प्रधानमंत्री मोदी ने 11 सितंबर को विनोबा भावे के जन्मदिन पर उन्हें याद किया और ये भी कहा कि वे मानवता को बहुत कुछ सिखा सकते हैं. क्या ऐसा कहते वक्त विनोबा की सीख भी उनके ध्यान में रही होगी?
30 जनवरी, 1948 को महात्मा गांधी की कायरतापूर्ण हत्या होने के बाद उनके बेहद करीबी सहयोगी और संत विनोबा भावे बेहद दुखी ही नहीं, ‘लज्जित’ भी थे. लेकिन क्यों? बापू की हत्या से जुड़ी वह क्या बात थी, जिसे सोचकर विनोबा जैसे संत को ‘लज्जा’ का एहसास होता था? इसका खुलासा विनोबा भावे ने खुद ही किया है. वह भी बापू की हत्या के महज 6 हफ्ते बाद, सेवाग्राम आश्रम में हुई एक बेहद अहम कॉन्फ्रेंस में.
5 दिनों तक चली इस बेहद अहम कॉन्फ्रेंस में डॉ. राजेंद्र प्रसाद, पंडित जवाहरलाल नेहरू, मौलाना अबुल कलाम आजाद, जयप्रकाश नारायण और जेबी कृपलानी जैसे बड़े नेताओं के अलावा काका कालेलकर, शंकर राव देव, जे सी कुमारप्पा, ठक्कर बापा और संत तुकड़ो जी महाराज जैसे गांधीवादी विचारक और समाजसेवी भी शामिल हुए थे.
ऐसे महान लोगों के बीच बापू की हत्या पर क्षोभ व्यक्त करते हुए विनोबा ने कहा था,
“मैं उस प्रांत का हूं जिसमें RSS का जन्म हुआ. जाति छोड़कर बैठा हूं. फिर भी भूल नहीं सकता कि उसकी जाति का हूं जिसके द्वारा यह घटना हुई. कुमारप्पा जी और कृपलानी जी ने फौजी बंदोबस्त के खिलाफ परसों सख्त बातें कहीं. मैं चुप बैठा रहा. वे दुख के साथ बोलते थे. मैं दुख के साथ चुप था. न बोलनेवाले का दुख जाहिर नहीं होता. मैं इसलिए नहीं बोला कि मुझे दुख के साथ लज्जा भी थी. पवनार में मैं बरसों से रह रहा हूं. वहां पर भी चार-पांच आदमियों को गिरफ्तार किया गया है. बापू की हत्या से किसी न किसी तरह का संबंध होने का उन पर शुबहा है. वर्धा में गिरफ्तारियां हुईं, नागपुर में हुईं, जगह-जगह हो रही हैं. यह संगठन इतने बड़े पैमाने पर बड़ी कुशलता के साथ फैलाया गया है. इसके मूल बहुत गहरे पहुंच चुके हैं. यह संगठन ठीक फासिस्ट ढंग का है. ....इस संगठनवाले दूसरों को विश्वास में नहीं लेते. गांधीजी का नियम सत्य का था. मालूम होता है, इनका नियम असत्य का होना चाहिए. यह असत्य उनकी टेक्नीक – उनके तंत्र – और उनकी फिलॉसफी का हिस्सा है.”विनोबा भावे
तो संत विनोबा को ‘लज्जा’ इसलिए महसूस होती थी, क्योंकि बापू के हत्यारे का संबंध उनके प्रांत और जाति से था, भले ही वो ‘जाति छोड़कर बैठे’ थे और प्रांत-देश से परे ‘जय-जगत’ के नारे को उन्होंने अपने जीवन का मंत्र बना लिया था. लेकिन बापू की हत्या पर किसी तरह की लज्जा या शर्मिंदगी क्या उन्हें भी महसूस होती है, जो उस हत्यारे के ‘विचार-वंश’ से ताल्लुक रखते हैं? अगर ऐसी शर्मिंदगी हमें कहीं नजर नहीं आती, तो उसकी वजह भी विनोबा जी ने सेवाग्राम आश्रम की सभा में दिए अपने उसी वक्तव्य में बताई है. वो कहते हैं,
“एक धार्मिक अखबार में मैंने उनके गुरुजी का एक लेख या भाषण पढ़ा. उसमें लिखा था कि “हिंदू धर्म का उत्तम आदर्श अर्जुन है, उसे अपने गुरुजनों के लिए आदर और प्रेम था, उसने गुरुजनों को प्रणाम किया और उनकी हत्या की. इस प्रकार की हत्या जो कर सकता है, वह स्थितप्रज्ञ है.” वे लोग गीता के मुझसे कम उपासक नहीं हैं. वे गीता उतनी ही श्रद्धा से रोज पढ़ते होंगे, जितनी श्रद्धा मेरे मन में है. मनुष्य यदि पूज्य गुरुजनों की हत्या कर सके तो वह स्थितप्रज्ञ होता है, यह उनकी गीता का तात्पर्य है. बेचारी गीता का इस प्रकार उपयोग होता है. मतलब यह कि यह सिर्फ दंगा फसाद करनेवाले उपद्रवियों की जमात नहीं है. यह फिलॉसफरों की जमात है. उनका एक तत्वज्ञान है और उसके अनुसार निश्चय के साथ वे काम करते हैं. धर्मग्रंथों के अर्थ करने की भी उनकी अपनी एक खास पद्धति है.”विनोबा भावे
यानी विनोबा ने इस बात को तभी समझ लिया था कि गांधी की हत्या सिर्फ एक सिरफिरे का किया निजी अपराध नहीं था. उसके पीछे एक हत्यारी सोच और उस सोच को आगे बढ़ाने वाली एक कुंठित ‘फिलॉसफी’ का हाथ है. एक ऐसा खतरनाक दर्शन, जो लोगों को गुमराह करने के लिए गीता जैसे पवित्र ग्रंथ की भी गलत व्याख्या कर सकता है.
भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के प्रमुख सेनानी और 1940 के व्यक्तिगत सत्याग्रह में बापू के चुने ‘प्रथम सत्याग्रही’ विनोबा सिर्फ इतने पर ही नहीं रुकते. अपने इसी भाषण में उन्होंने स्वतंत्रता संग्राम के दौरान RSS की भूमिका पर भी दो-टूक टिप्पणी की है. सेवाग्राम के इस संबोधन में विनोबा कहते हैं-
“राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की और हमारी कार्यप्रणाली में हमेशा विरोध रहा है. जब हम जेल में जाते थे, वो वक्त उनकी नीति फौज और पुलिस में दाखिल होने की थी. जहां हिंदू-मुसलमानों का झगड़ा खड़ा होने की संभावना होती, वहां वे पहुंच जाते. उस वक्त की (अंग्रेज) सरकार इन सब बातों को अपने फायदे का समझती थी. इसलिए उसने भी उनको उत्तेजन दिया. नतीजा हमको भुगतना पड़ रहा है.”विनोबा भावे
विनोबा भावे एक आध्यात्मिक संत और दार्शनिक होने के साथ ही साथ दूर-दृष्टि रखने वाले कर्मयोगी भी थे. इसीलिए वे न सिर्फ अंग्रेजों की ‘फूट-नीति’ का साथ देने वाली ‘झूठ-नीति’ का पर्दाफाश करते हैं, बल्कि उसके खिलाफ एक असरदार रणनीति बनाने की बात भी करते हैं. सेवा ग्राम के अपने उसी भाषण में विनोबा कहते हैं-
“आज की परिस्थिति में मुख्य जिम्मेदारी मेरी है, महाराष्ट्र के लोगों की है…..आप मुझे सूचना करें, मैं अपना दिमाग साफ रखूंगा और अपने तरीके से काम करूंगा ... RSS से भिन्न, गहरे और दृढ़ विचार रखनेवाले सभी लोगों की मदद लूंगा. जो इस विचार पर खड़े हों कि हम सिर्फ शुद्ध साधनों से काम लेंगे, उन सबकी मदद लूंगा. हमारा साधन-शुद्धि का मोर्चा बने. उसमें सोशलिस्ट भी आ सकते हैं और दूसरे सभी आ सकते हैं. हमको ऐसे लोगों की जरूरत है, जो अपने को इंसान समझते हैं।”विनोबा भावे
जाहिर है, संत विनोबा की पैनी नजर ने दशकों पहले भांप लिया था कि नफरत की विचारधारा का मुकाबला करने के लिए खुद को इंसान मानने वाले तमाम लोगों को एक साथ आना होगा. “गुरुजनों की हत्या” को गीता का सार बताने वाली कुंठित विचारधारा के खिलाफ एकजुट होना होगा.
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