2019 का लोकसभा चुनाव भोजपुरी भाषा की अस्मिता और मान सम्मान के लिए काफी अहम है. इस बार बीजेपी ने भोजपुरी कलाकारों को थोक के भाव में मैदान में उतारा, लेकिन डर इस बात का है कि भोजपुरी को राष्ट्रीय भाषा का दर्जा दिलवाने के आंदोलन के नाम पर कहीं हमेशा की तरह ‘लॉलीपॉप कल्चर' फिर हावी न हो जाये.
मैं यह बात साफ कर देना चाहती हूं कि मनोज तिवारी, रवि किशन और दिनेश लाल यादव उर्फ 'निरहुआ' जैसे भोजपुरी कलाकारों को चुनावी मैदान में उतारने से भोजपुरी भाषा को सम्मान नहीं मिलेगा.
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भोजपुरी भाषा को संवैधानिक दर्जा दिलवाना भी वोटरों का एक अहम मुद्दा है.
जिन भोजपुरी भाषी क्षेत्रों में आखिरी दो चरणों के चुनाव हुए थे वो काफी अहम हैं: गोरखपुर, देवरिया, बलिया, गाजीपुर, वाराणसी, आजमगढ़, पश्चिमी और पूर्वी चम्पारण, गोपालगंज, सीवान, आरा, बक्सर, सासाराम, काराकाट, जहानाबाद.
अफसोस इस बात का है कि चुनावी सभाओं के लाउडस्पीकर से निकलती रिंकिया के पापा, हर हर महादेव और निरहुआ सटल रहे जैसी आवाजें भोजपुरी से जुड़े असली मुद्दों को दबा रही हैं. और अगर वो हमेशा की तरह कामयाब हो गईं, तो 'भोजपुरी के शेक्सपियर' कहे जानेवाले भिखारी ठाकुर की धरती, कुंवर सिंह की जमीन और चम्पारण का सत्याग्रह आने वाली पीढ़ियों के लिए महज इतिहास का चैप्टर बनकर रह जाएंगे.
इस बार का लोकसभा चुनाव इसलिए भी भोजपुरी भाषा के मान-सम्मान के लिए अहम है, क्योंकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का संसदीय क्षेत्र वाराणसी भी उसी मिट्टी और बोली का हिस्सा है, इसमें कोई दो राय नहीं कि पिछले पांच साल में तो भोजपुरी भाषा के लिए कुछ नहीं हुआ. बीजेपी के बड़े नेता भोजपुरी को संवैधानिक भाषा का दर्जा दिलवाने के मुद्दे पर इस बार भी खुलकर कुछ नहीं बोल रहे.
राधामोहन सिंह, आरके सिंह, अश्विनी चौबे, रविशंकर प्रसाद, मनोज सिन्हा जैसे बीजेपी के कई केंद्रीय मंत्री और कई दूसरे मौजूदा सांसद भी भोजपुरी को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल करने की बात अपनी सभाओं में खुलकर नहीं बोले.
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आखिरकर वो भाषा, जिसने भारत से बाहर भारतीय संस्कृति को जिन्दा रखा है, उसके साथ अपने देश में ही ऐसा सौतेला रवैया क्यों? इस सवाल पर पत्रकार, भोजपुरी कवि और गायक प्रमोद कुमार का कहते हैं:
‘’भोजपुरी मूलतः एक राजनीतिक षड्यंत्र का शिकार हो चुकी है. संविधान के अनुच्छेद 29 में नागरिकों को यह मौलिक अधिकार दिया गया है कि उनकी भाषा, संस्कृति और लिपि को बनाए रखा जाए. इस हिसाब से करोड़ लोगों की भाषा भोजपुरी का पूरा हक है कि उसे संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल किया जाए. ऐसा होने के बाद भोजपुरी को वो देशव्यापी सम्मान मिल सकेगा, जो अनुसूची में शामिल दूसरी भाषाओं को पहले से मिल रहा है.’’
बहुत से लोगों का मानना है कि भोजपुरी को अगर संवैधानिक दर्जा मिल जाएगा, तो हिंदी कमजोर हो जाएगी. मेरा उनसे सवाल है कि जब सिंधी को संवैधानिक दर्जा मिला तो क्या गुजराती कमजोर हुई? फिर भोजपुरी हिंदी को कैसे कमजोर कर देगी.
इसमें कोई दो राय नहीं की चुनावी मौसम में भोजपुरी भाषा और माटी को हमेशा से एक प्रयोगशाला के तौर पर इस्तेमाल किया जाता रहा है. हो भी क्यों नहीं, जब यह भाषा बिहार, उत्तर प्रदेश, झारखण्ड, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ के कुछ इलाकों से 100 से ज्यादा सांसदों को चुनकर दिल्ली भेजती है.
लोकसभा चुनाव की चर्चा मॉरिशस, सूरिनाम, फिजी, गयाना, टोबैगो-त्रिनिदाद, नीदरलैंड जैसे देशों में भी है, क्योंकि वहां भोजपुरी आबादी है. भारत समेत पूरी दुनिया में भोजपुरी बोलने वालों की तादाद लगभग 240 मिलियन है.
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मौजूदा चुनाव और भोजपुरी भाषा
कवि रघुवीर नारायण जी की कविता भोजपुर की महत्ता को बहुत सुन्दर ढंग से पेश करती है:
गंगा रे जमुनवा के झिलमिलपनियां से
सरजू झमकि लहरावे रे बटोहिया
ब्रह्मपुत्र पंचनद घहरत निसि दिन
सोनभद्र मीठे स्वर गावे रे बटोहिया
प्रमोद कुमार का मानना है:
‘’भोजपुरी भाषा को राष्ट्रीय भाषा का दर्जा दिलवाने के सवाल पर केंद्र सरकार और बीजेपी को अपनी मंशा साफ करनी चाहिए. यह सच है कि भोजपुरी कलाकारों को चुनावी मैदान में उतारने से भोजपुरी भाषा को सम्मान नहीं मिलेगा.’’
हैरानी की बात है कि भारत से बाहर सबसे ज्यादा बोली जाने वाली भारतीय भाषा अपने ही देश में सियासत का खिलौना बनकर अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही है और उसी भाषा के बूते पैसा और शोहरत कमाने वाले सियासत का ही हिस्सा बने हुए हैं.
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