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कबीर को याद करने वाले उनकी बातों का मर्म कितना समझ पाए हैं?

पीएम मोदी ने यूपी के मगहर में दिए अपने भाषण में संत कबीर की वाणी को बार-बार याद करके बड़ी दिलचस्प बहस छेड़ी है

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प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उत्तर प्रदेश के मगहर में दिए अपने भाषण में संत कबीर की वाणी को बार-बार याद करके बड़ी दिलचस्प बहस छेड़ी है. प्रधानमंत्री के भाषण में कबीर की अहमियत पर आगे बात करेंगे, लेकिन शुरुआत उस मगहर की चर्चा से, जहां प्रधानमंत्री ने ये भाषण दिया और जहां क्रांतिकारी कबीर ने अपना अंतिम वक्त गुजारा था. कबीर क्रांतिकारी इसलिए थे, क्योंकि वो हर तरह की संकीर्णता को हमेशा चुनौती देते रहे.

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जब लोग मोक्ष की लालसा में प्राण त्यागने के लिए काशी जाते थे, तब कबीर ने काशी छोड़कर उस मगहर में प्राण त्यागने का फैसला किया, जिसे लोग नर्क का द्वार कहते थे. इस तरह जीवनभर धर्मांधता से लड़ने वाले संत कबीर ने अपने जीवन के अंतिम पल भी धर्मांधता और अंधविश्वास को न सिर्फ नकारते, बल्कि धिक्कारते और ललकारते हुए गुजारे. अपने इस फैसले के बारे में कबीर ने लिखा था:

क्या कासी क्या ऊसर मगहर, राम हृदय बस मोरा
जो कासी तन तजै कबीरा, रामे कौन निहोरा.

(काशी हो या मगहर का ऊसर, मेरे लिए दोनों एक जैसे है, क्योंकि मेरे हृदय में राम बसते हैं. अगर कबीर ने मोक्ष के लिए काशी में शरीर का त्याग किया, तो फिर राम पर मेरे विश्वास का क्या होगा?)

मगहर में कबीर की समाधि भी है और मकबरा भी. ऐसा क्यों है, इसकी एक दिलचस्पी कहानी है. कबीर के प्राण त्यागने के बाद उनके अनुयायी इस बात पर आपस में उलझ पड़े थे कि उनके गुरु हिंदू थे या मुसलमान. दोनों अपने-अपने धार्मिक रिवाजों के हिसाब से कबीर का अंतिम संस्कार करना चाहते थे.

विडंबना देखिए कि जो कबीर लोगों को जीवन भर धार्मिक रूढ़ियों और कर्मकांडों से ऊपर उठने की बात समझाते रहे, उनके अनुयायी ही उनकी बातों को पूरी तरह समझ नहीं पाए. फिर भी उन पर कबीर की बातों का इतना असर तो जरूर था कि अंतिम संस्कार को लेकर छिड़ा विवाद किसी हिंसक टकराव की बजाय, इस सहमति के साथ खत्म हुआ कि हिंदू अपने प्रिय गुरु की समाधि बना लें और मुस्लिम उनका मकबरा. वो भी बिलकुल अगल-बगल में. आज करीब 500 साल बाद भी दोनों अपनी-अपनी जगह पर पूरी सद्भावना के साथ मौजूद हैं.

मगहर में कबीर की समाधि और मकबरे की तरह ही ये सवाल भी 500 साल से कायम है कि क्या हमारा समाज अब तक कबीर की बातों को गहराई से समझ पाया है? कहीं ऐसा तो नहीं कि कबीर के आध्यात्मिक लेकिन क्रांतिकारी विचारों के बारे में हमारी समझदारी गुजरते वक्त के साथ और भी धुंधली पड़ती जा रही है? और हम दूसरों को, या शायद खुद को भी दिखाने-भरमाने के लिए कबीर की बातों को खोखले ढंग से दोहराते रहते हैं ?

वक्त के इस मुश्किल दौर में जब देश के प्रधानमंत्री के भाषण में कबीर वाणी सुनाई देती है, तो अच्छा लगता है. ये उम्मीद भी जगती है कि क्या पता पीएम के मुंह से कबीर की वाणी सुनने के बाद कुछ भटके हुए उन्मादी लोगों के मन में सोई हुई इंसानियत जाग उठे. उनके इस भाषण के बहाने, कबीर को कुछ और गहराई से याद करने की हिम्मत भी सिर उठाने लगी है:

हिंदू कहें मोहि राम पियारा, तुरक कहें रहमाना
आपस में दोउ लड़ि मुए, मरम न कोऊ जाना

(हिंदू खुद को राम भक्त बताते हैं, मुसलमान कहते हैं हमें रहमान प्यारे हैं. इसी बात पर दोनों आपस में लड़ मरते हैं, लेकिन भक्ति और अध्यात्म के असली मर्म को दोनों ही नहीं समझते.)

क्या हम उम्मीद कर सकते हैं कि कबीर की ये सीख अब उन नौजवानों पर भी असर करेगी, जो प्रधानमंत्री की तस्वीर अपने फेसबुक और ट्विटर प्रोफाइल में बड़े गर्व से लगाकर रखते हैं? कबीर को गहराई से समझ सकें, इसके लिए कबीर वाणी के कुछ और अनमोल रत्न पेश हैं :

हमरे राम रहीम करीमा, केसो अलह राम सति सोई
बिसमिल मेटि बिसंभर एकै, और न दूजा कोई

(राम, रहीम, केशव, अल्लाह, बिस्मिल्लाह, विश्वंभर, सब एक ही ईश्वर के नाम हैं. ये सब एक ही हैं, दूसरा कोई नहीं है.)

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वही महादेव वही मुहम्मद, ब्रह्मा आदम कहिए
कोई हिंदू कोई तुरक कहावे, एकै जमीं पर रहिए

कहै कबीरा दास फकीरा, अपनी राह चलि भाई
हिंदू तुरक का करता एकै, तो गति लखी न जाई

हिंदू-तुरक की राह एक है, सतगुरु इहै बताई
कहै कबीर सुनहु रे संतो, राम न कहेऊ खुदाई

कबीर की खासियत ये है कि वो किसी ऊंचे सिंहासन पर बैठकर ऐसे उपदेश नहीं देते, जिन्हें बिना किसी तर्क के मानना जरूरी हो. वो अपनी बात को आसान और अकाट्य तर्कों के जरिए साबित करते हैं. इसके कुछ उदाहरण देखिए:

जो तूं बाभन बाभनी जाया, आन बाट होई काहे न आया
जो तूं तुरक-तुरकिनी जाया, भीतर खतना क्यूं न कराया

(अगर तुम सामान्य इंसान नहीं, ब्राह्मण हो तो तुम्हारा जन्म अलग तरीके से क्यों नहीं हुआ? अगर तुम मुसलमान हो तो मां के गर्भ में ही तुम्हारा खतना क्यों नहीं हो गया?)

हिंदू तुरक कहां ते आए, किनि एहि राह चलाई
दिल महि सोचि बिचारि कवादे, भिसत दोजक किनि पाई

(ये हिंदू, मुसलमान कहां से आ गए? ये रिवाज किसने चलाया? क्या तुमने कभी सोचा कि बहिश्त यानी स्वर्ग और दोजख यानी नर्क को किसी ने देखा है? )

संत कबीर सिर्फ इंसानों की बुनियादी एकता के पक्ष में दलीलें देकर ही रुक नहीं जाते. वो लोगों की अंतरात्मा को जगाने के लिए उनकी जड़ता पर गहरी चोट भी करते हैं. आइए उम्मीद करें कि नफरत भड़काने की तमाम कोशिशों के बावजूद इन्हें पढ़कर कुछ लोगों की सोई अंतरात्मा तो जरूर जाग उठेगी:

बुत पूजि-पूजि हिंदू मुए, तुरक मुए सिरू नाई
ओइ ले जारे ओइ ले गाड़े, सद्गति दुहू न पाई

(हिंदू मूर्तियों की पूजा करते-करते मर जाते हैं और मुसलमान सिर नवा-नवाकर यानी सिजदा करते-करते. मरने के बाद हिंदू जला देते हैं और मुसलमान गाड़ देते हैं, लेकिन सत्य की राह को दोनों ही नहीं समझ पाते.)

कांकर पाथर जोरि के, मस्जिद लई बनाय
ता चढ़ि मुल्ला बांग दे, क्या बहरा हुआ खुदाय

(कंकड़-पत्थर जोड़कर मस्जिद बनाई और मौलवी उस पर चढ़कर ऊंची आवाज में अल्लाह को पुकारते हैं. क्या खुदा को ऊंचा सुनाई देता है?)

पाहन पूजै हरि मिले, तो मैं पूजूं पहार
ताते ये चाकी भली, पीस खाए संसार

(पत्थर पूजने से अगर ईश्वर मिलता हो, तो मैं पहाड़ की पूजा करने को भी तैयार हूं. लेकिन उससे तो ये चक्की बेहतर है, जिससे अनाज पीसकर दुनिया का पेट भरता है.)

और कबीर की इन पंक्तियों को पढ़कर आप अंदाजा लगा सकते हैं कि सबका साथ, सबका विकास का नारा देने वाले प्रधानमंत्री कबीर को अपना मार्गदर्शक क्यों मानते होंगे.

कबीरा कुआं एक है, पानी भरैं अनेक
भांडे ही में भेद है, पानी सबमें एक

किरतिम सुन्नति और जनेऊ
हिंदू तुरुक न जाने भेऊ

(सुन्नत और जनेऊ का भेद कृत्रिम यानी नकली है. हिंदू और मुसलमान में कोई फर्क नहीं है.)

हिंदू कहौ तो मैं नहीं, मुसलमान भी नाहिं,
पांच तत्व का पूतला, गैबी खेलै माहिं.
हम बासी उस देस के,
जहां जाति, बरन, कुल नाहिं.

(मैं न हिंदू हूं और न मुसलमान, मैं तो पांच तत्वों से बना एक पुतला हूं, जिसके जरिये ईश्वर की शक्ति प्रगट होती है. मैं उस देश का वासी हूं, जिसमें जाति, वर्ण और कुल की कोई जगह नहीं है.)

दुर्बल को न सताइए, जाकी मोटी हाय,
मरी खाल की सांस ते, लौह भसम होइ जाय.

(कमजोर को सताना नहीं चाहिए, क्योंकि उसकी हाय बड़ी गहरी होती है. ठीक वैसे ही, जैसे लोहार की भट्ठी को सुलगाने वाली धौंकनी मरे हुए जानवर की खाल से बनी होती है, लेकिन उसमें लोहे को भी गलाने की ताकत होती है.)

प्रधानमंत्री ने अपने भाषण में संत कबीर को सद्भावना का संदेश देने वाला, भारत की आत्मा का गीत, रस और सार बताया. ये भी कहा कि कबीर ने जाति-पाति के भेद तोड़े, वे सबके थे, इसलिए सब उनके हो गए. प्रधानमंत्री ने मगहर में 5 सदी से एक-साथ मौजूद संत कबीर की समाधि और मकबरे पर जाकर उनके सद्भावना के संदेश पर अपनी मुहर भी लगाई. उम्मीद है कि अब वो इस संदेश को देश के दूसरे हिस्से में ले जाएंगे. वरना कहीं ऐसा न हो कि मगहर में कही उनकी मीठी बातों के जवाब में विरोधी कबीर का ये दोहा याद दिलाने लगें:

कथनी मीठी खांड सी, करनी विष की लोई,
कथनी छोड़ि करनी करे, तो विष का अमृत होई.

(अगर किसी के काम जहरीले हों, तो उसकी चीनी जैसी मीठी बोली किस काम की. अगर कर्म अच्छे हों, तो जहर जैसी कड़वी बोली भी अमृत के समान लगती है.)

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