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लोकसभा चुनाव 2019: न कोई लहर, न हवा, बिहार में हरेक सीट पर है जंग

इस महीने की 11 तारीख से शुरू हुए लोकसभा चुनाव में अब तक बिहार की 19 सीटों पर मतदान हो चुका है

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बिहार की 40 लोकसभा सीटों में से करीब आधी पर उम्मीदवारों का भविष्य ईवीएम में कैद हो चुका है. हालांकि अब तक न तो 2009 या 2014 के लोकसभा चुनाव जैसी लहर नजर आ रही, न ही 2015 जैसा अंडरकरेंट. चार चरणों के मतदान के बाद नेता अपनी जीत के दावे तो खूब कर रहे हैं, लेकिन इस बारे में आश्वस्त नजर नहीं आ रहे.

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11 अप्रैल से शुरू हुए लोकसभा चुनाव में अब तक बिहार की 19 सीटों पर मतदान हो चुका है.

सूबे की औरंगाबाद, गया, नवादा, जमुई, भागलपुर, बांका, कटिहार, पूर्णिया, किशनगंज, मधेपुरा, सुपौल, खगड़िया, झंझारपुर, अररिया, मुंगेर, उजियारपुर, समस्तीपुर, बेगूसराय और दरभंगा सीटों पर अब तक वोटिंग हो चुकी है. अगले तीन चरणों में राज्य की 21 सीटों पर मतदान होना है.

ज्यादातर विश्लेषकों के मुताबिक, इस बार किसी गठबंधन के लिए लहर नहीं नजर आ रही है. हर सीट के लिए अलग लड़ाई चल रही है. राष्ट्रीय सुरक्षा और विकास मुद्दा तो हैं, लेकिन बात स्थानीय मुद्दों पर ज्यादा हो रही है.

इस वीडियो को सुनने के लिए क्लिक करें-

कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी पटना यूनिवर्सिटी को केंद्रीय विश्वविद्यालय बनाने की बात कर रहे हैं, तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने दरभंगा में मखाना शोध संस्थान का वादा किया.

भगवा गठबंधन के प्रत्याशियों को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नाम पर भरोसा तो है, लेकिन पिछड़े मतदाताओं के गुस्से का डर भी सता रहा है. साथ ही स्थानीय विरोध और बागी उम्मीदवारों ने भी उनकी राह को मुश्किल कर दिया है. वहीं महागठबंधन में भी राष्ट्रीय जनता दल (आरजेडी) सुप्रीमो लालू प्रसाद की कमी भी बुरी तरह से खली रही है.

बे-लहर का चुनाव

बिहार में बीते दो लोकसभा चुनाव में एनडीए को एकतरफा जीत मिली थी. 2009 में नीतीश कुमार के नेतृत्व में एनडीए को 32 सीटें मिली थीं, तो 2014 में नरेंद्र मोदी के नाम पर 31 सीटें एनडीए के खाते में आई थीं. हालांकि राज्य में इस बार लोकसभा चुनाव में किसी प्रकार की लहर नहीं दिखाई दे रही. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता तो अब भी बरकरार है, लेकिन एनडीए उम्मीदवारों को वोटरों की बेरुखी का भी सामना करना पड़ रहा है.

अगर राष्ट्रीय सुरक्षा की बात पर मोदी सरकार की तारीफ हो रही है, तो वहीं दलितों पर अत्याचार और बेरोजगारी की बात कहने से भी वोटर नहीं चूक रहे हैं. वहीं स्थानीय स्तर पर सांसदों को विरोध का सामना करना पड़ रहा है.

खुद बीजेपी के अंदरूनी सूत्र मानते हैं कि इस बार 7-8 दिग्गज नेताओं के प्रति जनता में भारी गुस्सा है. इनमें कई केंद्रीय मंत्री भी शामिल हैं. बीते चुनाव में मोदी लहर में जनता ने इन बातों को नजरअंदाज कर दिया था, लेकिन इस बार इन्हें विरोध झेलना पड़ सकता है.

इसके अलावा, नीतीश कुमार का जादू भी इस चुनाव में फीका पड़ता नजर आ रहा है.

पिछड़ों की चुप्पी

इस चुनाव में पिछड़ी जातियों के मतदाता अब तक चुपचाप चुनावी तमाशा देख रहे हैं. राजनीतिक दलों की लाख कोशिशों के बाद भी उनकी ओर से राजनीतिक दलों को कई इशारा नहीं मिल रहा है. इस चुप्पी की वजह से दोनों गठबंधनों की सांसें अटकी हुई है. दरअसल, विश्लेषकों के मुताबिक दलितों के खिलाफ बढ़ती आपराधिक घटनाओं और सवर्ण आरक्षण को लेकर एनडीए की मुश्किल बढ़ी हैं. हालांकि उनके मुताबिक इस वर्ग में अब भी नीतीश कुमार के लिए सहानुभूति है, लेकिन इन मतदाताओं को लुभाने में एनडीए को खासी मेहनत करनी पड़ रही है.

इसीलिए अपनी हर रैली में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपनी जाति के बारे में खुलकर बताते हैं. साथ ही, मुख्यमंत्री नीतीश कुमार भी इस तबके के लिए काम के बारे में घूम-घूमकर प्रचार कर रहे हैं. वहीं, राजनीतिक नुकसान के खतरे को देखते हुए उप-मुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी भी लालू प्रसाद को चारा घोटाले में जेल भेजने का श्रेय लेने से बच रहे हैं. बात तो यहां तक पहुंच गई है कि रविवार को उन्होंने लालू प्रसाद को जेल भेजने के लिए कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी को जिम्मेदार बताया.

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अंदरूनी कलह

इस चुनाव में महागठबंधन और राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन को अंदरूनी कलह का भी सामना करना पड़ रहा है. सत्ता में होने की वजह से एनडीए को इसका सबसे ज्यादा सामना करना पड़ रहा है. मसलन, बांका में नीतीश कुमार की जनता दल (यू) ने गिरिधारी यादव को खड़ा किया था, लेकिन बीजेपी की पूर्व सांसद और स्व. दिग्विजय सिंह की विधवा पुतुल देवी ने निर्दलीय प्रत्याशी के रूप बीजेपी वोटबैंक में गहरी सेंध लगाई है.

वहीं, अंदरुनी चर्चा की मानें, तो बीजेपी ने अब जिन पांच सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारे हैं. वहां जेडी (यू) अपने सीमित वोट को ही ट्रांसफर करवा सकी है. वहीं काफी प्रयास के बावजूद रामविलास पासवान दलित और पिछड़ों के वोटबैंक में जगह नहीं बना पा रहे हैं.

दूसरी तरफ, महागठबंधन में भी लालू प्रसाद की कमी साफ खल रही है. महागठबंधन के नेताओं की मानें तो तेजस्वी यादव उनकी कमी को पूरा करने में अब तक विफल साबित हुए हैं. वहीं, आरजेडी, कांग्रेस, उपेंद्र कुशवाहा की आरएलएसपी और दूसरे नेताओं के बीच समन्वय का अभाव साफ दिखाई दे रहा है. मिसाल के तौर पर 11 अप्रैल से मतदान शुरू होने के बाद से अब तक तेजस्वी यादव 6 दिन खराब सेहत या खराब हेलीकॉप्टर के नाम पर प्रचार अभियान नहीं किया. वहीं, तेजस्वी यादव के अलावा आरजेडी के एक्का-दुक्का नेता को ही प्रचार अभियान में जगह दिया जा रहा है.

लड़ाई अभी बाकी है

हालांकि, ज्यादातर चुनावी विश्लेषकों के मुताबिक अभी बिहार की असल चुनावी लड़ाई बाकी है. उनके मुताबिक अभी तक की लड़ाई जेडीयू और आरजेडी और कांग्रेस के बीच ही सीमित रही है. चौथे चरण से बीजेपी की लड़ाई में एंट्री हुई है. अगले तीन चरण में बीजेपी 21 में से 12 सीटों पर लड़ाई में है, तो आरजेडी 11 क्षेत्रों में टाल ठोंक रही है. इसीलिए अब इन दोनों के बीच असल लड़ाई की शुरुआत हुई है.

जेडीयू और रामविलास पासवान की एलजेपी को 7 और 2 सीटों पर मुकाबला करना है. वहीं, कांग्रेस और कुशवाहा की आरएलएसपी को अंतिम तीन चरण में 3-3, मुकेश सहनी की विकासशील इंसान पार्टी (वीआईपी) को दो और जीतनराम मांझी की हिंदुस्तानी अवाम मोर्चा को एक सीट पर लड़ना है. विश्लेषकों के मुताबिक पांचवें चरण के बाद लड़ाई निर्णायक स्थिति में पहुंच जाएगी, जहां आरजेडी और बीजेपी के बीच सीधा मुकाबला होगा. राज्य में अंतिम दो चरणों मे 16 सीटों पर मतदान होना है.

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