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इलाहाबाद में ऑक्सफोर्ड दुबका हुआ है और शिवपालगंज दहाड़ रहा है! 

इलाहाबाद यूनिवर्सिटी यूपी की सबसे पुरानी और देश की चौथी सबसे पुरानी यूनिवर्सिटी है

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इलाहाबाद में कानून के छात्र दिलीप सरोज की सरेआम हत्या का वीडियो वायरल होने के बाद से मामले ने तूल पकड़ लिया है. यह ऐसी पहली घटना नहीं है. क्या इलाहाबाद शहर बीमार है? क्या यहां की आधुनिकता में कुछ समस्या है?

इलाहाबाद को कुछ लोग प्यार से पूरब का ऑक्सफोर्ड कहते हैं. लेकिन यहां एक शिवपालगंज भी बसता है. शिवपालगंज श्रीलाल शुक्ल के चर्चित उपन्यास रागदरबारी का गांव है, जहां सामंतवाद की तमाम विकृतियां क्रूर और हास्यास्पद रूप में मौजूद हैं. इलाहाबाद में एक साथ ऑक्सफोर्ड और शिवपालगंज मौजूद हैं. यह शहर इलाहाबाद यूनिवर्सिटी के कारण ऑक्सफोर्ड कहलाता है. लेकिन शहर का मानस यानी दिमाग और मिजाज शिवपालगंज का ही है.

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इस यूनिवर्सिटी की एक समय बहुत महिमा थी. आज भी है. यह यूपी की सबसे पुरानी और देश की चौथी सबसे पुरानी यूनिवर्सिटी है. यूनिवर्सिटी के साथ ही, स्टेट पब्लिक सर्विस कमीशन का मुख्यालय भी यहां है. यूनिवर्सिटी और कॉलेजों में पढ़ने वाले छात्रों के अलावा, प्रतियोगिता परीक्षा की तैयारी करने के लिए भी बड़ी संख्या में छात्र इस शहर में होते हैं.

यहां कोई बड़ा उद्योग नहीं है. सरकारी दफ्तरों, शिक्षा क्षेत्र तथा धार्मिक टूरिज्म से 11 लाख की आबादी वाला यह शहर चलता है. सर्विस सेक्टर बड़ा है. एयरपोर्ट में गिनती के विमान उतरते हैं. छात्रों और प्रतियोगिता परीक्षा की तैयारी करने वाले युवाओं के हॉस्टल, पीजी और किराए के मकान और साथ ही उनके खाने का बंदोबस्त और टिफिन सर्विस इस शहर की अर्थव्यवस्था का प्रमुख आधार है.

इन छात्रों में से ज्यादातर पूर्वी उत्तर प्रदेश के होते हैं और बाकी बिहार के. शिक्षा के केंद्र के साथ ही यह कोचिंग का भी केंद्र है. खासकर सिविल सर्विस परीक्षाओं की तैयारियों के कई केंद्र यहां हैं. भाषा, समाज विज्ञान और कानून की पढ़ाई करने वाले छात्रों की संख्या यहां ज्यादा है, क्योंकि ये सब पढ़ाई करते हुए प्रतियोगिता परीक्षा की तैयारी करने के लिए समय मिल जाता है.

इस इलाहाबाद में इन दिनों एक आंदोलन चल रहा है. यह आंदोलन एलएलबी यानी कानून के दूसरे वर्ष के दलित छात्र दिलीप सरोज की एक रेस्टोरेंट के अंदर और फिर बाहर पीट-पीटकर की गई हत्या के विरोध में है. घटना के शुरुआती ब्योरे के मुताबिक, सरोज का पैर वहां किसी को छू गया था, जिसने इसे अपमान का पर्याप्त कारण माना. बात बढ़ी और गुंडों ने सरोज को मार डाला. इस कांड की सामंतवादी व्याख्या की जा रही है, और इसकी वजह भी है.

इलाहाबाद दरअसल पूर्वी उत्तरप्रदेश का एक टापू है, जिसे आधुनिक मान लिया गया है. लेकिन यहां की सतह को खुरचकर देखिए, तो यहां सामंती अवशेष पूरी तरह मौजूद हैं. यहां आपको जातियों के नाम पर हॉस्टल मिल जाएंगे, जहां एक ही जाति के लोग गिरोहों की तरह रह रहे हैं. इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में कॉलेज भी जातियों के आधार पर बंटे हुए हैं और हर किसी को पता है कि किस कॉलेज मे किनका दबदबा है. जाति के आधार पर कॉलोनियां कटी हुई हैं.

सैकड़ों जातीय संगठन यहां फल-फूल रहे हैं और उनकी सभा-पंचायतें होती रहती हैं. दरअसल यहां कोई इलाहाबाद नहीं है. यह ढेर सारे जातीय-सामाजिक गिरोह का जमावड़ा है. इलाहाबाद में जो एकता या भाईचारा है, वह इन गिरोहों के अंदर है. एक हॉस्टल में खास समुदाय के छात्र का किसी से झगड़ा हो जाए, तो पूरा हॉस्टल उठकर लड़ने आ सकता है. यहां का जो साझापन है, सह-अनुभूति है, वह सार्वभौमिक नहीं है, सबके लिए नहीं है. अपनों के लिए है. और अपना वही है, जिससे आदिम पहचान जुड़ती है.

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यहां लड़कियां सहमकर चलती हैं क्योंकि उनका बेफिक्र और बिंदास होना अच्छा नहीं माना जाता. लड़कियों का लड़कों से मिलना अच्छा नहीं माना जाता. यह समस्या देश के बाकी शहरों में भी है, लेकिन जो शहर खुद को पूरब का ऑक्सफोर्ड कहलाता हो, वह लड़कियों के साथ व्यवहार में इतनी पतनशील कैसे हो सकता है? लड़कियां यहां रात में कम ही निकलती हैं. लाइब्रेरी जल्द ही बंद हो जाती है और हॉस्टल में देर रात लौटने पर पाबंदी है. कॉल सेंटर इंडस्ट्री की यहां कोई संभावना नहीं है.

कुछ साल पहले जब यूपी पब्लिक सर्विस कमीशन में त्रिस्तरीय आरक्षण लागू हुआ तो इसके खिलाफ आंदोलन का केंद्र इलाहाबाद बना और आंदोलनकारियों के निशाने पर दूध वालों के डब्बे थे, जिन्हें पलटकर सारा दूध सड़कों पर बहा दिया गया. जातीय घृणा उस समय इलाहाबाद की सड़कों पर बह रही थी. इलाहाबाद विश्वविद्यालय उन केंद्रीय विश्वविद्यालयों में से एक है, जहां शिक्षक पदों पर आरक्षण सबसे कम लागू हुआ है. चूंकि छात्रों के एडमिशन में आरक्षण लागू है, इसलिए इस विश्वविद्यालय में छात्रों और शिक्षकों की सामाजिक संरचना अलग किस्म की हो गई है, जो वहां स्थायी तनाव का कारण है.

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इलाहाबाद ऐसा क्यों है? एक आधुनिक शहर में एक युवक इसलिए क्यों मारा जाता है कि उसका पैर किसी ऊंची जाति के व्यक्ति से टकरा गया? इलाहाबाद स्त्री-पुरुष समानता के मामले में सांस्कृतिक रूप से इतना पिछड़ा हुआ क्यों है? इलाहाबाद में जातीय संगठन इतने प्रभावशाली क्यों हैं? 

इसकी वजह दरअसल इलाहाबाद के इतिहास में है. इलाहाबाद पूर्वी उत्तर प्रदेश के खेतिहर इलाके में बसा शहर है. अंग्रजों के समय में यह शासन का प्रमुख केंद्र बना और इस वजह से यहां की एक बड़ी आबादी सरकारी बाबुओं की हो गई. यह शहर यूनाइटेड प्रोविंस की राजधानी रहा और हाइकोर्ट भी यहीं बना. पब्लिक सर्विस कमीशन का मुख्यालय भी यहीं स्थापित हुआ. इनमें काम करने वाले बाबू देश के अलग-अलग हिस्सों से आए थे.

अंग्रेज यहां रहते थे, तो अंग्रेजी शिक्षा का भी अच्छा विस्तार था. कॉफी हाउस और क्लब जैसी आधुनिक संस्थाओं ने इस शहर को एक आधुनिक चेहरा दिया. इसके अलावा विश्वविद्यालय में शिक्षक भी देश भर से आए. उस समय का इलाहाबाद सबऑल्टर्न यानी निम्नवर्णीय-निम्नवर्गीय लोगों के असर से बचा हुआ था. तब तक इलाहाबाद सुंदर था. लेकिन इलाहाबाद का आसपास जैसा था, वैसा ही रहा.

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इलाहाबाद में भी आधुनिकता सतह के ऊपर ही थी. जो लोग इलाहाबाद शहर में आए, वे अपनी जड़ों से कटकर नहीं आए. उनके जीवन में इलाहाबाद शहर था और साथ में कंधे पर गठरी की तरह उनका अपना गांव और कस्बा भी चलता रहा. यहां का अमूमन हर कर्मचारी और छात्र अपने गांव या ‘देश’ को साथ लेकर चलता है. वहां की परंपराएं उसके साथ चलती हैं. वह शादी करने अक्सर अपने ‘देश’ की ओर लौटता है. उसका ‘देश’ ही कई बार इलाहाबाद चला आता है. वहां वह अपनी जाति-बिरादरी के लोगों को खोजता है. उनके साथ सॉलिडरिटी बनाता है. उनके गिरोह में शामिल हो जाता है.

यहां गिरोह का मतलब कोई आपराधिक समूह नहीं है. लेकिन आपराधिक बनने में ऐसे समूह को देर भी नहीं लगती. मारपीट करने के लिए ये अक्सर तत्पर रहते हैं. यूनिवर्सिटी और कॉलेज के हॉस्टलों में अक्सर गोला-बारूद मिलता है. लेकिन फिर सब सामान्य हो जाता है.

दरअसल इलाहाबाद की जो समस्या है, वह एक तरह से भारतीय आधुनिकता की समस्या है. भारतीय आधुनिकता का मतलब परंपरा से संबंध विच्छेद नहीं है. यूरोप और अमेरिका ने बेशक परंपरा से नाता तोड़कर आधुनिक युग में कदम रखा. लेकिन भारत परंपरा की गठरी सिर पर लादकर आधुनिक समय में प्रवेश कर रहा है. यहां युग परिवर्तन में एक दोगलापन साफ नजर आता है. इस मायने में भारतीय आधुनिकता को बास्टर्ड मॉडर्निटी जैसा कोई नाम देना होगा.

इलाहाबाद भी बास्टर्ड मॉडर्निटी का शहर है, जहां रागदरबारी उपन्यास का शिवपालगंज हावी है. ऑक्सफोर्ड कहीं कोने में दुबका पड़ा है या फिर अंग्रजों के जाने के साथ ही यहां का ऑक्सफोर्ड ब्रिटेन वापस लौट गया है.

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