8 नवंबर को 500 और 1,000 रुपये के पुराने नोटों को वापस लेने के ऐलान के वक्त प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा था कि इससे नकली नोटों की प्रॉब्लम छूमंतर हो जाएगी, काले धन का सफाया हो जाएगा और टेरर फंडिंग रुक जाएगी.
चार हफ्ते बाद अब इकनॉमी को कैशलेस बनाने की घुट्टी पिलाई जा रही है. सच तो यह है कि देश की बड़ी आबादी की पहुंच बैंकिंग सर्विसेज तक भी नहीं हो पाई है.
अलग-अलग अनुमान के मुताबिक, 60 से 90% लेन-देन कैश में होते हैं. जनधन जैसी फाइनेंशियल इनक्लूजन स्कीम के बावजूद 12% लोगों के पास बैंक एकाउंट और 85% लोगों के पास डेबिट और क्रेडिट कार्ड नहीं हैं. फिर डिजिटल पेमेंट रिवॉल्यूशन कैसे होगा?
डिजिटल ट्रांजेक्शंस के लिए लोगों के पास सबसे पहले स्मार्टफोन होना चाहिए. दूसरी जरूरी चीज भरोसेमंद और फास्ट इंटरनेट कनेक्शन है, जिसमें हम बहुत पीछे हैं. उससे भी बड़ी बात है लोगों की सोच बदलना. लोग पैसे के मामले में टेक्नोलॉजी पर भरोसा नहीं करते. उन्हें लगता है कि मोबाइल फोन या कंप्यूटर स्क्रीन पर बैंक एकाउंट में पड़ी रकम कहीं गायब तो नहीं हो जाएगी.
बहुत कम लोगों के पास है स्मार्टफोन
पहले स्मार्टफोन की पहुंच और इंटरनेट कनेक्टिविटी का सच देखिए. प्यू रिसर्च के इस साल के एक सर्वे के मुताबिक, सिर्फ 17% एडल्ट्स के पास स्मार्टफोन है. लो इनकम ग्रुप में तो बस 7% के पास ही ऐसे हैंडसेट हैं, जिन पर बैंकिंग एप्लीकेशंस ऑपरेट किए जा सकते हैं.
इंटरनेट कनेक्शन में भी फिसड्डी
इंटरनेट कनेक्शन के मामले में भी हालत खराब है. टेलीकॉम रेगुलेटर ट्राई के इस साल के एक सर्वे में बताया गया है कि देश में इंटरनेट सब्सक्राइबर्स की संख्या 34.2 करोड़ है और 91.2 करोड़ भारतीयों की पहुंच इंटरनेट तक नहीं है. इसमें शहरों में 58% लोगों की पहुंच इंटरनेट तक है. गांवों का हाल क्या है, जहां 87 करोड़ लोग रहते हैं.
बोस्टन कंसल्टिंग ग्रुप (बीसीजी) की पिछले साल की रिपोर्ट के मुताबिक, ग्रामीण इलाकों में 12 करोड़ लोगों की पहुंच इंटरनेट तक थी, जो 2020 में 31.5 करोड़ हो जाएगी. कंसल्टिंग कंपनियां अपनी रिपोर्ट्स में बढ़-चढ़कर दावे करती हैं, लेकिन अगर इसे सच भी मान लिया जाए तो चार साल बाद आधे रूरल कंज्यूमर्स ही ‘सायबर वर्ल्ड के नागरिक होंगे.’ इसमें कितने लोगों को डिजिटल ट्रांजेक्शंस की समझ होगी, इसका अंदाजा आप आसानी से लगा सकते हैं.
टेक्नोलॉजी पर कैसे करें भरोसा
अब तक लोगों का टेक्नोलॉजी का एक्सपीरियंस भी बहुत अच्छा नहीं रहा है. 25 साल पहले एटीएम के आने से बैंकिंग सर्विसेज के लिए कार्ड्स का इस्तेमाल शुरू हुआ. एटीएम मशीनों से कई बार पैसा निकले बगैर खाते से रकम कट जाती है. ज्यादातर मामलों में बैंक रकम को वापस खाते में डाल देता है, लेकिन ऐसे मामलों से तकनीक पर ऐतबार कम होता है.
नोटबंदी से एक और गलत मैसेज गया है. पहली बार लोगों को लग रहा है कि वह बैंक से अपनी मनमर्जी से अपना पैसा नहीं निकाल सकते. इससे यह भरोसा और टूटा है. खासतौर पर गांवों और दूरदराज के इलाकों में यह भावना घर कर रही है. जहां लोग गांव से 14 किलोमीटर दूर जाकर रात 12 बजे लाइन में लग रहे हैं, ताकि सुबह पहले उनका नंबर आए और हफ्ते-महीने भर तक का काम चलाने लायक पैसा मिल जाए, वहां इस भरोसे का टूटना भारी पड़ेगा.
विड्रॉल के मामले में हालात नॉर्मल होने पर कुछ समय तक इस वजह से लोग घरों में अधिक कैश रखना शुरू कर सकते हैं.
पीओएस? ये क्या बला है...
कैशलेस ट्रांजेक्शंस में 'प्वाइंट ऑफ सेल' (पीओएस) मशीनें बड़ा रोल अदा कर सकती हैं. इनके जरिये छोटी-बड़ी दुकानों पर क्रेडिट और डेबिट कार्ड्स से पेमेंट किया जा सकता है, लेकिन इस साल तक अगस्त तक देश में सिर्फ 14.6 लाख पीओएस मशीनें थीं. इनमें से भी 70% से ज्यादा मशीनें 15 बड़े शहरों में थीं. नोटबंदी के बाद इनकी मांग बढ़ी है, लेकिन यह डिमांड भी बड़े शहरों से आ रही है.
ई-वॉलेट के मामले में भी हालत ऐसी ही है. पीओएस और पेटीएम, फ्रीचार्ज जैसी ई-वॉलेट का आधार ज्यादातर शहरों में एक वर्ग तक सिमटा हुआ है और इनसे लेन-देन की लागत भी ज्यादा है.
देश अगर कैशलेस इकनॉमी में बदलता है, तो इससे करप्शन कम करने और टैक्स बेस बढ़ाने में मदद मिलेगी. सरकारी खजाने में अधिक पैसा आएगा, जिसका इस्तेमाल इंफ्रास्ट्रक्चर और सोशल वेलफेयर स्कीम्स में किया जा सकता है. इससे सरकार को टैक्स रेट भी कम करने में मदद मिलेगी. लेकिन अभी तो कैशलेस इकोनॉमी दूर की चिड़िया ही लग रही है.
(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)