अगर आपने 2017 में ब्रिटिश साइंस जर्नलिस्ट एंजेला सैनी की किताब ‘इनफीरियर’ पढ़ी है तो आपको 2019 में नोबल पुरस्कारों की घोषणा पर कतई हैरानी नहीं होगी. इस बार विज्ञान के लिए नोबल पाने वालों में सिर्फ पुरुष वैज्ञानिक हैं. दो महिलाओं को पिछले साल भौतिकी और रसायन में नोबल मिल चुका है और यह उनके लिए काफी माना जा सकता है. यह बात और है कि 1901 से अब तक विज्ञान के लिए 600 से अधिक नोबल दिए जा चुके हैं और इनमें सिर्फ 20 महिला वैज्ञानिक शामिल हैं.
जिन एंजेला सैनी की किताब ‘इनफीरियर’ का जिक्र ऊपर किया गया है, उस किताब की कैचलाइन है ’हाऊ साइंस गॉट विमेन रॉन्ग एंड द न्यू रिसर्च दैट्स रीराइटिंग द स्टोरी’. विज्ञान ने महिलाओं के साथ जो भेदभाव किया है, इस किताब में इसी का विश्लेषण किया गया था. अक्सर स्टेम यानी साइंस, टेक्नोलॉजी, इंजीनियरिंग और मैथ्स की शिक्षा में लड़कियों की संख्या कम होती है. फिर पूछा जाता है कि विज्ञान आखिर किसका विषय है. पर विज्ञान जो भेद करता है, उसका क्या? चूंकि विज्ञान के क्षेत्र पर भी पुरुषों का प्रभुत्व है. ‘इंफीरियर’ में वैज्ञानिकों के इंटरव्यू हैं और कहा गया है कि वैज्ञानिक शोध खुद औरतों को कमतर मानते हैं जिसकी एक वजह यह है कि उन शोधों को करने वाले पुरुष ही हैं.
क्या सचमुच विज्ञान महिलाओं के बस की बात नहीं
पिछले साल भौतिकी के लिए नोबल पाने वाली डोना स्ट्रिकलैंड ने कहा था- उन्हें हैरानी नहीं कि अपने विषय में नोबल पाने वाली वह तीसरी महिला हैं. आखिर जिस दुनिया में वह रहती हैं, वहां पुरुष ही पुरुष तो नजर आते हैं. स्ट्रिकलैंड जिस दुनिया की बात कर रही थीं, वह विज्ञान की दुनिया है.
इस दुनिया में पुरुषों का बोलबाला है. यहां दाखिल होने के लिए औरतों को बड़ी बाधाओं का सामना करना पड़ता है. चूंकि यह मानकर चला जाता है कि विज्ञान औरतों के बस की बात नहीं. एक मशहूर क्लिनिकल साइकोलॉजिस्ट हैं साइमन बैरन कोहेन. उनकी एक रिसर्च में कहा गया है कि औरतों की बायलॉजी टेक्नोलॉजी जॉब्स में उन्हें आदमियों से कमतर बनाती हैं. वे लोगों में रुचि लेती हैं, वस्तुओं में नहीं.
चूंकि उनके दिमाग की बनावट आदमियों से फर्क होती है, जिससे उनमें सीखने की क्षमता कम होती है. कोहेन की सोच को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मूर्त होते देखा जा सकता है. संयुक्त राष्ट्र हर साल 11 फरवरी को इंटरनेशनल डे ऑफ विमेन एंड गर्ल्स इन साइंस मनाता है. इस मौके पर संगठन ने 2017 में एक बयान जारी कर बताया था कि दुनिया के 144 देशों में कंप्यूटिंग, इंजीनियरिंग और फिजिक्स में औरतें 30 प्रतिशत से भी कम हैं.
उपलब्धियों को नकारा जाता है
पर सवाल यही है कि उन 30 प्रतिशत से कम औरतों के साथ भी कैसा व्यवहार होता है. उन्हें लगातार इसी सोच का शिकार बनाया जाता है कि विज्ञान उनके लिए नहीं है. साइंटिफिक करियर पर इंडियाना यूनिवर्सिटी के समाजशास्त्री जे स्कॉट लॉन्ग का एक पेपर है, जिसमें कहा गया है कि विज्ञान के क्षेत्र में महिला और दूसरे अल्पसंख्यकों की भागीदारी, उत्पादकता और मान्यता श्वेत पुरुषों के मुकाबले बहुत कम है.
यह रिसर्च विज्ञान के समाजशास्त्र पर है जोकि कहती है कि यहां करियर अटेनमेंट्स यानी उपलब्धियों में बहुत अधिक भेदभाव किया जाता है. इसका एक बड़ा कारण यह है कि औरतों को घर-परिवार की जिम्मेदारियां निभानी पड़ती हैं, जिनके कारण उनके लिए नेटवर्क बनाना मुश्किल होता है.
वे वर्क इवेट्स और कांफ्रेंस में हिस्सा नहीं ले पातीं. यह भी कहा गया कि फैमिली फ्रेंडली पॉलिसीज ने मर्दों को अपना काम करने के लिए आजाद बनाया, चूंकि महिलाओं के लिए घर परिवार की सेवादारी करने की बाध्यता बढ़ी है. उन्हें वर्क-फैमिली बैलेंस ज्यादा बनाना पड़ता है.
औरतों के काम का श्रेय पुरुषों को
हैरानी नहीं है कि 97% साइंस नोबल प्राइज विनर्स पुरुष हैं. चूंकि महिला वैज्ञानिकों को लगातार अंतर्निहित पूर्वाग्रहों का शिकार बनाया जाता है. अमेरिका की साइंस हिस्टोरियन मार्ग्रेट डब्ल्यू रोसिटर ने 1993 में इसे माटिल्डा इफेक्ट कहा था. माटिल्डा इफेक्ट महिला वैज्ञानिकों के प्रति एक तरह का पूर्वाग्रह होता है, जिसमें हम उनकी उपलब्धियों को मान्यता देने की बजाय उनके काम का श्रेय उनके पुरुष सहकर्मियों को दे देते हैं. इतिहास में नेटी स्टीवेन्स, मारियन डायमंड ऐसी कई महिला वैज्ञानिक हुई हैं, जिनके काम का श्रेय, उनकी बजाय उनकी पुरुष सहकर्मियों को दिया गया.
महिलाएं खुद को बढ़ावा नहीं देतीं. जेएसटीओआर नाम की डिजिटल लाइब्रेरी ने 15 लाख रिसर्च पेपर का अध्ययन किया और यह निष्कर्ष दिया कि पुरुष अपने खुद के पेपर का 70 प्रतिशत अधिक उद्धरण देते हैं. औरतें सिर्फ 10% ऐसा करती हैं.
ई-लाइफ जैसे साइंटिफिक जरनल का कहना है कि सिर्फ 20% महिला वैज्ञानिक जनरल की संपादक, सीनियर स्कॉलर और लीड अथॉर के तौर पर काम कर पाती हैं. दो साल पहले ट्विटर पर हैशटैग मेनल खूब वायरल हुआ था, जिसमें कहा गया था कि अधिकतर साइंस सेमिनार्स में महिलाओं को पैनल डिस्कशन में कम ही बुलाया जाता है. पुरुषों वाले पैनल ही बने रहते हैं. महिला वैज्ञानिकों का प्रतिनिधित्व वहां 22% ही रहता है.
कुल मिलाकर महिला वैज्ञानिक, पुरुष वैज्ञानिकों की तुलना में कम दिखाई देती हैं. माटिल्डा इफेक्ट यहां काम करता है. वे पुरस्कारों, सम्मान वगैरह की दौड़ में पुरुषों से पिछड़ जाती हैं. 1960 का उदाहरण है- जोसलिन बेल बरनोल नामक महिला एस्ट्रोलॉजिस्ट ने पहला रेडियो पल्सर खोजा. लेकिन इसके लिए 1974 में नोबल मिला, उनके सुपरवाइजर एंटोनी हेविश और मार्टिल रेल को. बरनोल रेडियो पल्सर की खोज के वक्त पीएचडी स्कॉलर थीं, और हेविश-रेल नामचीन वैज्ञानिक. इस नोबल की आलोचना तो हुई लेकिन बरनोल को आखिरकार ईनाम नहीं मिला.
अपना जश्न खुद मानना
नोबल न मिले, पर महिला वैज्ञानिको की उपलब्धियों को सेलिब्रेट करने वाले कई हैं. न्यूयॉर्क की कलाकार, डिजाइन स्ट्रैटिजिस्ट और न्यूरोसाइंस स्टूडेंट अमांडा पिंगबोधिपक्या ने ‘बियॉन्ड क्यूरी’ नाम से एक डिजाइन प्रॉजेक्ट चलाया है. जिसमें विज्ञान की दुनिया की ‘बाडस’ (जैसा अमांडा खुद कहती हैं) यानी ‘बदमाश’ महिलाओं की उपलब्धियों का जश्न मनाया जाता है. इसमें दिसंबर 2018 तक 42 महिला वैज्ञानिकों के पोट्रेट्स की सिरीज जारी की जा चुकी हैं. यह महिलाओं का अपनी तरह का जश्न है.
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