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हिंदी दिवस: प्रेमचंद,परसाई अमर हैं, नए लेखक भी जमकर बिक रहे, 4 लेखकों से बातचीत

जानिए हिंदी में आ रहे बदलावों पर क्या सोचते हैं आज के दौर के लेखक ? हिंदी, रोमन की बैसाखी पर तो नहीं चल रही...

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वाणी प्रकाशन लगभग 400 किताबें हर साल छापता है. अमेजन के मंथली बुक लिस्ट में जहां पहले 50 में से चार या पांच हिंदी की किताबें ही देखने को मिलती थीं वहीं अब आंकड़ा लगभग बराबर का है. तो क्या इसे ऐसे समझें कि पॉपुलर कल्चर के हिंदी लेखकों ने हमारे हिंदी के आदर्श लेखकों को बिना चुनौती दिए अपना अलग पाठक वर्ग तैयार किया है? हमने इस सवाल का जवाब भी उन्हीं लेखकों से तलाशने की कोशिश की गई है जिनके कारण आज ये चर्चाएं हो रही हैं. उन जवाबों के कुछ अंश हम आपके लिए लेकर आए हैं....

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1. दिव्य प्रकाश दुबे

जब बात पॉपुलर कल्चर की हो तो लखप्रति लेखक क्लब के सदस्य और नए दौर में युवाओं की जुबां पर बैठे एक नाम 'दिव्य प्रकाश दुबे' का जिक्र जरूरी है. इब्नेबतूती जैसी बेस्ट सेलिंग के साथ अक्टूबर जंक्शन, मसाला चाय और शर्तें लागू जैसी नई शैली की किताबें लिखकर पॉपुलर कल्चर में खूब योगदान दिया. कोरोना से पहले तक इनकी किताबों की लगभग लगभग 1.5 लाख प्रतियां बिक चुकी थीं. हिंदी में आए बदलाव पर पूछे गए सवाल के जवाब में उन्होंने कहा कि

हर नई चीज के आने के साथ पुरानी चीज और मजबूत होती है. अगर आज हिंदी लिखने और पढ़ने के तरीके में बदलाव आया है तो उससे प्रेमचंद, परसाई और मजबूत हुए हैं. समय के साथ लोगों की पसंद बदलती है और पसंद के अनुसार लिखने से नया पाठक वर्ग पैदा होता है. पाठकों की संख्या में वृद्धि होना उन पुराने लेखकों को भी मजबूत करता है. इससे लोगों के अंदर पढ़ने की आदत लगती है.

जानिए हिंदी में आ रहे बदलावों पर क्या सोचते हैं आज के दौर के लेखक ? हिंदी, रोमन की बैसाखी पर तो नहीं चल रही...

दिव्य प्रकाश दुबे

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दिव्य प्रकाश दुबे खुद अपनी लेखनी में रोमन का प्रयोग जमकर करते हैं इस बारे में जब उनसे सवाल पूछा गया तो उन्होंने कहा कि कोई भी राइटर अपने समय को ऑब्जर्व करता है. आज के लेखक भी समय के अनुसार ही लिख रहे हैं. यदि प्रेमचंद आज के दौर में होते तो वे भी आज वैसा नहीं लिखते जैसा उन्होंने अपने समय में लिखा है.

हालांकि उन्होंने इस बात को स्वीकारा कि अब लेखक किसी विषय पर ठहर कर नहीं लिखते हैं इसी लिए लेखनी में गहराई नहीं है और खासकर ये सोशल मीडिया के आने के बाद से हुआ है. उन्होंने आगे कहा कि 80, 90 के दशक में हिंदी की जानकारी से ज्यादा कुछ मिलता नहीं था एक अच्छी नौकरी के लिए आपको इंग्लिश आनी चाहिए थी लेकिन अब माइंडसेट में परिवर्तन आया है और लोगों को विश्वास है कि हिंदी के जरिए भी आप अच्छी नौकरी पा सकते हैं.

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2. कुलदीप राघव

अब बात करते हैं 'नरेंद्र मोदी एक शोध' से अपने लेखन करिययर की शुरुआत, और फिर इश्क़ मुबारक और आई लव यू जैसी किताबों से छा जाने वाले कुलदीप राघव की. कुलदीप मानते हैं कि पिछले 6-8 सालों में लिखने की शैली में बड़ा बदलाव आया है जो 70-80 साल पहले हुई रचनाओं से काफी अलग है.

इसका कारण उन्होंने बताया कि समय के साथ व्यक्ति की रुचि, टेस्ट और जरूरत में बदलाव आता है. कुलदीप खुद इस बदलाव की नाव पर सवार होकर सफलता का परचम लहरा चुके हैं. उनकी दो किताबों की लगभग 15, 000 प्रतियां कोरोना से पहले तक बिक चुकी हैं साथ ही किंडल और ऑडिओ बुक पर भी छाई हुई है.

जानिए हिंदी में आ रहे बदलावों पर क्या सोचते हैं आज के दौर के लेखक ? हिंदी, रोमन की बैसाखी पर तो नहीं चल रही...

कुलदीप राघव

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कुलदीप ने बातचीत के दौरान कहा कि अंग्रेजी माध्यम की पढ़ाई और कान्वेंट कल्चर ने हिंदी में बदलाव को प्रेरित किया है. इसी वजह से हिंदी में अब नए पाठकों को पुरानी हिंदी समझने में कठिनाई होती है. पाठक द्विभाषी हो गया है उसको एक भाषा पर चिपकाकर रखना लेखक के लिए कठिन है. लेकिन इससे हमारे पुराने लेखकों को कोई खतरा है, बदलाव के बावजूद पुरानी किताबें जमकर पढ़ी जा रह हैं और उनकी पाठक संख्या में कोई गिरावट नहीं देखने को मिली है.
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हमारा उद्देश्य है हिंदी को सरल बनाना

हिंदी के जानकार उन किताबों को कूड़ा कहने में कोई गुरेज नहीं करते जो भाषाई पैमाने पर खरी नहीं उतरती है लेकिन कुलदीप का कहना है कि यही किताबें बेस्ट सेलर बन रही हैं और खूब पसंद की जा रही हैं. इसलिए पाठक की स्वीकृति मिलना ही लेखक के लिए संजीवनी है.

उन्होंने समझाया कि रामायण का रामचरितमानस में अनुवाद करना रामायण के लिए खतरा नहीं बना बल्कि उसने नए पाठक पैदा किए जिनकी रामायण में रुचि पैदा हुई. इसी तरह आज का पॉपुलर कल्चर, हिंदी का सरलीकरण है और हमारा उद्देश्य है हिंदी को सरल बनाकर पाठकों तक पहुंचाना. इससे हिंदी पर कोई खतरा नहीं बल्कि हिन्दी पढ़ने वालों की संख्या में भारी बढ़ोतरी होगी.

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3. भगवंत अनमोल

उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान से 2017 में बालकृष्ण शर्मा पुरस्कार अपने नाम कर चुके भगवंत अनमोल भी पॉपुलर कल्चर के चुनिंदा लेखकों में से एक हैं. जिंदगी 50-50 और बाली उमर समेत 5 बड़ी किताबों को लिखकर भगवंत अनमोल ने खुद को नई लेखन की दुनिया में स्थापित किया. उनकी नई किताब प्रमेय की सिर्फ 2 महीने में 10,000 से ज्यादा प्रतियां बिक चुकी हैं जो ये बता रही है कि किस हद तक पाठकों में नई लेखनी के प्रति उत्साह पैदा हुआ है.

वही टिकेगा जो खुद को समय के साथ बदल लेगा

हिंदी में आए बदलाव को पर भगवंत अनमोल ने अपनी प्रतिक्रिया देते हुए कहा कि तमाम बदलावों के बावजूद जिस तरह तेंदुलकर और द्रविड़ की जगह ऋषभ पंत और हार्दिक पंड्या नहीं ले सकते उसी तरह हिंदी के उन तमाम लेखकों की जगह कोई नहीं ले सकता जो काल के मानकों में खुद को सिद्ध कर चुके हैं. नए लेखको को वहां पहुचने में लंबा समय लगेगा.

भगवंत ने भी इसी बात को जोर देकर कहा कि शहरों में कान्वेंट स्कूलों में पढ़ने वाले छात्रों को हिंदी के कठिन शब्द समझने में खूब दिक्कत आती है. उन्होंने आगे कहा, अब वही टिकेगा जो खुद को समय के साथ बदल लेगा. यही नियम लेखकों पर भी लागू होता है. नए पाठकों को पुरानी शैली में परोसा नहीं जा सकता.

जानिए हिंदी में आ रहे बदलावों पर क्या सोचते हैं आज के दौर के लेखक ? हिंदी, रोमन की बैसाखी पर तो नहीं चल रही...

भगवंत अनमोल

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हिंदी में आए बदलाव को पर भगवंत अनमोल ने अपनी प्रतिक्रिया देते हुए कहा कि तमाम बदलावों के बावजूद जिस तरह तेंदुलकर और द्रविड़ की जगह ऋषभ पंत और हार्दिक पंड्या नहीं ले सकते उसी तरह हिंदी के उन तमाम लेखकों की जगह कोई नहीं ले सकता जो काल के मानकों में खुद को सिद्ध कर चुके हैं. नए लेखको को वहां पहुचने में लंबा समय लगेगा.
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4. नवीन चौधरी

जानिए हिंदी में आ रहे बदलावों पर क्या सोचते हैं आज के दौर के लेखक ? हिंदी, रोमन की बैसाखी पर तो नहीं चल रही...

नवीन चौधरी

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राजनीति पर तो बहुत किताबें छपी लेकिन नवीन चौधरी की 'जनता स्टोरी' कुछ खास है, वो इसलिए कि छात्र राजनीति को दिखाने का जो लक्ष्य इन्होंने अपनी किताब में रखा उसे खूब निभाया. इसी किताब से नवीन साहित्य की दुनिया में उतरे और छा गए.

नवीन चौधरी पॉपुलर कल्चर के लेखकों में शामिल है जिन्होंने साहित्य सागर में उतरते ही अपने नाम के आगे कई सितारें जोड़ लिए. पहली किताब छपते ही लगभग 4,000 कॉपियां बिक गईं जिसने नवीन को नई पहचान दी.

प्रेमचंद, परसाई हर दौर के लेखक

नवीन चौधरी ने बातचीत में इस बात पर जोर दिया कि प्रेमचंद या हरिशंकर परसाई ने समाज के चित्र को दिखाने की कोशिश की चाहे वह व्यंग्य के माध्यम से ही क्यों ना हो, वह समाज आज भी थोड़े से बदले रूप में वैसा का वैसा ही है वो इन लेखकों से जुड़ाव महसूस करता है.

इससे पहले की पीढ़ी भी उन्हें पढ़ चुकी है और बदलावों के बावजूद आज की पीढ़ी भी इन्हें खूब पढ़ रही है. ये इसी तरह आगे भी पढ़े जाते रहेंगे क्योंकि इन्होंने जिस समाज को लिखा वह समाज का मूल तत्व है जो बमुश्किल ही कभी बदलेगा.

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नवीन ने कहा कि नए लेखक नए पाठक पैदा करते हैं और एक बार किसी को पढ़ने में रुचि आ गई तो फिर वह स्वयं का विकास करता चला जाता है. इसी विकास के क्रम में वह उन लेखकों तक पहुंचता है जिन्हें हम आज तक आदर्श मानते आए हैं. ऐसे में नए लेखकों के महत्व को कम नहीं आंका जा सकता है जिन्होंने पाठक वर्ग तैयार किया है.

अंग्रेजी का उदाहरण देते हुए उन्होंने कहा कि पहले हिंदी जुबां के लोग अंग्रेजी साहित्य में रुचि नहीं दिखाते थे लेकिन जब से चेतन भगत आए, लोगों ने अंग्रेजी की किताबें पढ़नी शुरू की. मेरी भी अंग्रेजी की पहली किताब चेतन भगत की ही थी लेकिन एक बार शुरू करने के बाद मैंने सलमान खुर्शीद, अरुंधति रॉय समेत कई बड़े लेखकों को पढ़ा.

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प्रकाशक का नजरिया

हमनें हिंदी में आ रहे बदलावों को लेकर लेखकों के अलावा प्रकाशकों का क्या नजरिया भी जानना चाहा, इसी क्रम में हमारी बात हुई वाणी प्रकाशन की एग्जीक्यूटिव डायरेक्टर अदिति महेश्वरी से.

अदिति ने बताया कि अकेले वाणी प्रकाशन नए लेखकों की लगभग 400 किताबें हर साल प्रकाशित करता है. अदिति बताती हैं, हिंदी साहित्य की नीव बहुत मजबूत है और किसी भी तरह के नए साहित्य के आने से उस नींव पर कोई असर नहीं पड़ता. उन्होंने कहा कि परसाई जैसा बेबाकपना और निर्भीकता आज की लेखनी से गायब है और लिखा गया तो कोई पचा भी नहीं पाएगा.

हिंदी के साथ हो रहे भाषाई प्रयोगों पर अदिति कहती हैं कि मैं हिंदी के पन्नों पर अंग्रेजी के शब्दों को दखल अंदाजी मानती हूं. हिंदी अपने आप में इतनी समृद्ध भाषा है कि भावों को पाठकों तक पहुंचाने के लिए इसमें किसी और भाषा का सहारा लेने की जरूरत नहीं है. इसीलिए उन लेखकों को थोड़ा ठहर कर सोचना चाहिए जो प्रयोग के नाम पर हिंदी के साथ अंग्रेजी जमकर उड़ेल रहे हैं.

उन्होंने कहा कि यदि जर्मन पढ़ रहे किसी के सामने फ्रेंच आ जाए या फ्रेंच पड़ रहे व्यक्ति किसी के सामने जर्मन आ जाए तो उसकी क्या प्रतिक्रिया होगी जरा सोचिए? ऐसा ही हिंदी के साथ क्यों नहीं हो सकता क्यों हम अपनी भाषा को लेकर इतने लचीले होते जा रहे हैं?
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लेखकों के साथ हुई इन चर्चाओं से एक बात तो स्पष्ट निकल कर सामने आई कि हिंदी के पॉपुलर कल्चर के विस्तार के बावजूद प्रेमचंद परसाई समेत उस दौर के तमाम बड़े लेखकों की पाठक संख्या में कोई कमी नहीं आई है बल्कि यह दिन प्रतिदिन बढ़ ही रहा है.

लेकिन एक चिंता जरूर उभरी है कि जो साहित्य अब रचा जा रहा है उसमें हमारी मूल हिंदी के कितने तत्व शामिल हैं. मूल हिंदी से मतलब संस्कृत निष्ठ हिंदी से नहीं है बल्कि हिंदी के उन भाषाई आदर्शों से है जिसके बिना शायद हिंदी अधूरी है.

इस बात पर बहस की जा सकती है कि हिंदी को आज अंग्रेजी से कोई खतरा है नहीं लेकिन इसमें कोई शक नहीं की अंग्रेजी मध्यम में तो हिंदी का प्रवेश नहीं हो सका लेकिन पॉपुलर कल्चर के नाम पर हिंदी में अंग्रेजी ने अच्छी खासी जगह बना ली.
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हिंदी दिवस पर यह चर्चा इसलिए जरूरी है क्योंकि हिंदी को अगली पीढ़ी तक पहुंचाने का दायित्व लेखकों पर ही होता है. पाठक इसीलिए पॉपुलर कल्चर को समर्थन दे रहे हैं क्योंकि यह उनकी नई रुचि पर आधारित है चाहे वह प्रेम पर लिखी गई किताबें हो या मोटिवेशन पर.

लेखकों को यह बात जरूर समझनी होगी कि समाज में पाठकों की रूचि का ध्यान रखने के साथ-साथ उन्हें उस भाषा का भी ख्याल रखने की जरूरत है ताकि ऐसा न लगने लगे कि हिंदी अब रोमन की बैसाखी पर चल रही है.

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