दस साल (2007-17), 5 चुनाव और 4 विनर. पिछले 10 बरस में यूपी की यह सबसे बड़ी हेडलाइन है. ये हेडलाइन बताती है कि यूपी में लोकतंत्र की तेज बयार बह रही है, जो सत्ताधारी पार्टी के लिए अच्छी खबर नहीं है. इस तेज बयार ने जाति-धर्म की राजनीति को ध्वस्त कर दिया है. सोशल इंजीनियरिंग के मायने बदल दिए हैं.
आंकड़ों के जरिए बदलते यूपी की कुछ कहानियों पर गौर कीजिए:
- 2007 के विधानसभा चुनाव में मायावती की बहुजन समाज पार्टी को अप्रत्याशित जीत मिली थी. उस जीत की बड़ी वजह थी ब्राह्मणों और वैश्य समुदाय का वोट. ये वही दो ग्रुप हैं, जो मायावती के मुखर विरोधी हुआ करते थे. यह सोशल इंजीनियरिंग का नया प्रयोग था, जो ज्यादा नहीं चल सका.
- दो साल बाद 2009 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को राज्य में भर-भरकर सीटें मिली थीं. आंकड़ों के मुताबिक, अगड़ी जाति के अलावा ओबीसी और दलित वोटों की बदौलत ऐसा हुआ था. पारंपरिक सोच के मुताबिक, ये तीनों ग्रुप एकसाथ वोट नहीं करते हैं. लेकिन उन्होंने ऐसा किया. ये दिखाता है कि लोग जाति के बंधन से बाहर आकर वोट कर रहे हैं.
- 2012 का विधानसभा चुनाव. अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी को यादवों का उतना समर्थन नहीं मिला, जितना मिलता रहा था. इसके बावजूद पार्टी को बड़ी जीत मिली. उस समय भी एक रेनबो गठबंधन की बात हुई, जो जाति की राजनीति के महत्व में कमी की ओर संकेत करता है.
- 2014 में भारतीय जनता पार्टी को अप्रत्याशित जीत मिली थी. मोदी मैजिक ऐसा चला कि बीजेपी को शहरों के मुकाबले गांवों में ज्यादा वोट मिले. अगड़ी जातियों के अलावा एमबीसी और दलित ने बीजेपी को जमकर वोट किए. सारे अनुमान ध्वस्त हो गए, सारे समीकरण बदल गए.
- 2017 में यही ट्रेंड कायम रहा. इस चुनाव में भी सत्ताधारी पार्टी को करारा झटका लगा, जो उस समय समाजवादी पार्टी थी.
वोटरों ने जाति की राजनीति छोड़ी
जाति की राजनीति का खोखलापन बाहर आ रहा है, इसके और सबूत देखिए:
- सवर्ण जाति कहे जाने वालों ने चार चुनावों में अपनी वफादारी चार बार बदली है. जहां 2007 के चुनाव में करीब 20 परसेंट सवर्णों ने बीएसपी को वोट किया था, वहीं 2009 में इसी तबके के करीब 30 परसेंट लोगों का वोट कांग्रेस को गया. 2014 और 2017 में यह तबका बीजेपी के साथ रहा है.
- दलितों का बड़ा हिस्सा बीएसपी से छिटकता जा रहा है. 2012 के चुनाव में तो महिलाएं, युवा और पढ़े-लिखे और शहरियों ने बीएसपी का साथ छोड़ दिया. 2014 में दलितों ने बीएसपी को और भी बड़ा झटका दिया.
- 2012 में यादवों की पहली पसंद समाजवादी पार्टी ही थी. लेकिन सपोर्ट बेस खिसका था. 2014 में तो एक अनुमान के मुताबिक हर 5 में से 1 यादव वोटर ने बीजेपी के पक्ष में अपना वोट डाला था.
ये सारे संकेत एक ही बात की तरफ इशारा कर रहे हैं — यूपी में आइडेंटिटी पॉलिटिक्स की पकड़ कमजोर हो गई है. इसकी वजह से राजनीति में बड़े बदलाव हो रहे हैं.
अगर सारे ट्रेंड 2019 में भी दिखते हैं, तो नतीजों के बारे में हम किस तरह का अनुमान लगा सकते हैं? कुछ बड़े अनुमान इस तरह के हैं:
- यूपी में सत्ताधारी पार्टी को बाहर का रास्ता दिखाने का चलन हाल में बढ़ा है. इस हिसाब से यह अनुमान लगाया जा सकता है कि बीजेपी को यहां जोर का झटका लग सकता है. पाकिस्तान के खिलाफ युद्ध का जिस तरह से माहौल बन रहा है, उससे शायद झटके की तीव्रता में कमी हो. लेकिन कितनी कमी होगी, इसका सही अनुमान नहीं लगाया जा सकता है.
- एसपी-बीएसपी का गठबंधन अनुमान से बेहतर कर सकता है. वो इसीलिए कि यूपी में हाल के दिनों में नया को आजमाने का चलन बढ़ा है. गठबंधन एक नया एक्सपेरिमेंट है. लेकिन क्या यह उम्मीद जगाता है, यूपी वालों की इस पर नजर होगी.
- प्रियंका गांधी यूपी में एक वाइल्ड कार्ड हैं. उनके पास करिश्मा है, वो लोगों के लिए उम्मीद की किरण बन सकती हैं. साथ ही वो यूपी के लिए नई भी हैं. इस हिसाब से इसका बड़ा असर होना चाहिए. लेकिन कांग्रेस का संगठन राज्य में आईसीयू में है और वो प्रियंका के करिश्मे को वोट में बदलने की फिलहाल हालत में नहीं है.
- पुराने ट्रेंड को देखकर यह अनुमान लगाया जा सकता है कि इस बार भी यूपी में नया विनर होगा.
आखिर में, पुराने आंकड़े एक ट्रेंड बताते हैं. लेकिन पाकिस्तान के साथ बढ़ते टेंशन की वजह से लोग किस तरह से वोट करेंगे, इसका अनुमान लगाना काफी मुश्किल है. हम ऐसे मुद्दे वाले चुनाव में जा रहे हैं, जहां इमोशन का तड़का काफी ज्यादा रह सकता है.
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Kaun Jeetega Uttar Pradesh? Looks Like a New Winner This Time
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