कहते हैं कि विश्वास पर्वतों को भी हिला सकता है.
तो क्या एक विश्वास को एक बदलाव के रास्ते में आना चाहिए? क्या प्रगति की ओर बढ़ते कदमों को एक विश्वास की वजह से थम जाना चाहिए? और इस सब से ऊपर, क्या एक विश्वास को बराबरी के संवैधानिक अधिकार की राह का रोड़ा बनना चाहिए?
ये कुछ सवाल हैं जो हर बहस के दौरान उठते हैं, जब एक प्राचीन मत के चलते सबरीमाला मंदिर जैसी जगहों से महिलाओं को बाहर रखे जाने का मुद्दा उठता है.
भगवान की मूर्ति से होता है महिलाओं को नुकसान!
इस बहस ने कल फिर जोर पकड़ा जब रणरागिनी भूमाता ब्रिगेड नाम के एक महिला संगठन की सैंकड़ों कार्यकर्ता महाराष्ट्र के अहमदनगर के शनि शिंगणापुर मंदिर के गर्भगृह में जाने के लिए अधिकारियों से भिड़ गईं. इस मंदिर के गर्भगृह में, जहां शनिदेव की पत्थर की मूर्ति स्थापित है, वहां महिलाओं का प्रवेश वर्जित है, क्योंकि मंदिर अधिकारियों के अनुसार शनि देवता को महिलाओं का सामीप्य पसंद नहीं है.
और इस मामले में दिया जाने वाला दूसरा तर्क है कि महिलाओं को अपनी भलाई के लिए ही मूर्ति से दूर रहना चाहिए, क्योंकि मूर्ति से निकले वाइब्रेशन उन्हें नुकसान पहुंचा सकते हैं. दूसरे शब्दों में कहा जाए तो मूर्ति से निकलने वाले वाइब्रेशंस को भी पता है कि कौन स्त्री है, कौन पुरुष और उन्हें सिर्फ स्त्रियों को ही नुकसान पहुंचाना है.
प्रतिबंध का विरोध करती महिलाओं का यह वीडियो देखें:
- महिला-विरोधी नियम शनि शिंगणापुर मंदिर के गर्भगृह में महिलाओं का प्रवेश वर्जित है क्योंकि महिलाओं के मंदिर में जाने से शनि देवता नाराज हो जाएंगे.
- केरल का सबरीमाला मंदिर 10 से 50 वर्ष की महिलाओं को मंदिर प्रांगण में प्रवेश की अनुमति नहीं देता.
- हाजी अली की दरगाह के अंदरूनी हिस्से में भी महिलाओं की अपनी भलाई के लिए, उनके वहां जाने पर प्रतिबंध है.
- कैथलिक चर्च महिलाओं को पादरी बनाने का विरोध करता है.
स्वच्छता और प्रदूषण
तृप्ति देसाई के नेतृत्व में मंदिर की ओर बढ़ती महिलाओं को पुलिस ने मदिर से करीब 70 किमी की दूरी पर रोक लिया. हालांकि यह पूरा आंदोलन काफी नाटकीय था पर विडंबना से इनकार नहीं किया जा सकता.
26 जनवरी के दिन, जिस दिन हमें बराबरी और भेदभाव के खिलाफ अधिकार देने वाला हमारा संविधान लागू किया गया, उस दिन इन महिलाओं को उनके बराबरी के अधिकार से साफ तौर पर वंचित किया गया.
तृप्ति और उनकी साथी महिलाओं के मंदिर की ओर बढ़ने की खबर सुनकर शिंगणापुर गांव की महिलाएं इकट्ठा होकर इस पुरानी परंपरा की रक्षा के लिए तैनात हो गईं.
इसी महीने पद पर आने वालीं, मंदिर ट्रस्ट की पहली महिला अध्यक्ष, अनीता शेटे ने कहा कि इस पद पर उनके चुने जाने से साफ होता है कि मंदिर महिला विरोधी नहीं है. पर परंपरा तो परंपरा है, इसे तोड़ा नहीं जा सकता. साफ है कि कभी-कभी महिलाओं को पुरुष सत्ता का सबसे बड़ा हथियार बनाकर इस्तेमाल किया जा सकता है.
ऐसी मशीन चाहिए जो मासिक धर्म के बारे में बता सके
कुछ शनि शिंगणापुर मंदिर की तरह ही सबरीमाला मंदिर परिसर में 10 से 50 वर्ष की आयु के बीच की महिलाओं का प्रवेश प्रतिबंधित है. अधिकारियों का कहना है कि इस आयुवर्ग की महिलाएं मासिक-धर्म से गुजर रही हो सकती हैं और इनका प्रवेश मंदिर को अपवित्र कर देगा.
सबरीमाला मंदिर की देखभाल करने वाले ट्रावनकोर देवस्वोम ट्रस्ट के मुखिया प्रयार गोपालाकृष्णन ने पिछले साल नवंबर में कहा था कि वे सभी आयुवर्गों की महिलाओं को मंदिर के अंदर प्रवेश देंगे यदि कोई ऐसी मशीन बन जाए जो यह बता सके कि एक महिला मासिक धर्म से गुजर रही है या नहीं. उसी समय शनि शिंगणापुर मंदिर में “शुद्धिकरण” किया जा रहा था क्योंकि एक महिला मंदिर के गर्भगृह में प्रवेश कर गई थी.
पुराना लैंगिक भेदभाव
पुरुष प्रधान समाज द्वारा बनाई और संरक्षित की गईं महिलाओं को अपवित्र और नीचा दिखाने वाली ये भेदभाव भरी परंपराएं इतनी निकृष्ट और अपमानजनक हैं कि अब इन पर बहस होनी ही चाहिए.
आप आसानी से यह सवाल कर सकते हैं कि अगर पुरुष और स्त्री दोनों को ही भगवान ने बनाया है तो वह एक की शारीरिक संरचना के विरुद्ध क्यों होगा?
कौन कहता है कि फलां देवता स्त्रियों को पसंद नहीं करते? किसने निर्णय किया कि प्रजनन क्षमता वाली महिलाएं स्वच्छ नहीं हो सकतीं? किसने निर्णय किया कि महिलाएं दूर से शनि की पूजा कर सकती हैं पर गर्भगृह में जाने से उन पर आसमान टूट पड़ेगा? किसने बनाए ये स्त्री-विरोधी नियम?
जिसने भी बनाए हों ये नियम पर सच यह है कि ये नियम हमारा बराबरी का हक हमसे छीन रहे हैं. संविधान के 15वें अनुच्छेद के अनुसार धर्म, नस्ल, जाति, लिंग और जन्मस्थान आदि के कारण किसी के साथ भी भेदभाव नहीं किया जाएगा. सबरीमाला मंदिर में महिला श्रद्धालुओं के प्रवेश पर प्रतिबंध लगाए जाने के मामले पर जस्टिस दीपक मिश्रा की अध्यक्षता वाली तीन सदस्यीय पीठ का मानना है कि एक मंदिर में महिलाओं के प्रवेश पर प्रतिबंध लगाना असंवैधानिक है. हालांकि अभी इस मामलें में फैसला नहीं आया है.
यह सच है कि धार्मिक संस्थाएं पुरुषवादी हैं. कैथलिक चर्च आज भी महिलाओं के पादरी बनने का विरोध करते हैं. हाजी अली की दरगाह के अंदरूनी हिस्से में महिलाओं के जाने पर प्रतिबंध है. इस प्रतिबंध को चुनौती देने वाली याचिका अभी भी बॉम्बे हाई कोर्ट में लंबित है.
ऐसी परंपराओं को तो कूड़ेदान में डाल दें
एक समय था जब मंदिरों में दलितों के प्रवेश पर भी प्रतिबंध था. संविधान द्वारा भेदभाव को निषिद्ध करने के बाद दलितों पर प्रतिबंध खत्म कर दिया गया. महिलाओं को पूजा करने की जगहों से दूर रखना भी उतना ही दुखद है.
आज के समय में जब वे पुरुषों के वर्चस्व को सेना सहित हर क्षेत्र में चुनौती दे रही हैं, उन्हें मंदिरों में न जाने दिया जाना, छिछला लैंगिक भेदभाव ही है. जब ‘परंपरा’ एक देश के नागरिकों के संवैधानिक अधिकारों के रास्ते में आए तो यह कोर्ट कर्तव्य है कि वे ऐसी परंपराओं को इतिहास के कूड़ेदान में डाल दें.
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