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BJP को हराने के लिए SP का दांव, ‘कृष्ण’ को चाहिए ‘सुदामा’ का साथ

आखिर अब अचानक एसपी को क्यों याद आए ब्राह्मण?

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2019 का लोकसभा चुनाव दूर है. लेकिन उत्तर प्रदेश में खेमेबंदी तेज हो रही है. मायावती और अखिलेश यादव को यह अहसास है कि बीजेपी को सत्ता से बेदखल करना है और नया वजूद तैयार करना है, तो 2014 और 2017 की हार को भूलकर नया समीकरण बनाने होगा.

इसी की अगली कड़ी में अब अखिलेश यादव ने जीत का नया फॉर्मूला दिया है. उन्होंने कहा है कि साइकिल, हाथी और शंख साथ आए तो सामने कोई नहीं टिकेगा. साइकिल मतलब समाजवादी पार्टी, हाथी मतलब बहुजन समाज पार्टी और शंख मतलब ब्राह्मण. मतलब साफ है-यादव, दलित और ब्राह्मण एक साथ.

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कृष्ण को चाहिए सुदामा का साथ

अखिलेश ने यह फॉर्मूला लखनऊ में एसपी मुख्यालय में आयोजित एक सम्मेलन में दिया. उन्होंने कहा कि ब्राह्मणों ने कभी मंगल पांडे, कभी चंद्रशेखर आजाद, कभी सुदामा और कभी परशुराम बनकर समाज और देश को नई राह दिखाई है. कृष्ण और सुदामा में तो युगों-युगों का रिश्ता है और आज कृष्ण को सुदामा की जरूरत है.

अचानक क्यों याद आए ब्राह्मण?

अब सवाल यह उठता है कि आखिर एसपी ब्राह्मणों पर क्यों डोरे डाल रही है? दरअसल इस समय ब्राह्मण समुदाय बीजेपी से थोड़ा नाराज चल रहा है.

विधानसभा में बीजेपी की प्रचंड जीत के बाद ब्राह्मणों को उम्मीद थी कि सूबे का मुख्यमंत्री पद उनके खाते में आएगा. लेकिन मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ बना दिए गए.

हालांकि उसके बाद बीजेपी ने ब्राह्मण समुदाय को खुश करने की काफी कोशिश की है. बावजूद इसके एसपी को ऐसा लग रहा है कि अगर बीजेपी के सवर्ण वोटबैंक में सेंध लगानी है, तो ब्राह्मणों की नाराजगी का लाभ उठाते हुए उन्हें अपनी ओर मिलाया जा सकता है.

इसके पीछे एक बड़ी वजह यह भी है कि योगी आदित्यनाथ के मुख्यमंत्री बनने के बाद अब स्वभाविक तौर पर ठाकुर बीजेपी के साथ जाएंगे. इसलिए सारी ऊर्जा ब्राह्मणों पर लगाना ही सही रणनीति हो सकती है.

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ब्राह्मणों की मजबूत स्थिति

आबादी के लिहाज से भी सूबे में ब्राह्मणों की स्थिति मजबूत है. आंकड़ों के मुताबिक, ठाकुर 8 फीसदी हैं और ब्राह्मण 11 फीसदी. राजनीति के जानकारों के मुताबिक, उत्तर प्रदेश की कुल 80 संसदीय सीटों में से करीब 20 से ज्यादा पर ये सीधे तौर पर निर्णायक भूमिका निभाते हैं.

उत्‍तर प्रदेश विधानसभा में इस समय 400 सदस्‍यों में 67 ब्राह्मण विधायक हैं. इनमें से 58 बीजेपी से हैं. ऐसे में अगर अखिलेश को ब्राह्मणों को रिझाने में थोड़ी भी कामयाबी मिली तो बीजेपी को सीधा नुकसान होगा.
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सरकार बनाने में ब्राह्मणों की अहम भूमिका

उत्तर प्रदेश की राजनीति में ब्राह्मण खुद में मजबूत होने के साथ अन्य जातियों को भी प्रभावित करने की हैसियत रखते हैं. खासकर उन इलाकों में जहां इनका दबदबा ज्यादा है. राम मंदिर आंदोलन से पहले ब्राह्मण कांग्रेस के साथ थे, लेकिन राम मंदिर आंदोलन के बाद ये बीजेपी से जुड़ गए. यही वो दौर था जब बीजेपी सूबे की सियासत में मजबूत होकर उभरी.

1991 में सवर्णों और गैर यादव पिछड़ों के सहयोग से बीजेपी ने उत्तर प्रदेश में पहली बार सरकार बनाई. कल्याण सिंह मुख्यमंत्री बने. 1997 में एक बार फिर बीजेपी सत्ता में आई और कल्याण सिंह दूसरी बार मुख्यमंत्री बने. फिर थोड़े-थोड़े समय के लिए राम प्रकाश गुप्ता और राजनाथ सिंह ने सूबे की कमान संभाली. लेकिन बाद में बीजेपी का यह जनाधार सिकुड़ने लगा.

साल 2007 में बहनजी की सोशल इंजीनियरिंग काम आयी और 41 ब्राह्मण बीएसपी से विधायक बने. बहनजी की सरकार बनी. 2012 में उनका बहनजी से मोहभंग हो गया और बहनजी सत्ता से बेदखल हो गईं.
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बीजेपी को साथ मिला ब्राह्मणों का

2014 के लोकसभा चुनाव और 2017 के विधानसभा चुनाव में ब्राह्मणों ने बीजेपी का साथ दिया और केंद्र और राज्य दोनों जगह बीजेपी की सरकार बनी. यही वजह है कि एसपी और बीएसपी दोनों बीजेपी के उस सवर्ण वोट बैंक में एक बार फिर सेंध लगाना चाहते हैं, जिसकी अगुवाई ब्राह्मण करते हैं. यह मायावती और अखिलेश की अपनी-अपनी खेमेबंदी है या फिर साझा रणनीति, यह कहना मुश्किल है. लेकिन इतना यकीन से कहा जा सकता है कि बीजेपी के हाथ से शंख फिसला तो लेने के देने पड़ सकते हैं.

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