भारत की सार्वजानिक राजनीतिक कल्पना में 'फकीर' शब्द के पीछे काफी आकर्षण छिपा है. राजा भर्तृहरि की कहानियां हम सब सुनते आए हैं. भारत के कोई फकीर नहीं थे, वे राजनेता थे और एक ऐसे परिवार से ताल्लुक रखते थे, जिसके पास हजारों एकड़ जमीन और सामाजिक-सांस्कृतिक पूंजी थी. इसके बावजूद उन्होंने अपने व्यक्तिगत और राजनीतिक जीवन में इतनी शुचिता और पारदर्शिता रखी कि उनके समर्थक नारा लगाते थे कि 'राजा नहीं फकीर है देश की तकदीर है'.
देश की तकदीर तब तक बेहतर नहीं हो सकती थी, जब तक कि उसके करोड़ों लोग किसी जाति विशेष में पैदा होने के कारण निर्योग्यता और बहिष्करण का सामना कर रहे हों. भारत की सामाजिक संरचना में स्थित कोई गैर-ब्राह्मण व्यक्ति संस्कृत का जानकार होने के बावजूद भागवत की कथा नहीं बांच सकता था, कोई दलित मंदिर में नहीं घुस सकता था और अपनी गरीबी के कारण शिक्षा नहीं ग्रहण कर सकता था. यह सदियों तक जारी रहा है.
अपनी-अपनी विश्व दृष्टि के हिसाब से ज्योतिबा फुले, नारायण गुरु, महात्मा गांधी, और डॉक्टर अंबेडकर ने इसके कारणों को समझा था.
देश को जब आजादी मिली, तो दलितों को अनुसूचित जाति, आदिवासियों को अनुसूचित जनजाति की श्रेणी के अंदर आरक्षण दिया गया. वे थोड़ा सा आगे बढ़े, लेकिन इस सरकारी श्रेणी के बाहर एक बड़ी संख्या उन जातियों की थी, जिसके पिछड़ेपन की ओर काका कालेलकर की अध्यक्षता में गठित आयोग ने ध्यान दिलाया था. कई दशक तक कुछ खास नहीं हुआ.
एक लंबे समय तक भारतीय राजनीति, शिक्षा, सरकारी नौकरियों और प्रतिनिधित्व के स्तर पर पिछड़ी जातियां अदृश्य थीं. हालांकि गांधीजी के सबसे विश्वनीय साथियों में से एक राममनोहर लोहिया ने इसके बारे पर्याप्त सामाजिक और राजनीतिक विमर्श पैदा कर दिया था. लेकिन आपातकाल की कोख से निकली पिछड़ी जातियों के नेताओं की पीढ़ी ने अपनी-अपनी राह चुनी.
उन्हें जब समाज में न्याय और बराबरी के लिए संघर्ष करना था, तब उन्होंने अपनी पार्टियां बनाने की ओर ध्यान दिया, लेकिन जब मंडल कमीशन लागू हुआ, तो उन्होंने इस अवसर को हाथ से नहीं जाने दिया. जयप्रकाश नारायण के आन्दोलन की स्मृति कमजोर पड़ती, इससे पहले सामाजिक न्याय के मोर्चे पर कई नेताओं का उदय हुआ. लालू प्रसाद यादव, मुलायम सिंह यादव और एचडी देवगौड़ा की आधारभूमि बनाने का यह काम सामाजिक न्याय के इसी मोर्चे से शुरू हुआ.
समाजविज्ञानी रजनी कोठारी जिसे कांग्रेसी सिस्टम कहते थे, वह मूलतः उच्च जातियों के समर्थन पर जीवित था. 1970 के दशक से इसमें धीरे-धीरे जंग लगा और राजनीतिक शक्ति के नए केंद्र उभरे. 1977 के बाद यह दूसरा अवसर था जब गैर कांग्रेसवाद ने शक्ति संबंधों को अपनी ओर मोड़ा.
वीपी सिंह ने लागू किया था मंडल कमीशन
विश्वनाथ प्रताप सिंह भारत के आठवें प्रधानमंत्री बने और इसके पहले थे उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री रह चुके थे. वे एक साल से भी कम समय के लिए प्रधानमंत्री रहे- 2 दिसम्बर 1989 से 10 नवम्बर 1990 तक. इस बीच में उन्होंने मंडल कमीशन की रिपोर्ट लागू कर दी. इस रिपोर्ट के लागू होने के बाद पूरे देश में उन जातियों के लोगों ने बसें फूंकी, सरकार का विरोध किया और आत्मदाह किया जिन्हें अब तक सरकारी नौकरियों तक आसान पहुंच हासिल थी.
सबको पता था कि सरकारी नौकरियां सीमित हैं और जिसे सरकारी शिक्षा के बल पर अब तक कुछ लोग ही पाते आए थे. अब उसमें कुछ और नए लोग शामिल हो जाएंगे.
इन्हें अन्य पिछड़ा वर्ग कहा गया. इस वर्ग में वे जातियां थीं जो अस्पृश्य तो नहीं थीं, लेकिन जिन्हें ब्राह्मणों, क्षत्रियों और कुछ इलाकों में कायस्थों से नीचे जगह हासिल थी. इसमें अधिकांश जातियां खेतिहर थीं, छोटा मोटा कम धंधा करती थीं. इनमें एक बड़ा हिस्सा दस्तकार समुदायों का भी था.
अपने प्रधानमंत्री रहने के दौरान विश्वनाथ प्रताप सिंह ने वह रिपोर्ट लागू कर दी, जिनमें इन जातियों के लिए सरकारी नौकरियों और शिक्षा में राह खोलने की बात की गयी थी.
आरक्षण को उन गलतियों की क्षतिपूर्ति के रूप में देखा जाता रहा है, जो वर्ण-व्यवस्था आधारित भारतीय समाज ने अपने ही बीच के एक बड़े हिस्से पर की हैं. ऐसी गलतियां पूरी दुनिया में हुई हैं और उसे सुधारने का प्रयास किया जाता रहा है. दुनिया के लगभग सभी समाजों ने कुछ समुदायों के साथ ऐतिहासिक अन्याय ढाये गए हैं.
1869 से लेकर 1969 के बीच ऑस्ट्रेलिया में मूलनिवासियों की एक पूरी की पूरी पीढ़ी को सांस्कृतिक और आर्थिक रूप से पंगु बना दिया गया. इस पीढ़ी को स्टोलेन जनरेशन कहा जाता है. 2008 में ऑस्ट्रेलिया की संसद की ओर से प्रधानमंत्री केविन रड ने उनसे माफी मांगी.
इन समूहों के लिए ऑस्ट्रेलिया में आरक्षण का प्रावधान किया गया. अपने औपनिवैशिक अतीत की गलतियों की भरपायी करने के लिए संयुक्त राज्य अमेरिका भी इन प्रावधानों का सहारा लेता रहा है.
वीपी सिंह के कदम का कोई पार्टी नहीं कर सकती विरोध
अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया में नागरिक समूहों और प्रभावित समुदायों ने एक लम्बी लड़ाई के बाद अपने लिए थोड़ी सी जगह बनायी है, लेकिन भारत में इसके लिए विश्वनाथ प्रताप सिंह जैसे राजनेता का 'कलंकीकरण' किया गया. उन्हें व्यक्तिगत रूप से अभी तक गलियां दी जाती हैं.
इस सबके बावजूद आज अन्य पिछड़ा वर्ग को दिया जाने वाला आरक्षण वास्तविकता बन चुका है. कोई भी राजनीतिक पार्टी इसका खुला विरोध नहीं कर सकती है. राजनीतिक प्रेक्षकों का मानना है कि बीजेपी को बिहार का पिछला विधानसभा चुनाव इस लिए गंवाना पड़ा, क्योंकि बीजेपी से जुड़े कुछ जिम्मेदार लोगों ने आरक्षण के खिलाफ बयान दिया था.
हालांकि बाद में प्रधानमंत्री ने बिहार के अन्य पिछड़ा वर्ग के लोगों को आश्वस्त किया था कि उनके जीवित रहते कोई भी आरक्षण के खिलाफ कदम नहीं उठा सकता. खैर, तब तक बात बिगड़ चुकी थी.
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विश्वनाथ प्रताप सिंह को प्रधानमंत्री हुए और अन्य पिछड़ा वर्ग को आरक्षण का प्रावधान पाए हुए लगभग तीन दशक हो गए हैं, लेकिन बहुत कुछ किया जाना बाकी है. इसे उत्तर प्रदेश, बिहार और कर्नाटक की राजनीति से समझ सकते हैं. तीनों प्रदेशों में अन्य पिछड़े वर्गों की राजनीति परवान चढ़ी, इससे जुड़े नेताओं ने परिवारवाद को वैसे ही पनाह दी जैसे अन्य पार्टियों ने दीं. उन्होंने सामाजिक न्याय के आधार को कुछ जातियों तक सीमित कर दिया. इसकी कीमत उन्हें चुनाव हारकर चुकानी पड़ी.
इतिहासकार रामचन्द्र गुहा का तर्क
कई सारी जातियां उपेक्षित पड़ी हैं. इतिहासकार रामचन्द्र गुहा कहते हैं कि मंडल कमीशन की रिपोर्ट लागू होने के बाद यह स्पष्ट हो चुका है कि आरक्षण उन समुदायों के लिए खेल बदल देने वाला साबित हुआ है, जो इसे प्राप्त करने की क्षमता प्राप्त कर चुके हैं या कर सकते हैं. जिन समूहों के पास थोड़ी बहुत जमीन रही है, वे आर्थिक रूप से धीरे धीरे उन्नति की ओर बढ़े हैं और उन्होंने सामाजिक सम्मान और राजनीतिक शक्ति प्राप्त की है.
समाजविज्ञानी बद्री नारायण का मानना है कि जो पिछड़ी जातियां परम्परागत भारतीय ग्रामीण समाज में रणनीतिक रूप से बेहतर दशाओं में रही हैं, जिनकी संख्या इतनी पर्याप्त रही है कि वे दिख सकें और यह नारा लगा सकें- जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी, वे आरक्षण का लाभ प्राप्त करने की दिशा में सफल हो सकी हैं.
वास्तव में आरक्षण एक ऐसा प्रकाश स्तम्भ है, जहां तक पहुंचने के लिए एक लम्बा रास्ता तय करना पड़ता है, जिस पर अन्य पिछड़ा वर्ग में शामिल बहुत सी जातियां पैर भी नहीं रख पाती हैं. ऐसी स्थिति में अन्य पिछड़ा वर्ग के लिए आरक्षित पदों के लिए कुछ खास जातियों का संकेन्द्रण होना स्वाभाविक है. इसे एकाएक किसी जाति विशेष से जोड़कर नहीं देखना चाहिए, बल्कि उन स्थितियों की ओर ध्यान देना चाहिए, जिनके कारण सैकड़ों जातियों को अपवंचना का शिकार होकर शहर दर शहर भटकना पड़ रहा है.
उस समूह में दो दर्जन से अधिक जातियां नहीं हैं, जो आरक्षण का लाभ प्राप्त कर पा रही हैं. बाकी की जातियां कहां हैं? वे रिक्शा चला रही हैं. वे काम के इंतजार में लेबर चौराहों पर खड़ी हैं.
मैं इस लेख को एक व्यक्तिगत नोट से समाप्त करना चाहूंगा. यह शायद 2005 की बात है. राजेन्द्र यादव के संपादन में हंस पत्रिका ने नैतिकता विशेषांक निकाला था. उसमें विश्वनाथ प्रताप सिंह के बनाए रेखाचित्र थे. यह एक दूसरे विश्वनाथ प्रताप सिंह थे. वे उस 'विपिया' से भिन्न थे, जिनके बारे में मैंने अपनी जाति और रिश्तेदारी में सुना था. लोग विश्वनाथ प्रताप सिंह को गाली देते समय ‘विपिया’ कहते थे. आज भी ऐसे कुछ लोग हैं.
उसी दौरान, मैं दिल्ली में सिविल सर्विस की तैयारी कर रहा था. परीक्षा में फेल होने के दौरान या अंतिम रूप से सफल न होने पर कई सवर्ण दोस्त विश्वनाथ प्रताप सिंह को गरियाते थे. वे मुझसे हुंकारी भी भरवाना चाहते थे. मैं न उनका विरोध करता और न समर्थन. शायद वे मेरी खामोशी को मेरा समर्थन मान लेते.
खैर, 2008 तक मैं जन्नत की हकीकत और भारतीय समाज की हकीकत समझने लगा था. फिर उनके बारे में पढ़ा, संसद में दिए गए उनके भाषण पढ़े. मई 2010 से जब वास्तविक उत्तर प्रदेश को देखने की शुरुआत हुई, तो पाया कि महात्मा बुद्ध और अम्बेडकर के बाद वे तीसरी बड़ी शख्सियत हैं, जिसने भारतीय समाज के उच्चता क्रम को तोड़कर उसे एक न्यायपूर्ण समाज बनाने की सार्थक पहल की थी.
अभी उनके बारे में कोई कायदे की राजनीतिक जीवनी आनी बाकी है.
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