मुंबई में जिनकी क्रिकेट अकादमी हमेशा भारतीय क्रिकेट को बेमिसाल खिलाड़ियों का उपहार देती रही, वो थे भारत के सबसे मशहूर क्रिकेट कोच रमाकांत आचरेकर
क्रिकेट का गढ़ कहलाने वाले मुंबई में आचरेकर की अकादमी ने भारत को कुछ बेहतरीन खिलाड़ी दिये. इनमें अपने समय के सबसे करामाती बैट्समैन सचिन तेंदुलकर भी शामिल हैं.
हालांकि आचरेकर 1960 के दशक से ही क्रिकेट का प्रशिक्षण दे रहे थे, लेकिन दुनिया ने उनके बारे में जाना 1989 में, जब उनके किशोर वय के शिष्य सचिन तेंदुलकर ने पाकिस्तान के खिलाफ अपने पहले ही मैच में तहलका मचा दिया. इस किशोर की प्रतिभा ने पूरी दुनिया को चौंका दिया.
हर कोई जानना चाहता था कि आखिर कौन था ये युवा खिलाड़ी और इसकी कहानी क्या थी. तब जाकर दुनिया ने शिवाजी पार्क में आचरेकर के कामथ मेमोरियल क्लब के बारे में जाना, सचिन तेंदुलकर जिसकी पैदाइश थे.
वो शख्सियत, जिसने सचिन को भीड़ का हिस्सा नहीं बनने दिया
आचरेकर ही वो शख्स थे जिन्होंने सचिन को क्रिकेट के मुरीदों की भीड़ में खोने नहीं दिया, जैसा अक्सर मुंबई में होता है. इस मायानगरी में सैकड़ों युवाओं की क्रिकेट स्टार बनने की ख्वाहिश भीड़ की गर्त में खो जाती है.
उनकी कोचिंग तकनीक बेहद साधारण थी. वो पुराने जमाने के कोच थे, जिनका एक ही उसूल था – ‘कड़ी मेहनत के लिए तैयार रहें.’
वो शिवाजी पार्क में घंटों वक्त बिताते, जिसे आज भी युवा क्रिकेटरों का मक्का माना जाता है. जहां विशाल मैदान में अनगिनत प्रैक्टिस नेट लगे रहते हैं और अनगिनत अकादमियां कोचिंग देती हैं. उस विशाल मैदान के जमघट को देखकर ये कल्पना करना मुश्किल है कि इसी मैदान ने दुनिया के कुछ बेहतरी कवर ड्राइव करनेवालों को सीख दी होगी.
रमाकांत आचरेकर कहते थे:
“मैं हर छात्र की योग्यता को गहराई से परखता हूं, उसकी तकनीक और स्ट्रोक खेलने के अंदाज का आकलन करता हूं. मेरा मानना है कि हर खिलाड़ी को अपना प्राकृतिक खेल खेलना चाहिए, उसे बदलना नहीं चाहिए, बल्कि लगातार अभ्यास और अधिक से अधिक खेल के जरिये उसे निखारना चाहिए. कोच के रूप में मेरा काम छात्रों की गलतियों की ओर इंगित करना और प्राकृतिक रूप से अपने स्टाइल को बरकरार रखते हुए उन्हें सुधारना है.”
सचिन-कांबली पार्टनरशिप में आचरेकर का हाथ
आचरेकर सिर्फ क्रिकेट के गुर ही नहीं सिखाते थे. सचिन को बांद्रा के न्यू इंग्लिश स्कूल से निकाल कर दादर के श्रद्धाश्रम विद्या मंदिर में दाखिला दिलाने के पीछे भी आचरेकर का ही हाथ था, ताकि वो क्रिकेट का बेहतर अभ्यास कर सकें.
ये कदम तेंदुलकर की जिंदगी में एक महत्त्वपूर्ण मोड़ था, क्योंकि अब उन्हें खेलने के कई गुना ज्यादा अवसर मिलने लगे. इसके बाद सचिन ने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा और 1988 आते-आते भारतीय क्रिकेट के सबसे चमकते युवा खिलाड़ी के रूप में अपनी पहचान बनाई.
उन्ही दिनों मुंबई के स्कूल स्तरीय क्रिकेट में तेंदुलकर और एक अन्य युवा क्रिकेटर कांबली की बल्लेबाजी ने सनसनी फैला दी. स्कूल स्तरीय क्रिकेट में इस जोड़ी ने अभूतपूर्व 664 रनों की पार्टनरशिप की. हालांकि आचरेकर इनिंग डिक्लेयर करने का आदेश दे रहे थे, लेकिन इस जोड़ी को बल्लेबाजी में अद्भुत आनंद आ रहा था.
यही इस कोच की खासियत थी, जिनके लिए उनके शिष्यों में डर था और सम्मान भी. अपने छात्रों के लिए वो सख्त भी थे और उदार भी. अपने सख्त नियमों में वो कभी-कभी वड़ा-पाव, भेल पूड़ी या सेव पूड़ी जैसे प्यार का तड़का भी लगाते थे. यहीं से वड़ा-पाव के लिए तेंदुलकर की चाहत पनपी.
तेंदुलकर से पहले आचरेकर ने भारत की नुमाइंदगी करने वाले कई क्रिकेटरों की कोचिंग की. इनमें 1983 विश्व कप के हीरो बलविन्दर सिंह संधु, लालचंद राजपूत और चन्द्रकांत पंडित शामिल हैं. तेंदुलकर और कांबली के बाद उनके कुछ और शिष्य भारतीय क्रिकेट टीम स्क्वाड में शामिल हुए, जिनमें प्रवीण आमरे, अजित आगरकर और समीर दीघे शामिल हैं.
आचरेकर के लिए सबसे गौरवपूर्ण पल 1993 में मुंबई में इंग्लैंड के खिलाफ टेस्ट मैच रहा होगा, जब कांबली, तेंदुलकर और आमरे की तिकड़ी भारतीय मिडिल ऑर्डर का स्तम्भ बन गई थी. ये पहली बार था जब मुम्बईकरों को अपने प्यारे शहर में अपने ही शहर के टीनएजर तेंदुलकर का जलवा टेस्ट मैच में देखने को मिला था. इससे पहले तेंदुलकर भारत के लिए सिर्फ एक टेस्ट मैच खेल पाए थे, क्योंकि 1989 से 1993 के शुरुआत तक वो लगातार दौरे पर थे.
उस वक्त ब्रिटिश प्रेस विश्व के सबसे लोकप्रिय क्रिकेटर को दुनिया के सामने लाने में आचरेकर की भूमिका को लेकर सबसे मुखर था.
लालचंद राजपूत से अजित आगरकर तक
इसके करीब पांच वर्षों बाद, यानी 1998 में आचरेकर ने दुनिया के सबसे युवा अंतरराष्ट्रीय क्रिकेटर के रुप में टीनएजर अजित आगरकर का तोहफा भारतीय क्रिकेट टीम को दिया. भारतीय क्रिकेट टीम के लिए आचरेकर के पिटारे से निकला अंतिम तोहफा समीर दीघे के रूप में था, जिन्होंने अपने करियर की शुरुआत वर्ष 2000 में की.
आचरेकर की विरासत अब उनकी बेटी कल्पना संभाल रही हैं, जो अब उसी शिवाजी पार्क में युवा लड़कों और लड़कियों को क्रिकेट के गुर सिखा रही हैं. अब भी उनकी कामथ मेमोरियल क्लब में तेंदुलकर बनने का सपना देखने वालों की कतार लगी रहती है. भारतीय क्रिकेट टीम को नए सितारों से संवारने की विरासत सही मायने में नई पीढ़ी को सौंप दी गई है.
आचरेकर इस बात का पुख्ता उदाहरण थे कि एक महान कोच बनने के लिए एक अच्छा क्रिकेटर होना आवश्यक नहीं. अपने जीवन में प्रथम श्रेणी के लिए उन्होंने सिर्फ एक मैच खेला और वो भी स्टेट बैंक ऑफ इंडिया की ओर से. पर वो क्लब के नियमित खिलाड़ी थे, जो 1940 के दशक से मुंबई के मैदानों में क्रिकेट की पूजा करता रहा और अंत में एक कोच की भूमिका में अवतरित हुआ.
एक महान शख्स को इससे बेहतर श्रद्धांजलि नहीं हो सकती, जिनके नाम पर बोर्ड ऑफ कंट्रोल फॉर क्रिकेट इन इंडिया (बीसीसीआई) ने सालाना कोचिंग पुरस्कार देने का ऐलान किया था. निश्चित रूप से वो प्रशंसा के पात्र हैं, जिनकी आंखें हर उस शख्स को पहचानकर निखारती थीं, जो भारतीय क्रिकेट को अमूल्य योगदान दे सके.
उस शख्स के नाम पर एक कोचिंग सर्टिफिकेट भी एक सच्ची श्रद्धांजलि होगी, जिन्होंने अपने हर शिष्य को दिल लगाकर प्रशिक्षण दिया, जिन शिष्यों ने उनके नाम का गौरव बनाए रखा.
सर, आपको विनम्र श्रद्धांजलि. आपकी यादें एक अमिट निशान बनी रहेंगी!
(चंद्रेश नारायण पूर्व क्रिकेट राइटर हैं जो टाइम्स ऑफ इंडिया और द इंडियन एक्सप्रेस के साथ काम कर चुके हैं. इसके अलावा वो आईसीसी के एक्स मीडिया ऑफिसर भी रह चुके हैं. फिलहाल वो दिल्ली डेयरडेविल के मीडिया मैनेजर हैं. चंद्रेस वर्ल्ड कप हीरोज के लेखक, क्रिकेट एडिटोरियल कंसल्टेंट, प्रोफेसर और क्रिकेट टीवी कमेंटेटर भी रह चुके हैं.)
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