2019-20 का पूर्ण बजट जल्द पेश किया जाएगा. सरकारी खजाने की हालत आज 1966 और 1991 की तरह ही खराब है. दोनों बार न सिर्फ सरकार के पास पैसा खत्म हो गया था, बल्कि वह आमदनी बढ़ाने के नए रास्ते भी नहीं ढूंढ पाई थी. इसकी कई घरेलू और अंतरराष्ट्रीय वजहें थीं और अर्थव्यवस्था की हालत भी बहुत खराब थी. आज देश जिस समस्या का सामना कर रहा है, उसकी वजह ओवरऑल डिमांड यानी कंज्यूमर, कॉरपोरेट और गवर्नमेंट डिमांड में सुस्ती है.
कभी-कभी ऐसा होता है, जब तीनों ही डिमांड कमजोर पड़ जाती हैं, क्योंकि खर्च करने लायक पैसा नहीं होता या उसकी इच्छा नहीं होती. इस बार के बजट में यह तय करना होगा कि सरकार इन तीनों में से किस पर ध्यान देगी.
इस बीच एक और बड़ी समस्या सामने आई है, जिस पर कोई बात नहीं कर रहा है कि सरकार फंड के लिए पब्लिक सेक्टर पर किस हद तक आश्रित हो गई है.
पिछले साल सरकार पर कर्ज फिस्कल डेफिसिट (सरकार की आमदनी से अधिक खर्च) की तुलना में कहीं अधिक बढ़ा. यह अंतर जीडीपी का करीब एक फीसदी था. यह पैसा बजट से बाहर से जुटाया गया. यह रकम सरकारी देनदारी में शामिल होती है, लेकिन इसे फिस्कल डेफिसिट के कैलकुलेशन में शामिल नहीं किया जाता.
इस वजह से फूड सब्सिडी का बड़ा बोझ फूड कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया (एफसीआई) ने उठाया. इसके लिए उसने सरकार की तरफ से नेशनल स्मॉल सेविंग्स फंड से कर्ज लिया.
जब एफसीआई के इस कर्ज को चुकाने का वक्त आएगा, तब सरकार को उसे पैसा देना पड़ेगा. ऐसी देनदारी सरकार पर बढ़ रही है. डायरेक्ट टैक्स या इनडायरेक्ट टैक्स का पिछले वित्त वर्ष का लक्ष्य पूरा नहीं हुआ और इस साल भी इसकी संभावना नहीं है, इसलिए सरकार को खर्च बढ़ाने के लिए और कर्ज लेना पड़ेगा.
हालांकि, उसकी तरफ से पब्लिक सेक्टर के लिए गए कर्ज को चुकाने का वादा करके सरकार ने इस मामले में भी अपने बांध लिए हैं.
सबसे अच्छा तरीका- कंज्यूमर डिमांड
अर्थव्यवस्था में जान फूंकने का सबसे अच्छा तरीका कंज्यूमर डिमांड को बढ़ाना है. आम लोगों की सैलरी नहीं बढ़ रही है, लेकिन खर्च बेलगाम बना हुआ है. इसलिए वे खरीदारी टाल रहे हैं. इसका पता कारों की बिक्री सहित कई आंकड़ों से चल रहा है, जिनमें गिरावट आई है. अगर लोगों के हाथ में पैसा बढ़ता है तो वे अधिक खर्च करेंगे. इसके लिए टैक्स का बोझ घटाना होगा. इसी संदर्भ में वित्त मंत्रालय में जीएसटी दरों को कम करने और टैक्स का दायरा बढ़ाने पर चर्चा चल रही है.
लेकिन क्या सरकार जीएसटी की दरों में और कटौती करने व टैक्स का दायरा बढ़ाने के लिए और कदम उठाने की स्थिति में है. पहले दोनों सवालों का जवाब बजट में देना होगा, जबकि तीसरे मामले में फैसला जीएसटी काउंसिल को करना है. मुझे लगता है कि इन तीनों में ही सरकार के पास सीमित विकल्प हैं.
टैक्स मामलों के जानकारों का कहना है कि जीएसटी के लागू होने से पहले की तुलना में आज दरें कम हैं. उनका यह भी कहना है कि जहां टैक्स दरों में कटौती से सरकार की आमदनी तुरंत घट जाएगी, वहीं इससे टैक्स का दायरा बढ़ाने में वक्त लगेगा. इन सबके बीच सबसे अच्छा तरीका इनकम टैक्स की दरों को घटाकर सिर्फ 10 और 25 पर्सेंट करने का हो सकता है. इससे कंज्यूमर सेंटीमेंट और उनके खर्च करने पर पॉजिटिव असर होगा.
निजी क्षेत्र का निवेश
इन उपायों के बावजूद निजी क्षेत्र यानी प्राइवेट सेक्टर की तरफ से कम निवेश की समस्या बनी रहेगी, जिसमें पिछले पांच साल से गिरावट हो रही है. सरकार की तमाम कोशिशों के बावजूद इसमें इतनी रिकवरी नहीं हुई है कि वह इकनॉमिक ग्रोथ की अगुवाई कर सके. यह टैक्स या बजट से जुड़ा सवाल नहीं है. एक दौर था, जब बजट से ऐसे मसले सुलझाए जाते थे, लेकिन अब ऐसा नहीं है. आज प्राइवेट इनवेस्टमेंट कई घरेलू और अंतरराष्ट्रीय समस्याओं के चलते कमजोर बना हुआ है, जिन्हें बजट से दूर नहीं किया जा सकता.
इसके बाद सिर्फ सरकारी खर्च बच जाता है, जिस पर फिस्कल डेफिसिट को जीडीपी के 4 पर्सेंट के नीचे रखने के दबाव के चलते अंकुश लगा हुआ है. हालांकि, अब पीएम मोदी को इसे 5 पर्सेंट के करीब तक जाने देना होगा ताकि सरकार अपनी कमाई से कहीं अधिक पैसा खर्च कर सके. अगर वह सड़क बनाने के लिए निवेश करती है तो उससे सीमेंट और स्टील की मांग बढ़ेगी. तब निजी क्षेत्र की कंपनियां अधिक उत्पादन करेंगी.
सरकार ने 2014 के बजट में सभी कंपनियों के लिए कॉरपोरेट टैक्स रेट को घटाकर 25 पर्सेंट तक लाने की बात कही थी, बजट में उस पर अमल किया जा सकता है. इसकी कोई गारंटी नहीं है कि कॉरपोरेट टैक्स रेट घटाने से निवेश बढ़ेगा, लेकिन यह पहला अच्छा कदम जरूर हो सकता है.
(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)