उत्तराखंड के मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत के जनता दरबार में जो कुछ हुआ वह दुर्भाग्यपूर्ण है. एक मुख्यमंत्री को यह बर्ताव शोभा नहीं देता. खासकर जनता दरबार में, जहां उसके होने का मकसद ही जनता का दुख-दर्द सुनना और उसे दूर करना है. खबर यह है कि फरियादी शिक्षिका सस्पेंड कर दी गई है. जनता के सेवक द्वारा जनता को दंडित करना और ज्यादा दुर्भाग्यपूर्ण है. मदद की आस पर नुकसान की आशंका हावी हुई तो मुमकिन है कि लोग त्रिवेंद्र सिंह रावत से मिलने से कतराएं. उस परिस्थिति में वह दरबार लगाएंगे और उसमें दरबारी भी होंगे, लेकिन जनता नहीं होगी.
इससे पहले भी कुछ मुख्यमंत्रियों के जनता दरबार में हंगामा हो चुका है. बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के दरबार में एक नाराज फरियादी ने चप्पल से हमला किया था. दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के जनता दरबार में तो इतना हंगामा मचा कि उसके बाद उन्होंने दरबार लगाना ही बंद कर दिया था. दोनों ही मुख्यमंत्री बीच-बीच में दरबार सजाते हैं और बंद करते हैं. उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ पर एक फरियादी ने जबरन बाहर निकालने का आरोप लगाया. मतलब जनता दरबार को लेकर विवाद होते रहते हैं.
दरअसल, जनता दरबार सुनने में बड़ा अच्छा और लोकतांत्रिक लगता है. जनता का दरबार, जिसमें जनता का सेवक हाजिर हो और उनकी शिकायतों को सुने और दूर करे. इसलिए बहुत से मुख्यमंत्री जनता के लिए दरबार सजाते हैं. यह उन्हें लोगों से सीधे जुड़ने का मौका देता है. इसी बहाने मुख्यमंत्री खुद को जनता के रखवाले के तौर पर प्रस्तुत करता है. इससे उसके “राजा” होने के अहंकार की पुष्टि भी हो जाती है. उधर जनता को यह लगता है कि दरबार उसके लिए सजाया गया है और जब कहीं सुनवाई नहीं होगी तो जनता दरबार में उसकी सुनी जाएगी और राहत भी मिलेगी.
सामंती सोच की देन है जनता दरबार
यह जनता दरबार का एक पक्ष है. वह पक्ष जो दरबार सजाने वाला मुख्यमंत्री या उसके समर्थक प्रस्तुत करते हैं. इसका दूसरा पहलू जनता दरबार की मूल अवधारणा को चुनौती देता है. इसकी पूरी परिकल्पना उस सामंती सोच से जन्म लेती है जो लोकतांत्रिक मूल्यों के विरुद्ध खड़ी होती है. इसे समझने के लिए आप जनता दरबार की वास्तविक तस्वीर पर नजर डालिए.
दरबार जनता नहीं लगाती, दरबार मुख्यमंत्री सजाता है. सबकुछ मुख्यमंत्री की सहूलियत के हिसाब से तय होता है. दरबार में जो लोग जाते हैं, उन्हें शक की नजर से देखा जाता है. इसलिए मुख्यमंत्री के इर्द-गिर्द कड़ी सुरक्षा व्यवस्था रहती है. मुख्यमंत्री को हमेशा यह लगता है कि कहीं कोई सरकारी तंत्र से पीड़ित व्यक्ति उस पर हमला न कर दे.
इसलिए फरियादी को कई चरणों की सुरक्षा से गुजरने के बाद मुख्यमंत्री के सामने पेश किया जाता है. वहां भी उसे सुरक्षाकर्मी घेरे रहते हैं. सैकड़ों मील का सफर तय करके मुख्यमंत्री से मिलने की आस में पहुंचा फरियादी हाथ जोड़े खड़ा रहता है. उसके पास चंद मिनट होते हैं जिसमें वह अपनी अर्जी सौंपता है और मदद की गुजारिश करता है. सबकुछ ऐसा होता है जैसे कोई अपने “राजा” से मदद की गुहार लगा रहा हो.
अर्जी लेने के बाद मुख्यमंत्री उसे अधिकारियों को सौंप देता है और फरियादी को लौट जाने को कहता है. थोड़े समय बाद कुछ लोगों की अर्जी पर कार्रवाई हो जाती है और बाकी खाली हाथ रह जाते हैं. सैकड़ों मील की यात्रा और कई दिन की मशक्कत के बाद उनके हाथ निराशा लगती है और लोकतंत्र में बची हुई आशा भी खत्म हो जाती है.
सीएम की नहीं सुनते पीएम, सांसदों-विधायकों को अनसुना करते सीएम
भारत में प्रतिनिधिक लोकतंत्र है. यहां हम जन प्रतिनिधि चुनते हैं. पंचायत, विधानसभा और संसद सभी जगह जनता के प्रतिनिधि होते हैं. मुख्यमंत्री, प्रधानमंत्री सब जनता के प्रतिनिधि होते हैं. इनके जरिए जनता ही राज करती है. लेकिन विडंबना देखिए कि जनता दरबार लगाने वाले ज्यादातर मुख्यमंत्रियों पर जनता के चुने हुए प्रतिनिधियों की अनदेखी का आरोप लगता है.
शिकायतें आती हैं कि वो अपने विधायकों, सांसदों की जरा भी नहीं सुनते. कुछ समय पहले नीतीश कुमार के राज में सत्ताधारी गठबंधन के एक प्रतिनिधि ने बताया कि मुलाकात की गुजारिश करने के बाद भी मुख्यमंत्री समय नहीं देते हैं. यह हाल कमोवेश सभी मुख्यमंत्रियों का है. सांसद भी मिलना चाहें तो उन्हें मुश्किल से समय मिलता है. विधायक और पंचायत प्रतिनिधियों का क्या हाल होगा आप अंदाजा लगा सकते हैं?
हमारे प्रधानमंत्री से तो कई राज्यों के मुख्यमंत्री मिलने की गुजारिश करते हैं और वो मिलने से मना कर देते हैं. बीते हफ्ते ही केरल के मुख्यमंत्री पिनाराई विजयन के कार्यालय ने बताया कि चार बार प्रधानमंत्री से मिलने की गुजारिश की गई, लेकिन हर बार मिलने से मना कर दिया गया.
सांसद कार्यालय में जनता के साथ होता है बुरा बर्ताव
सत्ता के शीर्ष पर बैठे नेताओं का दूसरे जनप्रतिनिधियों के साथ इस बेरुखे बर्ताव के बारे में खबरें अक्सर अखबारों में छपती हैं. लेकिन जनता के प्रति सांसदों और विधायकों का रवैया भी कम बेरुखा नहीं होता है. यह बेरुखी कुछ सीढ़ीनुमा है. मतलब देश का प्रधानमंत्री का रवैया प्रदेश के मुख्यमंत्री के प्रति उदासीन है. मुख्यमंत्री का रवैया सांसदों और विधायकों को लेकर उदासीन हैं. ये सब मिल कर जनता के प्रति उदासीन हैं. कुछ समय पहले इसे मैंने बहुत करीब से महसूस किया.
तब मैं किसी काम से एक सांसद के कार्यालय में गया था. उस समय वहां सांसद महोदय नहीं थे. सांसद प्रतिनिधि थे. बहुत से सांसद अपने क्षेत्र की सेवा के लिए कुछ प्रतिनिधि तैनात कर देते हैं. इन सांसद प्रतिनिधियों से यह उम्मीद रहती है कि वो इलाके की जरूरतों को सांसद महोदय तक पहुंचाएंगे और सांसद वो जरूरतें पूरी करने के लिए आगे कार्रवाई करेंगे. उस दिन एक गरीब आदमी करीब 40-45 किलोमीटर दूर से सांसद से मिलने आया था. सांसद नहीं थे तो सांसद प्रतिनिधि से अपनी बात बताने के लिए पहुंचा.
सांसद प्रतिनिधि पैर पर पैर चढ़ा कर सोफे पर बैठे हुए थे. वह आदमी बीपीएल कार्ड के लिए आया था और उसने सांसद प्रतिनिधि से कहा कि एक चिट्ठी लिखवा देते तो काम हो जाता. सांसद प्रतिनिधि ने उसे डांट कर भगा दिया.
ग्रामीण इलाकों में एक आदमी आज भी 40-45 किलोमीटर की दूरी तय करने के दौरान कई किलोमीटर पैदल चलता है और टैंपों में धक्के खाते हुए पहुंचता है. आने-जाने में उसके 50-60 रुपये खर्च हो जाते हैं सो अलग. इतनी जद्दोजेहद के बाद पहुंचे उस व्यक्ति के साथ सांसद प्रतिनिधि के इस बेरुखे रवैये से मैं हैरान था. लेकिन लोगों से बात करने पर यह पता चला कि ये सांसद प्रतिनिधि ऐसा ही बर्ताव करते हैं. मतलब यह आम बात है.
अंतिम आदमी के हिस्से अनगिनत संघर्षों के सिवाए कुछ नहीं
आप ही सोचिए कि अगर ऐसा नहीं होता और जनप्रतिनिधि जनता के मुद्दों के प्रति संवेदनशील होते तो हजारों-लाखों गरीब लोग सैकड़ों मील की दूरी तय करके मुख्यमंत्री के जनता दरबार में क्यों आते? एक पारदर्शी और साफ सुथरा तंत्र विकसित किया गया होता तो आम लोग दर-दर की ठोकरे क्यों खाते?
यह हमारे जनप्रतिनिधियों और सरकारी तंत्र की विफलता है कि लोगों को उस व्यक्ति के सामने याचक की तरह खड़ा होना पड़ता है जो असल में उसका ही प्रतिनिधि है. इस नजर से देखिए तो जनता दरबार असल में हमारी व्यवस्था की नाकामी और विकृत सामंती सोच का सबसे बड़ा उदाहरण है. और जनता दरबार में मौजूद प्रत्येक व्यक्ति चाहे वह फरियाद सुनने वाला मुख्यमंत्री हो या फिर फरियादी - हर कोई व्यवस्था की नाकामी का गवाह है.
जब व्यवस्था नाकाम हो और जनप्रतिनिधि निष्ठुर और निकम्मे हों, तो उस परिस्थिति में समाज के अंतिम पायदान पर खड़े व्यक्ति के हिस्से अनगिनत संघर्षों के सिवाए कुछ नहीं होता. संघर्ष आम लोगों की मजबूरी है और जरूरत भी. क्योंकि उसके इसी संघर्ष में परिवर्तन की उम्मीद छिपी है.
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