योग से चमके पतंजलि के संस्थापक बाबा रामदेव ऐसे ही बिजनेस टाइकून नहीं बने हैं. हर काम में टाइमिंग का बड़ा ध्यान रखते है. उत्तर प्रदेश की योगी आदित्यनाथ की सरकार को देखिये. महीनों से जमीन ट्रांसफर से लिए योगी के अफसर बाबा और उनकी टीम को दौड़ा रहे थे.
चूंकि बाबा के सामने योगी भारी लगते थे तो अफसर भी पतंजलि को ठीक से तवज्जों नही दे रहे थे. लेकिन बाबा शांत रहे और जैसे ही उपचुनावों में हार के कारण शुरू हुई खेमेबंदी में योगी डगमगाते दिखे, पतंजलि ने यूपी छोड़ने की धमकी दे दी. टाइमिंग परफेक्ट थी. कुछ घंटे भी नहीं बीते थे कि योगी ने फोन पर रामदेव को समझाया और सुबह होते-होते कैबिनेट के कई मंत्रियों ने स्पष्टीकरण दे दिया.
बाबा और योगी में कहीं कुछ गड़बड़ है
अब फैसला हो गया कि बाबा की नाराजगी दूर कर दी जाएगी और पतंजलि फूड पार्क यूपी से बाहर नहीं जाएगा. लेकिन इस पूरे प्रकरण ने एक बात साफ हुई है. बाबा और योगी में कहीं कुछ गड़बड़ है.
उनके रिश्तों के बीच कहीं कोई पेंच है? आखिर ये पेंच क्या है? क्या ये अहंकार का टकराव है या फिर बाबा और योगी की सियासत का टकराव है? इसे समझने के लिए हमें सबसे पहले ताजा सौदे की पृष्ठभूमि पर नजर डालनी होगी. क्योंकि विवाद का असली बीज उस सौदे में है.
क्या है जमीन सौदा और क्यों हुआ टकराव?
बाबा रामदेव सिर्फ सांसों को नहीं बल्कि लोगों को भी साधना जानते हैं. धर्म, वर्ण और जाति- जरुरत के हिसाब से इन सबका इस्तेमाल करते हैं. उनका मकसद साफ है, बड़ा बिजनेस अंपायर खड़ा करना. इस हित से बड़ा हित कोई नहीं. इसके लिए उन्होंने स्वदेशी और देशसेवा को ब्रांड प्रमोशन का औजार बना लिया.
अब एक तरफ वो हैं और दूसरी तरफ मल्टीनेशनल और नेशनल एफएमसीजी कंपनियां है. देखते-देखते बाबा ने ऐसा तंत्र विकसित कर दिया कि एफएमसीजी कंपनियों के पसीने छूट गए.
बाबा अपने कारोबार को दूसरी कंपनियों से एक कदम आगे ले जाने के लिए पतंजलि फूड पार्क स्थापित करना चाहते थे. इसके लिए बड़ी जमीन की जरूरत थी. बाबा ने कारोबारी बुद्धि का इस्तेमाल करते हुए 2016 के मध्य में सूबे के तत्कालीन मुख्यमंत्री अखिलेश यादव से इस बारे में बात की. कहने वाले कहते हैं कि दोनों की जाति एक है और इस वजह से दोनों में एक इमोशनल कनेक्ट है.
अगले साल यानी 2017 में राज्य में चुनाव होने थे और अखिलेश को भी बाबा की जरूरत थी. अखिलेश ने तुरंत उनकी मांग पूरी करने का वादा कर दिया. फिर नवंबर में यूपी सरकार ने पतंजलि आयुर्वेद लिमिटेड कंपनी को यमुना एक्सप्रेस-वे पर 455 एकड़ जमीन फूड और हर्बल पार्क की स्थापना के लिए दी.
यह प्रोजेक्ट 6 हजार करोड़ रुपये का बताया जा रहा है. घोषणा हुई कि इस प्रोजेक्ट से 8000 लोगों को प्रत्यक्ष नौकरी मिलेगी और 80000 हजार परिवारों का अप्रत्यक्ष तौर पर भला होगा. दिसंबर 2016 में अखिलेश यादव ने इस प्रोजेक्ट का शिलान्यास भी कर दिया.
‘विकास पुरुष-अखिलेश’
अखिलेश यादव की इस दरियादिली के एवज में बाबा ने खुलेआम उनकी सरकार का समर्थन कर दिया. अखिलेश को विकास पुरुष बता दिया. मतलब दिल्ली के लिए नरेंद्र मोदी और उत्तर प्रदेश के लिए अखिलेश यादव.
कारोबार और सियासत के बीच गहरा रिश्ता रहा है. लेकिन अगर किसी की महत्वाकांक्षा बड़ा कारोबारी बनने के साथ सियासत का किंग मेकर बनने की भी हो तो हित टकराने लगते हैं. बाबा के हित भी टकराने लगे.
प्रदेश में अखिलेश यादव और योगी आदित्यनाथ के बीच सियासी दुश्मनी है. जब योगी मुख्यमंत्री बने तो उन्होंने अखिलेश के साथ खड़े बाबा रामदेव को वह तवज्जो नहीं दी जिसकी बाबा को उम्मीद थी.
इसी बीच केंद्र सरकार के खाद्य एवं प्रसंस्करण मंत्रालय से बाबा रामदेव ने फूड पार्क की एक और योजना पास करा ली. जिसमें उन्हें 150 करोड़ की सब्सिडी मिलती. लेकिन बाबा को जिस कंपनी के प्रस्ताव पर सब्सिडी मिलती और जिस कंपनी को जमीन मिली वो दोनों कंपनियां अलग-अलग थीं.सर्वे में केंद्र के संबंधित विभाग ने दूसरी कंपनी के नाम पर जमीन होने का हवाला दे दिया और पेंच फंस गया.
सूत्रों के मुताबिक बाबा रामदेव ने यूपी की सरकार से 455 एकड़ के अलावा नए प्रोजेक्ट के लिए अतिरिक्त 50 एकड़ जमीन आवंटित करने की मांग की. योगी सरकार ने सहमति नहीं दी. बाबा को यह बात थोड़ी नागवार गुजरी. फिर तय हुआ कि 455 एकड़ जमीन से ही दूसरे प्रोजेक्ट पतंजलि फूड एंड हर्बल पार्क नोएडा प्रा. लि. के लिए 91 एकड़ जमीन हस्तांतरित की जायेगी. लेकिन इसके लिए सरकार की मंजूरी जरूरी थी. बाबा को लेकर मुख्यमंत्री योगी के ठंडे रवैये को देखते हुए अफसरों ने उन्हें घुमाना शुरू कर दिया और बाबा की महत्वाकांक्षी योजना फाइलों में अटककर रह गई.
बाबा ने मौके पर मारा चौका
बाबा भी बड़े उस्ताद हैं. सियासत में सिर से पांव तक डूबे हैं और पहले ही बता चुका हूं कि सांसों के साथ लोगों को भी साधना जानते हैं. वो मौके की तलाश में थे.
उपचुनाव में लगातार दूसरी बार बीजेपी को शिकस्त मिली तो बाबा को मौका मिल गया. लेकिन उन्होंने खुद सामने आने की जगह आचार्य बालकृष्ण को आगे कर दिया. ऐसा करने की एक बड़ी वजह थी. आचार्य बालकृष्ण कंपनी का काम देखते हैं और आचार्य के बयान के अन्य मतलब नहीं निकाले जाएंगे.
अगर निकाले भी जाएंगे तो बाबा बाद में बातचीत से सबकुछ ठीक कर लेंगे. वही हुआ भी. जब बालकृष्ण ने पतंजलि फूड पार्क को उत्तर प्रदेश से बाहर ले जाने की धमकी दी और इसके लिए प्रदेश सरकार के रवैये को जिम्मेदार ठहराया तो हड़कंप मच गया.
डैमेज कंट्रोल के लिए योगी सरकार तुरंत हरकत में आई. सूबे के मुखिया योगी आदित्यनाथ ने बाबा रामदेव से बात करके प्रोजेक्ट को यूपी में रोक लिया और भरोसा दिलाया कि प्रोजेक्ट से संबंधित सभी समस्याएं दूर कर दी जाएंगी.
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तो क्या सारी गांठे सुलझ गई हैं?
इससे पहले भी एक-दो मौकों पर बाबा और योगी के बीच की तल्खी सार्वजनिक हो चुकी है. बीते महीने हरिद्वार में योगी आदित्यनाथ के एक कार्यक्रम में मंच पर बाबा रामदेव को सम्मानजनक तरीके से जगह नहीं मिली और वो नाराज होकर वापस लौट गए. यही नहीं योग गुरू की स्वदेशी विजय यात्रा से भी योगी असहमत थे.
इन तल्खियों के बीच बाबा रामदेव और योगी आदित्यनाथ में कुछ समानता है. दोनों संन्यासी हैं. एक योग गुरू से सियासत में कूदे और फिर बिजनेस टाइकून बने. दूसरे ने मठ से सियासत की, सांसद बने और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने. उस सूबे के मुख्यमंत्री जहां से देश की सियासत की दिशा तय होती है.
मतलब दोनों के सफर में काफी कुछ समानता है और दोनों समय पर मोहरे चलना जानते हैं. अभी बाबा रामदेव का दांव सटीक बैठा है. 2019 का चुनाव नजदीक आ गया है. उस चुनाव में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की किस्मत का फैसला होना है.
बाबा रामदेव और योगी आदित्यनाथ - दोनों की पसंद और जरूरत नरेंद्र मोदी हैं. इसलिए वो दोनों 2019 के चुनाव तक एक दूसरे का सम्मान करेंगे. लेकिन 2022 से पहले टकराव की गुंजाइश बनी रहेगी. क्योंकि बाबा रामदेव सियासी तौर पर अखिलेश के करीबी हैं. यह प्रोजेक्ट भी अखिलेश की वजह से शुरू हो रहा है. बाबा पर उस परिवार के और भी अहसान हैं. ऐसे में बाबा के सियासी रिश्ते उनके कारोबारी रिश्तों के बीच आ सकते हैं.
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