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शाह जैसे नेताओं के कट्टर बयान को आम बना रही मीडिया की लीपापोती

हेट स्पीच के खिलाफ बोलने के बजाए मीडिया लीपापोती क्यों करता है?

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वीडियो एडिटर: वरुण तिवारी, आशुतोष भारद्वाज

वीडियो प्रोड्यूसर: अस्मिता नंदी

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मीडिया को राजनेताओं की ‘हेट स्पीच’ के खिलाफ खुलकर बोलना चाहिए, न कि उसकी लीपापोती करनी चाहिए. मिसाल के तौर पर, देश की सत्तारूढ़ पार्टी बीजेपी ने हाल ही में अपने अध्यक्ष अमित शाह के एक बयान को ट्वीट किया था:

‘हम पूरे देश में एनआरसी लागू करेंगे. हम बौद्ध, हिन्दुओं और सिखों के अलावा एक-एक घुसपैठिये को देश से बाहर निकालेंगे.’

ये हेट स्पीच क्यों नहीं है?

हेट स्पीच की परिभाषा ही है- बोलकर या लिखकर कही गई ऐसी अपमानजनक या धमकी भरी बात जो किसी एक जाति, धर्म, लिंग या ग्रुप के खिलाफ पक्षपात दिखाती हो.

मीडिया की जुबान में जिसे ‘पोलराइजेशन’ कहते हैं, शाह वो कर रहे थे, या सीधे-सीधे हिंदुत्व के एजेंडे पर काम कर रहे थे. या बस कोई विवाद खड़ा कर रहे थे.

गलत को गलत न कह पाने की हमारी कमी ने राजनीति में नफरत को आम चीज बना दिया है.

आइये हेट स्पीच को रिपोर्ट करने के लिए मीडिया में इस्तेमाल किए जाने वाले कुछ शब्दों को देखते हैं

पोलराइजेशन:

दो एकदम विपरीत समूह या विचार या विश्वास को बांटना

देश में अल्पसंख्यकों पर लगातार हमलों को बयां करने के लिए ये सही शब्द नहीं है. खासकर तब, जब ये हमले बहुसंख्यक समाज से आने वाले ऊंचे पदों पर बैठे नेता कर रहे हैं.

फायरब्रांड:

एक ऐसा व्यक्ति जिसे अपने मकसद से बेहद प्यार हो

गूगल सर्च में 'हिंदुत्व फायरब्रांड' सर्च करने पर पहले कुछ रिजल्ट्स में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ, वीएचपी के प्रवीण तोगड़िया और बीजेपी सांसद साक्षी महाराज के नाम सामने आते हैं.

तोगड़िया पर हेट स्पीच के 19 मामले दर्ज हैं. वहीं साक्षी महाराज पर भी कई मामले हैं. वहीं, योगी आदित्यनाथ ने दिसंबर 2017 में नेताओं के खिलाफ 20,000 मामले वापस लिए थे, जिसमें एक मामला खुद उनके खिलाफ था. ये मामला 2007 में गोरखपुर दंगों के दौरान हेट स्पीच से जुड़ा था.

हैरत नहीं कि क्लास मॉनिटर बनाए जाने के बाद भी आदित्यनाथ नहीं बदले (जैसा चेतन भगत ने अपनी ट्वीट में कहा था).

आदित्यनाथ का हालिया बयान मेरठ से आया है, जहां उन्होंने कहा, 'अगर कांग्रेस, एसपी और बीएसपी को अली में विश्वास है. तो हमें भी बजरंग बली में विश्वास है.'

डॉग-व्हिसल:

बीजेपी डॉग-व्हिसल पॉलिटिक्स में माहिर रही है. इस शब्द का मतलब है:

कुत्तों को ट्रेनिंग देने के लिए इस्तेमाल की जाने वाली एक सीटी, जो आमतौर पर इंसानों के लिए सुनना बर्दाश्त से बाहर होता है.

राजनीति में इसका मतलब किसी खास ग्रुप के लिए कही गई वो बात,जो सिर्फ वही ग्रुप समझ सकता है

इसलिए जब पीएम बार-बार ‘पिंक रिवोल्यूशन’ का जिक्र करते हैं, जब वो कहते हैं कि राहुल गांधी वायनाड से इसलिए खड़े हुए हैं, क्योंकि ये एक मुस्लिम बहुल क्षेत्र है, जब योगी आदित्यनाथ कहते हैं कि सबसे ज्यादा सांप्रदायिक हिंसा मुस्लिम बहुल इलाकों में हुईं... तो ये सिर्फ ‘हिंदुत्व कार्ड’ खेलना नहीं है. ये हिंदुओं के लिए ‘डॉग व्हिसल’ है कि उस पार्टी को वोट करें जो अल्पसंख्यकों को ‘घुसपैठियों’ की तरह देखते हैं.

पिछले साल सितंबर में अमित शाह ने बांग्लादेशी प्रवासियों को 'दीमक' कहा था और अब उनके लिए 'घुसपैठियों' का मतलब देश का हर मुसलमान या इसाई है. तो दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र की सबसे बड़ी पॉलिटिकल पार्टी के नेता से कौन पूछेगा कि वो नाजी प्लेबुक के मुताबिक क्यों चल रहे हैं?

मीडिया ने भी इन ‘डॉग-व्हिसल’ कमेंट्स की रिपोर्टिंग छिटपुट घटनाओं के रूप में की. उसने कड़ी से कड़ी नहीं मिलाई. हेट स्पीच बीजेपी की सोशल पॉलिसी का हिस्सा है. इसके खिलाफ बोलना मीडिया की जिम्मेदारी है.

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