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क्या कोरोना के कारण चीन से भागती कंपनियां भारत आएंगी? मुश्किल है

कोरोना वायरस के फैलने के बाद इन कंपनियों का चीन छोड़ने का इरादा और मजबूत हो गया होगा.

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मार्च के पहले हफ्ते में नोवल कोरोना वायरस मुख्य तौर पर चीन में ही अटका था. लेकिन, अब चूंकि ‘दुनिया भर की फैक्ट्री’ संक्रमित हो चुकी है, वैश्विक अर्थव्यव्यवस्था बीमार पड़ने लगी है. स्टोर खाली होने लगे हैं. कारोबार में स्टॉक खत्म हो रहे हैं. इसलिए चीन में बड़ी-बड़ी औद्योगिक यूनिट खोल चुकी कंपनियां बीजिंग पर लगाए गए दांव पर दोबारा विचार करने लगी हैं.

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क्या हर तरह की आपूर्ति के लिए एक देश पर जरूरत से ज्यादा निर्भर होना ठीक था?

चीन के कोविड-19 की चपेट में आने से पहले भी डोनाल्ड ट्रंप के चीनी उत्पादों पर टैरिफ बढ़ाने से मल्टीनेशनल कंपनियों में हड़कंप मच गया था. चीन में मौजूद अमेरिकी कंपनियों के सर्वे से पता चला कि 7 फीसदी कंपनियां दूसरे देशों में स्थानांतरित होने का मन बना रहीं थीं. इनमें से कुछ कंपनियां तो इससे पहले उस वक्त भी इस पर विचार कर रहीं थीं जब चीन में पिछले सालों में मजूदरी बढ़ा दी गई. कोरोना वायरस के फैलने के बाद इन कंपनियों का चीन छोड़ने का इरादा और मजबूत हो गया होगा.

स्नैपशॉट
  • चीन के मॉडल को दोहराना आसान नहीं है.
  • चीन ने अपने औद्योगिक हब्स को ऐसे तैयार किया है कि फैक्ट्रियां और सप्लायर्स क्लस्टर में पास-पास होते हैं.
  • जहां तक चीन के भौतिक इंफ्रास्ट्रक्चर की बात है भारत दूर-दूर तक इसकी बराबरी नहीं कर सकता.
  • जहां चीन में बनने वाले सामान की खपत के लिए उसके पास विशाल घरेलू बाजार है, भारत में घरेलू-मांग पिछले सालों में कम हुई है.
  • चीन में अब विदेशी कंपनियों को सरकारी फंड, जमीन और टैक्स में छूट को लेकर ठीक वैसी ही सुविधाएं मिलेंगी जो घरेलू कंपनियों को मिलती हैं.
  • वैश्विक मैन्यूफैक्चरिंग हब बनने की भारत की चाहत आने वाले वक्त में हद से ज्यादा उम्मीदें पालने का मामला साबित हो सकता है.

चीनी मॉडल को अपनाना आसान नहीं

भारत के ज्यादातर जानकारों का मानना है कि चीन से कंपनियों की विदाई का फायदा हमें मिलने वाला है. लेकिन क्या ऐसी उम्मीदों की कोई वास्तविक वजह है? पिछले दो सालों में चीन-अमेरिका ट्रेड वॉर की वजह से कई कंपनियों ने अपनी फैक्ट्रियां यहां से हटा ली हैं. लेकिन इनमें से सिर्फ 5 फीसदी कंपनियां भारत आईं. जबकि आधी से ज्यादा कंपनियों ने वियतनाम को चुना, और करीब एक तिहाई कंपनियां ताइवान और थाईलैंड चलीं गईं.

देंग शियाओ पिंग के जमाने से ही चीन की कोशिश रही है कि विदेशी निवेशक देश में फैक्ट्रियां स्थापित करें और दुनिया के बाकी देशों में अपने प्रोडक्ट्स बेचें. पिछले चार दशकों में चीन ने विशाल इंडस्ट्री-फ्रेंडली इंफ्रास्ट्रक्चर तैयार कर लिया है – जैसे कि विश्व का सबसे लंबा एक्सप्रेसवे नेटवर्क, विश्व का सबसे बड़ा हाई-स्पीड रेलवे नेटवर्क, विश्व के 10 सबसे बड़े कार्गो-पोर्ट में 7 कार्गो-पोर्ट, दुनिया के 20 सबसे व्यस्ततम कार्गो-एयरपोर्ट में तीन कार्गो-एयरपोर्ट, हाई-टेक दूरसंचार व्यवस्था और वैश्विक बिजली उत्पादन का एक चौथाई हिस्सा.

इंफ्रास्ट्रक्चर और घरेलू-मांग में भारत चीन की बराबरी नहीं कर सकता

चीन ने अपने औद्योगिक केन्द्रों को कुछ इस तरह तैयार किया है कि फैक्ट्रियां और सप्लायर्स के समूह एक दूसरे के बेहद करीब होते हैं. इससे समय और ट्रांसपोर्ट पर खर्च की बचत होती है – किसी भी कारोबारी के लिए इन दो खर्चों को कम करना बेहद जरूरी होता है. इसके अलावा चीन बेहतरीन-गुणवत्ता वाले इलेक्ट्रॉनिक्स और भारी मशीनें भी बनाता है, जो कि उत्पादन के पैमाने को बनाए रखने के लिए बेहद जरूरी है. चीन के पास हजारों ऐसी फैक्ट्रियां हैं जिन्हें अमेरिकी और यूरोपीय सुरक्षा प्रमाणपत्र हासिल हैं.

जहां तक चीन के भौतिक इंफ्रास्ट्रक्चर की बात है भारत दूर-दूर तक इसकी बराबरी नहीं कर सकता.

हमारी बिजली सप्लाई अनियमित और बेहद महंगी है, लॉजिस्टिक्स और ट्रांसपोर्ट की सुविधा के मामले में हम चीन से काफी पीछे हैं. निर्माण के लिए जरूरी ज्यादातर सामान और उपकरण हमें विदेशों से मंगाना पड़ता है.

जहां चीन के पास वहां तैयार हुए सामान की खपत के लिए विशाल घरेलू बाजार है, भारत में पिछले कुछ सालों में घरेलू-मांगों में कमी आई है.

एक चीज है जिसमें चीन धीरे-धीरे अपनी बढ़त खोता जा रहा है – और वो है सस्ती मजदूरी. 2018 में आम तौर पर चीन की फैक्ट्री में काम करने वाले एक मजदूर को प्रति घंटा 5 अमेरिकी डॉलर मिलता था, जो कि वियतनाम में काम करने वाले मजदूर के मुकाबले दोगुना और भारत में एक मजदूर की होने वाली कमाई से 2.5 गुना था.

हालांकि, चीनी मजदूर भारत में अपने साथियों के मुकाबले 60 फीसदी ज्यादा कुशल होते हैं. उन्हें बेहतर ट्रेनिंग मिलती है और एक ही जगह कई तरह के काम जानने वाले मजदूर मिल जाते हैं. इसके अलावा, चीन के मजूदरों के पास मोलतोल करने की सामूहिक ताकत नहीं होती, जो कि फैक्ट्री मालिकों के हक में जाती है.

चीन में अपराध की दर भारत के मुकाबले कम है – और कारोबार के लिए यह जरूरी है

चीन के बड़े औधोगिक केन्द्र बनने की वजहों में एक बात हम नजरअंदाज कर जाते हैं कि यह एक सत्तावादी देश है. जहां एक बार अगर सरकार किसी प्रोजेक्ट को हरी झंडी दे देती है तो शायद ही कभी किसी कंपनी को किसी कोर्ट का सामना करना पड़ता है या स्थानीय लोगों या एनजीओ या किसी यूनियन का प्रदर्शन झेलना पड़ता है. दूसरी तरफ, भारत में प्रजातांत्रिक संस्थाएं मजबूत हैं इसलिए सरकारों को मनमाने तरीके से फैसले लेने की छूट नहीं है.

2019 के ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशल की रैंकिंग के मुताबिक भ्रष्टाचार के मामले में चीन और भारत बराबर हैं. लेकिन चीन एक सुरक्षित देश है, वहां भारत के मुकाबले अपराध काफी कम है.

और ज्यादातर कंपनियों के लिए यह बहुत मायने रखता है कि सरकारी विभागों को पैसे देने के बाद वहां कंपनी चलाना कितना सुरक्षित है.

ऐसा नहीं है कि कंपनियां चीन से बाहर निकलती रहेंगी और चीन चुपचाप देखता रहेगा. पिछले साल अमेरिका ने टैरिफ बढ़ा दिया तो चीन ने विदेशी निवेशकों के लिए अपने कानून में बदलाव किए. इस साल जनवरी से नया यूनिफाइड कानून लागू हो चुका है, जिसमें कि विदेशी निवेशकों की राह आसान करने के लिए तीन अलग-अलग कानूनों को एक कर दिया गया है.

चीन में अब विदेशी कंपनियों को सरकारी फंड, जमीन और टैक्स में छूट को लेकर ठीक वैसी ही सुविधाएं मिलेंगी जो घरेलू कंपनियों को मिलती हैं.

इसके अलावा कंपनियों को स्टॉक मार्केट में शामिल होकर फंड उगाही करने की भी आजादी होगी. विदेशी निवेशक अब जितनी बार चाहें अपने मुनाफे को निकाल सकते हैं, उन्हें अपना करेंसी भी चुनने की छूट होगी. जो विदेशी कंपनियां ‘Encouraged Industries Catalogue’ में निवेश करेंगी उन्हें कम टैक्स देना होगा और उन्हें आयात-कर में भी छूट मिलेगी.

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भारत के लिए ‘मेक इन इंडिया की जगह ‘मेक फॉर इंडिया’ की नीति बेहतर

लॉकडाउन के बाद जिस गति से चीन की फैक्ट्रियां दोबारा पटरी पर लौटी हैं उससे कंपनियां वहां रुककर कारोबार करने के लिए आश्वस्त होंगी. चीन की सरकार ने डायरेक्ट कैश-ट्रांसफर के जरिए खपत को बढ़ाने से इनकार कर दिया तो सभी हैरत में पड़ गए. मुमकिन है चीन की सरकार की नींद नहीं उड़ेगी अगर बढ़ती बेरोजगारी और कम खपत की वजह से वहां मजूदरी कम करनी पड़े. यह एक तरह की अस्थायी कीमत है जो विदेशी कंपनियों को लुभाए रखने के लिए चीन को अदा करनी पड़ेगी.

इसका मतलब ये है कि वैश्विक मैन्यूफैक्चरिंग हब बनने की भारत की चाहत आने वाले वक्त में हद से ज्यादा उम्मीदें पालने वाला साबित हो सकता है.

रघुराम राजन ने एक बार कहा था कि ‘मेक इन इंडिया’ की जगह हमें ‘मेक फॉर इंडिया’ की नीति अपनानी चाहिए. जिसके लिए हमें निवेश की प्राथमिकताएं तय करनी होंगी और भारत की विशाल आबादी के लिए सामान और सुविधाएं मुहैया कराने पर ध्यान देना होगा, जिनके पास हमारे ही बनाए गए सामान को खरीदने की हैसियत नहीं होती.

(ऑनिंद्यो चक्रवर्ती NDTV के हिंदी और बिजनेस न्यूज चैनल के सीनियर मैनेजिंग एडिटर थे. उन्हें @AunindyoC पर ट्वीट किया जा सकता है. इस आर्टिकल में छपे विचार उनके निजी हैं. इसमें क्विंट की सहमति जरूरी नहीं है.)

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