2019-20 का बजट भी मोदी सरकार के अब तक के अंदाज के मुताबिक रहा. इसमें आम लोगों की जिंदगी आसान और कंफर्टेबल बनाने पर ध्यान दिया गया है. पहले के बजट की तरह इसमें सरकार को सभी चीजों के केंद्र में नहीं रखा गया है. अलबत्ता सरकार, बिजनेस और नागरिकों के रिश्तों को सहज बनाने की कोशिश इसमें जरूर दिखी है.
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वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने जिन कदमों का ऐलान किया, उन सब पर इसकी छाप है. इस लिहाज से देखें तो यह घोर राजनीतिक बजट है. जुलाई 2014 के बाद से मोदी सरकार के सारे बजट ऐसे ही रहे हैं. हालांकि, पहले की तुलना में इस बार के बजट में एक बड़ा अंतर भी दिखा है.
अब तक सरकारें निजी क्षेत्र के समर्थक के रूप में नहीं दिखना चाहती थीं, लेकिन अब ऐसा नहीं है. निर्मला ने साफ-साफ कहा कि उनकी सरकार रॉबिन हुड नहीं बनना चाहती, जिसकी शुरुआत 1971 के बजट से हुई थी. सरकार ने 400 करोड़ रुपये तक के टर्नओवर वाली सभी कंपनियों के लिए कॉरपोरेट टैक्स को 25 पर्सेंट करके इस दिशा में कदम बढ़ाया है. वित्त मंत्री ने दावा किया कि देश की 99.3 पर्सेंट कंपनियों को इसका फायदा मिलेगा. इस बड़े बदलाव से देश में निवेश बढ़ाने में मदद मिलेगी, जो करीब एक दशक से सुस्त पड़ा हुआ है.
चार बुनियादी पैमाने
नीयत और इरादे में बदलाव के साथ बजट को चार बुनियादी पैमानों पर परखा जाता है. ये हैं-
- सरकार की आमदनी
- घरेलू बचत
- उद्योगपतियों के निवेश
- नागरिकों के कंजम्पशन यानी खपत
इस लिहाज से देखें तो तीन मोर्चों पर बजट से उम्मीद पूरी नहीं हुई है. इसमें सरकार की आमदनी, बचत और कंजम्पशन बढ़ाने के पर्याप्त उपाय नहीं किए गए हैं. इसके बजाय बजट में 'प्रक्रिया को आसान' बनाने की कोशिश की गई है. बगैर सोचे-समझे इसमें इलेक्ट्रिक गाड़ी खरीदने पर 2.5 लाख रुपये की छूट का ऐलान किया गया है, जो छोटी रकम नहीं है. यह देखना होगा कि इस कदम से क्या हासिल होता है.
इसी तरह से किफायती घरों यानी अफोर्डेबल हाउसिंग के लिए ब्याज दरों का बोझ घटाने की पहल हुई है. आज एनबीएफसी और बैंक कम आमदनी वाले वर्ग को कर्ज देने से हिचक रहे हैं. इसलिए यह देखना दिलचस्प होगा कि इस कदम से ठंडे पड़े रियल एस्टेट सेक्टर में जान लौटती है या नहीं. वैसे मुझे नहीं लगता कि कम से कम कुछ साल तक इसका बहुत असर होगा.
वित्त मंत्री ने स्टार्टअप्स पर भी काफी ध्यान दिया है. उन्होंने उभरती हुई कंपनियों के लिए प्रोसेस और टैक्स संबंधी कई छूट का ऐलान किया है, लेकिन ऊपर मैंने जिन चार पैमानों का जिक्र किया, ये कदम उसमें फिट नहीं बैठते. स्टार्टअप्स के लिए बजट में प्रशासनिक फैसले लिए गए हैं, जिनका ऐलान अलग से भी किया जा सकता था. वैसे, बजट के पार्ट ए की ज्यादातर घोषणाओं पर यही बात लागू होती है. उनसे बजट का आर्थिक पहलू नहीं जुड़ा है. यह शायद एनडीए सरकार के दूसरे कार्यकाल के पहले बजट की सबसे बड़ी कमजोरी है.
आज अर्थव्यवस्था की हालत खराब है. ऐसे में निवेश को बढ़ाने वाले उपायों की जरूरत थी. इस बजट से यह काम नहीं होगा. सरकारी खजाने की हालत भी बहुत खराब है. इस मामले में स्थिति 1966 और 1991 जैसी हो गई है, जब इकनॉमी का बुरा हाल था. इस समस्या की जड़ मांग में भारी गिरावट है. इसके तीन पहलू कंज्यूमर डिमांड, कॉरपोरेट डिमांड और गवर्नमेंट डिमांड हैं. इस बजट में इनमें से किसी को हल करने की कोशिश नहीं की गई है. पिछले वित्त वर्ष में सरकार डायरेक्ट या इनडायरेक्ट टैक्स का लक्ष्य हासिल नहीं कर पाई थी.
इसलिए वित्त वर्ष 2019-20 में भी यह लक्ष्य मुश्किल लग रहा है. ऐसे में खर्च बढ़ाने के लिए सरकार को और कर्ज लेना होगा. बजट में कहा गया है कि सरकार अब विदेश से कर्ज लेगी. इसी वजह से फिस्कल डेफिसिट को इतना कम रखा गया है.
अब यह बात स्पष्ट हो चुकी है कि तनख्वाह न बढ़ने और चीजों के महंगा होने से लोग खरीदारी के फैसले टाल रहे हैं. कारों की बिक्री जैसे आर्थिक आंकड़ों से इसकी पुष्टि हो रही है. अगर टैक्स घटाकर लोगों के हाथ में अधिक पैसा दिया जाता तो वे खर्च बढ़ाते. बजट में इसकी कोशिश सिर्फ निम्न आय वर्ग (जिनकी सालाना आमदनी 5 लाख रुपये से कम है) के लिए हुई है. इससे ग्रोथ बढ़ाने में बहुत मदद नहीं मिलेगी. कुल मिलाकर, बजट से देश के सेंटीमेंट में कोई नाटकीय सुधार नहीं होने जा रहा है.
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