर्टिकल में छपे विचार उनके अपने हैं. इसमें क्‍व‍िंट की सहमति होना जरूरी नहीं है.)

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