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जनसंख्या नियंत्रण: चीन न सही, कम से कम भारत के अनुभव से तो सीखते यूपी, असम

China को वन चाइल्ड पॉलिसी की मूर्खता का अहसास तब हुआ जब जनसंख्या का भयानक 'उल्टा पिरामिड' बना

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दुनिया के दो सबसे बड़ी आबादी वाले देश, भारत और चीन 1970 के दशक में अपने बर्थ कंट्रोल पॉलिसी (Birth Control Policy) के साथ भारी गलती कर बैठे. एक दुर्लभ गलत निर्णय में देंग शियाओपिंग ने यह मान लिया था कि 'वन चाइल्ड फैमिली' रूल को कठोरता से लागू करके चीन के जनसंख्या विस्फोट को दूर किया जा सकता है. इसके बाद राज्य ने हर उस परिवार के खिलाफ कड़ी कारवाई की, जिसने 'वन चाइल्ड पॉलिसी' को तोड़ने का साहस किया.

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लेकिन देंग और उनके कम्युनिस्ट साथियों ने जनसंख्या अंकगणित के एक महत्वपूर्ण पक्ष पर ध्यान नहीं दिया. यदि उन्होंने केवल 3 पीढ़ियों के लिए फैमिली चार्ट तैयार किया होता तो उन्हें अपनी मूर्खता का एहसास होता, क्योंकि उन्हें उसमें एक भयानक 'उल्टा पिरामिड' दिखता. आप बस इसके बारे में सोचिए. दादा-दादी के दो जोड़े,यानी 4 वयस्क अपनी दूसरी पीढ़ी में केवल 2 वयस्क को जोड़ते हैं.ये दोनों वयस्क तीसरी पीढ़ी में केवल 1 वयस्क को जोड़ते हैं.

इससे सामने आता है 'भयानक उल्टा पिरामिड' जहां 6 लोग, दादा-दादी और माता-पिता का समूह, तीसरी पीढ़ी के रूप में केवल 1 बच्चे को पीछे छोड़ कर जाते हैं.

चीन भुगत रहा 'वन चाइल्ड पॉलिसी' का विनाशकारी परिणाम

चूंकि हर अगली पीढ़ी लंबे समय तक जीवित रहने लगी है, वन चाइल्ड पॉलिसी के तहत ना सिर्फ जनसंख्या नाटकीय रूप से कम हो जाती है बल्कि जनसंख्या में बुजुर्गों का शेयर काफी बढ़ जाता है. इन सभी का बोझ एक ग्रैंड चाइल्ड पर आ जाता है जिसे 6 वयस्क आश्रितों की देखभाल करनी होती है. इसके अलावा अपने पति या पत्नी और 1 बच्चे की भी देखभाल. यानी एक प्रोडक्टिव वयस्क पर 8 लोग आश्रित होते हैं.

आज चीन 'वन चाइल्ड पॉलिसी' के सरल लेकिन विनाशकारी जनसांख्यिकीय परिणामों को भुगत रहा है क्योंकि इससे चीन के लेबर फोर्स में अत्यधिक कमी आई है और इसने आर्थिक विकास पर एक गंभीर दबाव पैदा किया है. चीन ने अब अपने 'वन चाइल्ड पॉलिसी' को समाप्त कर दिया है और आक्रमक रूप से विवाहित जोड़ों को अधिक बच्चे पैदा करने के लिए मनाने की कोशिश कर रहा है. लेकिन एक बच्चे वाले परिवार में रहने के आदी हो गए ये लोग अब इसके लिए अनिच्छुक हैं.

भारत में इमरजेंसी के दौरान सामूहिक नसबंदी

विडंबना ये है कि 1975 में आपातकाल के दौरान भारत ने भी जबरिया जनसंख्या नियंत्रण का प्रयोग किया. प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने अपने बेटे संजय के कहने पर, वयस्कों की नसबंदी के लिए एक क्रूर अभियान शुरू किया. यह एक असामान्य रूप से जबरदस्ती वाला कार्यक्रम था, जिसमें सरकारी अधिकारी नसबंदी के अपने लक्ष्यों को पूरा करने के लिए हिंसक रणनीति अपनाते थे.

शुक्र था कि केवल 21 महीने बाद आपातकाल हटा लिया गया . श्रीमती गांधी चुनाव हार गईं क्योंकि भयभीत मतदाताओं ने सामूहिक नसबंदी को खारिज कर दिया था. बाद की सरकारों ने भी कभी जनसंख्या नियंत्रण के लिए सख्ती का प्रयास नहीं किया.
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भारत ने अपने उद्देश्यों को हासिल करने के लिए शिक्षा और जागरूकता की ओर रुख किया. वो धीरे-धीरे अपना काम कर रहे हैं, लेकिन देश का बड़ा हिस्सा वर्तमान में प्रति मां 2.1 बच्चों की रिप्लेसमेंट रेट पर या उससे कम पर है. उत्तर प्रदेश और बिहार में जन्मदर ज्यादा है लेकिन इन राज्यों में भी, ग्रोथ रेट रिप्लेसमेंट रेट की तरफ गिर रही है. वो समय आएगा जब भारत की जनसंख्या स्थिर हो जाएगी, शायद 150 या 160 करोड़ के आसपास.

सामूहिक नसबंदी इमरजेंसी की लज्जाजनक विरासत रही है. ये हैरान करता है कि उत्तर प्रदेश और असम की बीजेपी सरकारें जनसंख्या नियंत्रण के लिए बलपूर्वक तरीकों की नीतियां बना रही हैं.

राज्यों का लक्ष्य जनसंख्या नियंत्रण या ध्रुवीकरण ?

हालांकि, यहां लक्ष्य जनसंख्या नियंत्रण की बजाय ध्रुवीकरण लगता है. मुख्यमंत्री आदित्यनाथ खुले आम 'विभिन्न समुदायों के बीच जनसंख्या नियंत्रण' की बात कर रहे हैं, जो कि परोक्ष संदर्भ मुस्लिमों के लिए लगता है, जिन पर ज्यादा बच्चे पैदा करने का आरोप लगता रहा है. असम के सीएम हिमंत बिस्वा सरमा 'प्रवासी मुस्लिम समुदाय' को निशाना बना रहे हैं. दोनों सख्त कानून ला रहे हैं जिसमें दो से ज्यादा बच्चों वाले परिवारों के लिए सजा का प्रावधान होगा. इसका उल्लंघन करने वाले को स्थानीय चुनावों लड़ने से रोक दिया जाएगा और सरकारी नौकरी, प्रमोशन या सब्सिडी नहीं मिलेगी.

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क्या उत्तर प्रदेश और असम के जनसंख्या नियंत्रण कानून अपने लक्ष्यों को पा सकेंगे? इस पर सवाल उठने लाजमी हैं क्योंकि सजा ने कभी-कभार ही काम किया है. हालांकि, शिक्षा, माली हालत सुधारना और महिला सशक्तिकरण हमेशा काम करता है. देश की आबादी को तर्कसंगत बनाने का यही सबसे अच्छा तरीका है.

वहीं, दूसरी तरफ क्या ये कानून अपने कथित परोक्ष लक्ष्यों को पा सकेंगे? उम्मीद ही की जा सकती है कि समुदाय विभाजित करने वाले प्रोपेगेंडा को समझ सकें. दुर्भाग्यपूर्ण है कि 'WhatsApp यूनिवर्सिटी' के नफरत फैलाने वाले रिकॉर्ड को देखते हुए सबसे खराब स्थिति के लिए तैयार रहना चाहिए.

क्या ये एक और उदाहरण है कि चीन इतिहास से सबक लेकर आगे बढ़ रहा है, लेकिन भारत उन्हीं सबक को दरकिनार कर पीछे जा रहा है?

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