बंगाल में इस बार बीजेपी का जादू चल गया. 2014 में दो सीटें जीतने वाली पार्टी यहां लगभग 19 सीटें जीतती दिख रही है. लोकसभा चुनाव के लिए बीजेपी की स्ट्रेटजी में बंगाल टॉप प्रायरिटी में था. इसलिए चुनाव प्रचार के आखिरी दौर में भी खुद पीएम और पार्टी के सबसे बड़े रणनीतिकार अमित शाह ने खुद को यहां झोंके रखा और लाल सलाम से मां, मार्टी, मानुष तक पहुंचे बंगाल में कमल खिल गया.
आखिरी दौर में राज्य में जिस तरह का टकराव और हिंसा दिखी उससे साफ हो गया कि मोदी और शाह बंगाल के किले को फतह करने के लिए किस कदर बेकरार हैं. हालांकि मोदी और शाह के हमलावर तेवरों के खिलाफ ममता बनर्जी ने काफी हिम्मत दिखाई. बीजेपी की मशीनरी के खिलाफ जम कर लड़ीं. लेकिन वह भगवा फोर्स की हमलावर चुनाव स्ट्रेटजी को काबू नहीं कर पाईं. आखिर बंगाल में यह बड़ा बदलाव कैसे आया? क्या बंगाल का वोटर ममता बनर्जी के रवैये से नाराज था? क्या यहां लेफ्ट का काडर रातों-रात बीजेपी के वोट बैंक में तब्दील हो गया? क्या मतदाताओं के मन को मोदी की मजबूत नेता की छवि भा गई? नतीजों के आने के बाद यह साफ है कि बंगाल में इन तीनों फैक्टर ने काम किया है.
पंचायत चुनावों की दादागिरी तृणमूल को भारी पड़ी
जमीनी हकीकत यह है कि बंगाल में इस बार ग्राम पंचायतों के चुनावों में जिस तरह की हिंसा हुई उससे ग्रामीण मतदाता तृणमूल से नाराज हो गए. इस बार के पंचायत चुनाव में तृणमूल के कैडरों की हिंसा की वजह से कई जगह दूसरी पार्टियों के उम्मीदवार चुनाव में खड़े ही नहीं हो पाए. तृणमूल की हिंसा और दादागीरी ने जमीन से जुड़े मतदाताओं को बुरी तरह नाराज कर दिया और उसने इस बार ममता की पार्टी पर अपना गुस्सा निकाला.
बीजेपी को लेफ्ट के काडर का साथ!
दूसरा फैक्टर है लेफ्ट का खिसकता आधार. बंगाल में 2011 में सत्ता खोने के बाद लेफ्ट का आधार खिसकता गया है. 2006 में रिकॉर्ड जीत हासिल करने वाली सीपीएम को 2011 में केवल 40 सीटें मिल पाई और उसका वोट प्रतिशत 37% से घटकर 30% रह गया. इसके बाद 2014 लोकसभा चुनावों में सीपीएम को केवल दो सीटों पर जीत मिली और 2016 के विधानसभा चुनावों में लेफ्ट फ्रंट को कांग्रेस से गठबंधन करना पड़ा लेकिन निराशा ही हाथ आई. ममता के कथित तानाशाही रवैये के विरोध में लेफ्ट का काडर काफी तेजी से तृणमूल के पाले में चला गया.
बंगाल में जमीनी हकीकत की द क्विंट की पड़ताल से पता चला कि सीपीएम और दूसरी लेफ्ट पार्टियों का काडर कई बूथों पर ममता बनर्जी को हराने के लिए काम कर रहा है. दमदम सीट पर एक बीजेपी कार्यकर्ता ने द क्विंट को बताया था कि ममता बनर्जी की तानाशाही से सब परेशान हैं. चाहे वामपंथी हो या कोई और हो. इसलिए जिन बूथों पर लगता है कि सीपीएम कमजोर है, वह हमें वोट दिलवाते हैं तो उनका स्वागत है.’
बंगाल में पिछले कई सालों से बीजेपी मेहनत कर रही थी. यह उसके वोट का बढ़ता प्रतिशत भी साबित करता है. 2009 के चुनाव में उसने यहां 6 फीसदी वोट हासिल किए थे लेकिन 2014 में उसके वोट का प्रतिशत 17.02 पर पहुंच गया. बंगाल में अपना वोट फीसदी बढ़ाने की बीजेपी स्ट्रेटजी लगातार कामयाब रही है. इस रणनीति का फायदा उसे इस बार की वोटिंग में मिलता दिख रहा है.
बांग्लादेशी घुसपैठियों और गो-तस्करी के मुद्दों को हवा
बीजेपी बांग्लादेशी घुसपैठियों और गो-तस्करी के नाम पर भावनात्मक विभाजन की रणनीति को सिरे चढ़ाने में कामयाब रही. नतीजों से ऐसा लगता है कि बांग्लादेश से आए दलित वोटरों का भी बीजेपी को साथ मिला. बंगाल में बीजेपी को मिली सीटों से राजस्थान, मध्य प्रदेश, हिमाचल और यूपी जैसे राज्यों में पार्टी को हुए सीटों के नुकसान की भरपाई भी हो गई है.
बंगाल में बीजेपी को मिली जीत से ऐसा लगता है कि पार्टी को दलितों और पिछड़ों के साथ भद्रलोक यानी अपर क्लास का भी वोट मिला. उसने भी ‘चुपचाप कमल छाप’ की स्ट्रेटजी अपनाई.
मोदी की मजबूत छवि की मार्केटिंग
राज्य में बीजेपी ने मोदी की छवि लगातार एक ऐसे नेता के तौर पर पेश की गई जो पाकिस्तान और चीन को सबक सिखा सकता है. यहां तक कि लेफ्ट के पुराने काडर में भी मोदी को एक मजबूत नेता की छवि दिखने लगी. बीजेपी को मोदी की मजबूत नेता की इसी छवि की मदद मिली.
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