ADVERTISEMENTREMOVE AD

लोकसभा चुनाव 2019:लालू और अखिलेश के लिए अपना ‘टर्फ’ बचाने की लड़ाई

इस बार उत्तर प्रदेश और बिहार में वो हुआ जो किसी ने सोचा नहीं था.

Published
story-hero-img
i
छोटा
मध्यम
बड़ा

इस बार उत्तर प्रदेश और बिहार में वो हुआ, जो किसी ने सोचा नहीं था. नहीं सोचा था कि मायावती की बहुजन समाज पार्टी फिर से समाजवादी पार्टी के साथ गठबंधन करेगी. नहीं सोचा था कि लालू यादव बिहार की कुल सीटों में से आधी लोकसभा सीटों पर ही चुनाव लड़ पाएंगे.

लेकिन उधर मायावती को साइकिल की सवारी कराने के लिये अखिलेश उतावले थे. यहां तक कि उनके जूनियर पार्टनर बनने के लिये भी तैयार हो गये. अखिलेश की समाजवादी पार्टी 37 सीटों पर चुनाव लड़ रही, जबकि मायावती की बीएसपी 38 सीटों पर.

ADVERTISEMENTREMOVE AD

उधर, लालू यादव ने इससे पहले कभी 25 सीटों से कम पर नहीं लड़ा था. लेकिन राजनीति में जितने मोड़, उतार-चढ़ाव आते हैं, उनसे लालू यादव सबक ले चुके होंगे कि राजनीति में भी क्रिकेट की तरह जितना महत्व ज्यादा रन बनाने का है, उससे कहीं अधिक महत्व स्ट्राइक रेट का है. कम सीटों पर लड़ने के बावजूद ज्यादा सीटें जीतना ही लालू यादव और तेजस्वी यादव की राष्ट्रीय जनता दल का लक्ष्य होगा.

यहां तक तो फिर भी ठीक था. लेकिन जिस एमवाई यानी मुस्लिम यादव कॉम्बिनेशन ने लालू यादव को सत्ता का सुख दिया, वो वोट बैंक धीरे-धीरे कब दरक गया, लालू यादव को पता ही नहीं चला.

हालांकि पिछले विधानसभा चुनाव में लालू यादव ने अपना पुराना जादू दिखाया और नीतीश के साथ मिलकर इस वोट बैंक को फिर अपनी ओर खींच लाये. मगर इस बार नीतीश साथ नहीं. इतने बरसों में नीतीश और एनडीए ने भी लालू के ट्रेडिशनिल वोट बैंक में सेंधमारी की है. खासकर वाई यानी यादव वोट बैंक में.

तेजी से बदला राजनीतिक मंजर

राजनीतिक मंजर तेजी से बदल रहा है. पिछड़ी और अति पिछड़ी जातियां भी सत्ता की जोर आजमाइश के लिये उतावली दिख रहीं. सब को सत्ता में बराबर की भागीदारी चाहिये. फिर जब आप के सामने नरेंद्र मोदी जैसा हिंदुत्व का सबसे बड़ा चेहरा राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी हो, तो चुनावी रणनीति फूलप्रूफ होनी चाहिये. इसलिये गठबंधन को विस्तार ही नहीं, बल्कि उस गठबंधन की सफलता के लिये कुछ त्‍याग भी जरूरी होता है. तभी तो उन्होने मुकेश सहनी से हाथ मिलाया.

ADVERTISEMENTREMOVE AD

मुकेश सहनी का नाम बिहार के बाहर शायद ही किसी ने सुना हो. लेकिन बिहार में इस युवा नेता की छवि अपनी निषाद जाति में किसी रॉकस्टार से कम नहीं. पिछले विधानसभा चुनाव में इन्होंने बीजेपी के लिये प्रचार किया. मगर निषाद वोट फिर भी नीतीश कुमार ले उड़े.

कभी मुंबई में फिल्मों के सेट बनाती थी सहनी की इवेंट मैनेजमेंट कंपनी. लेकिन राजनीति इन्हें वापस बिहार खींच लाई. सहनी अब महागठबंधन का हिस्सा हैं. उसी महागठबंधन में जिसमें एनडीए से निकले उपेन्द्र कुशवाहा की पार्टी राषट्रीय लोक समता दल और जीतमराम मांझी की हिंदुस्तान अवाम मोर्चा भी जुड़ चुकी है.

ADVERTISEMENTREMOVE AD
बिहार में कैप्टन जयनारायण निषाद के बाद कोई बड़ा निषाद नेता नहीं उभरा. सहनी ने बिहार राजनीति में ऐसे समय एंट्री मारी है जब एनडीऐ और यूपीए दोनों ऐसे वोट बैंक की तलाश में थे. बिहार में कुल 10 फीसदी निषाद वोट हैं. जो कि लगभग एक दर्जन लोकसभा सीटों में महत्वपूर्ण है. निषाद भी बिहार की कुल 29 फीसदी अति पिछड़ा वर्ग में ही हैं. और इस वोट बैंक पर एनडीए और महागठबंधन, दोनों की निगाहे थीं. वहीं कुशवाहा वोट भी करीब छह से सात फीसदी है और लगभग आधा दर्जन सीट पर ये वोट बैंक कैंडिडेट को जिताने या हराने की क्षमता रखता है.

मुकेश सहनी की विकासशील इंसान पार्टी यानी वीआईपी को लालू यादव को तीन सीट देनी पड़ी. मांझी के भी खाते में तीन सीटें आई हैं. इस महागठबंधन में उपेन्द्र कुशवाहा की पार्टी पांच और कांग्रेस नौ सीटों पर चुनाव लड़ेगी. एक सीट पर सीपीआई एमएल चुनाव लड़ेगी. बिहार में लालू यादव के सबसे ज्यादा विधायक हैं, मगर आरजेडी बिहार की 40 लोकसभा सीटों में से 19 पर ही चुनाव लड़ रही. जबकि बाकी 21 सीटों पर सीपीआई ( माले ) सहित महागठबंधन की दूसरी पार्टियां. 2014 में आरजेडी ने 27 सीटें लड़ीं मगर 4 सीटें ही जीतीं.

ADVERTISEMENTREMOVE AD

इसलिये लालू यादव ने छोटी-बड़ी सभी पार्टियों को साथ जोड़ा है. लालटेन में तेल होगा तभी तो लौ तेज जलेगी. और ये बात लालू यादव से बेहतर कौन जानता है. चारा घोटाले में दोषी लालू यादव रांची जेल में हैं. लालू यादव को पता है, इस बार राजनीतिक अस्तित्व बचाने की लड़ाई है वर्ना जेल से वानप्रस्थ के सारे रास्ते खुले हैं.

ADVERTISEMENTREMOVE AD
राजनीतिक परिपक्वता का एक नमूना उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव ने भी दिखाया. मायावती से दो दशकों पुरानी राजनीतिक कड़वाहट को भुलाकर उनके साथ गठबंधन करके. इसका कामयाब पायलेट प्रोजेक्ट तो फूलपुर, कैराना और गोरखपुर के लोकसभा उपचुनावों में देखने को मिला था. जहां एसपी और आरएलडी बीएसपी के समर्थन से लड़ी और तीनों सीटें जीती. वो सफल एक्सपेरिमेंट लोकसभा चुनाव के लिये तीनों पार्टियों को फिर साथ लाया.

हालांकि मायावती की बीएसपी को पिछले लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश में एक सीट पर भी सफलता नहीं मिली थी. राज्य की बागडोर भी अखिलेश के पास रही पिछले पांच में से तीन साल. मगर एसपी-बीएसपी गठबंधन के ऐलान ने नामुमकिन को मुमकिन कर दिया.

जाहिर है मुलायम सिंह नाराज थे कि अखिलेश गठबंधन करके पार्टी की महत्ता और राज्य में पार्टी की हैसियत को कम आंक रहे. जाहिर है पार्टी की बागडोर अगर पिता मुलायम के हाथ में ही होती, तो ये गठबंधन कतई मुमकिन नहीं होता. मुलायम बेटे के इस फैसले से इतने चिढ़े दिखे कि लोकसभा में प्रधानमंत्री मोदी को ही दोबारा जीत का आशीर्वाद दे दिया. यानी जो आशीर्वाद बेटे अखिलेश को मिलना चाहिए, वो पिता जी ने अपने धुर विरोधी को दे दिया.

ADVERTISEMENTREMOVE AD
लेकिन अखिलेश और मायावती के सामने लक्ष्य साफ है. अर्जुन की मछली की आंख की तरह. मोदी की बीजेपी को हराना है. क्योंकि दिल्ली की सत्ता का रास्ता मोदी के लिये उत्तर प्रदेश से ही होकर गुजरा. गुजरात छोड़कर मोदी बनारस से चुनाव लड़े और जीते. बीजेपी ने भी 80 में से 73 सीटें जीती थी.

एसपी-बीएसपी गठबंधन का आलम ये था कि अखिलेश ने अपनी पुरानी सहयोगी कांग्रेस को भी डंप कर दिया. उससे गठबंधन में शामिल होने की बातचीत भी नहीं हुई. शायद मायावती इसके लिये तैयार नहीं थीं. और अखिलेश को मालूम था हाथी की सवारी उनके, उनकी पार्टी और उत्तर प्रदेश में उनकी लंबी राजनीतिक पारी के लिये सबसे मुफीद रहेगी, क्योंकि बिहार की तरह उत्तर प्रदेश में भी कांग्रेस अपना बेस खो चुकी है. उसका दलित, मुस्ल्मि और अगड़ा जाति वाला वोट बैंक अब बीजेपी, एसपी और बीएसपी में बंट चुका है. लेकिन अपने पुराने दोस्त के लिये अखिलेश ने अमेठी और रायबरेली की सीट पर उम्मीदवार नहीं उतारने का फैसला किया.

ADVERTISEMENTREMOVE AD

पारिवारिक मतभेद से बिगड़े हालात

राजनीतिक सर्वाइवल के लिये तो अखिलेश अपने पिता से ही बगावत कर चुके हैं. नाराज चाचा शिवपाल यादव दूसरी पार्टी बना चुके हैं. हांलाकि अखिलेश की ये बगावत चुनावी फायदों में तब्दील नहीं हुई. दो साल पहले बीजेपी ने उन्हे सत्ता से बेदखल कर दिया. लेकिन राजनीतिक शतरंज की बिसात पर अखिलेश एक और चुनावी दांव लगा चुके हैं. वो मायावती को दिल्ली में प्रधानमंत्री पद की ताजपोशी बनाने का ख्वाब देख रहे. ताकि यूपी में उनका खुद का एकछत्र राज हो, क्योंकि दिल्ली में सत्ता का रास्ता यूपी होकर ही जाता है.

लालू यादव के लिये आने वाले लोकसभा चुनाव 'डू ऑर डाई' बैटल है. या तो ये चुनाव उनकी उन्हें नयी रोशनी दिखायेगा या फिर उन्हें और उनकी पार्टी को राजनीतिक अंधकार की ओर धकेल देगा. उनके बेटे के राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं पर पानी फेर सकता है.

लालू और अखिलेश के लिये ये सिर्फ अपना अपना टर्फ बचाने की लड़ाई नहीं, बल्कि इन गठबंधन की चुनावी सफलता या असफलता, दोनों के लिये पार्टी की दशा और दिशा तय करेगी.

( प्रभात शुंगलू सीनियर जर्नलिस्ट हैं और अपना YouTube channel The NewsBaaz चलाते हैं.)

यह भी पढ़ें: क्या मायावती के गुस्से को नजरअंदाज करना कांग्रेस को भारी पड़ा?

(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)

सत्ता से सच बोलने के लिए आप जैसे सहयोगियों की जरूरत होती है
मेंबर बनें
×
×