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मोदी के खिलाफ तेज बहादुर की उम्मीदवारी, अखिलेश-माया की है बहादुरी?

मोदी के खिलाफ तेज बहादुर, क्या वाकई अखिलेश बधाई के पात्र हैं?

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वाराणसी का मुकाबला फिर रोचक हो गया है. यहां प्रियंका गांधी और नरेंद्र मोदी के बीच सुपरहिट मुकाबला तो नहीं हुआ लेकिन अब समाजवादी पार्टी और बीएसपी गठबंधन ने इस बोरिंग बैटल में तड़का लगा दिया है. एसपी-बीएसपी गठबंधन ने यहां से अपनी उम्मीदवार शालिनी यादव को हटाकर बीएसएफ के पूर्व जवान तेज बहादुर को चुनाव मैदान में उतार दिया है. लेकिन मोदी को मिल रही इन चुनौतियों का कोई वजन है भी या नहीं? क्या इसे चुनौती का नाम देना भी सही है? एक घोषित उम्मीदवार को हटाकर अखिलेश-माया ने तेज बहादुर को सपोर्ट करने का जो फैसला किया है, उससे उन्हें कुछ हासिल भी होगा?

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पीएम मोदी अपनी चुनावी रैलियों में किसान और जवान का नाम सबसे ज्यादा लेते हैं. इन चुनावों में खासकर जवान उनकी जुबान पर बस गया है. ऐसे में अजीब विंडबना है कि तमिलनाडु के 111 और तेलंगाना के 50 किसानों समेत तेज बहादुर नाम का एक जवान ही उन्हें चुनावी मैदान में ललकार रहा है. बीएसएफ से बर्खास्त हो चुके तेज बहादुर यादव पीएम मोदी को पहले से ही चुनौती दे रहे थे. जब उन्होंने इसका एलान किया तो इसे 'चुनावी रंग' स्टाइल में सुर्खियां मिलीं. लेकिन अब जब गठबंधन ने तेज बहादुर पर अपनी मुहर लगा दी है, हर तरफ चर्चा हो रही है. पिछली  बार वाराणसी से मोदी के खिलाफ चुनाव लड़ने वाले केजरीवाल ने अखिलेश यादव को बधाई दी है.

एक त रफ मां भारती के लिए जान दांव पर लगाने और जवानों के हक की लड़ाई में अपनी नौकरी गंवाने वाला शख्स, दूसरी ओर जवानों की आवाज उठाने वाले की नौकरी छीनने और जवानों की लाशों पर वोट मांगने वाला शख्स
अरविंद केजरीवाल, संयोजक, AAP
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लेकिन क्या वाकई ये फैसला किसी बधाई के काबिल है? सच ये है कि आज भी वाराणसी में मोदी का मुकाबला सिर्फ मोदी से है.

अखिलेश या माया बधाई के पात्र तब होते तब किसी सीरियस कैंडिडेट को चुनाव मैदान में उतरते. और सीरियस कैंडिडेट कौन हो सकता था. बीजेपी के सबसे बड़े नेता के खिलाफ गठबंधन का सबसे कद्दावर नेता क्यों नहीं? माया या अखिलेश क्यों नहीं?

ये सही है कि तेज बहादुर को मजबूत बैकअप मिलने से चुनावी रैलियों के लिए विपक्ष को कुछ मसाला मिल जाएगा, कुछ जुमलों का जुगाड़ हो जाएगा कि देखिए मोदी जी जवान-जवान की रट लगाते हैं लेकिन एक जवान ही उन्हें चुनौती दे रहा है लेकिन इससे ज्यादा कुछ नहीं होने वाला. तेज की उम्मीदवारी प्रतीकात्मक संदेश देने के सिवा कुछ नहीं करेगी.

फ्रंट फुट पर क्यों नहीं खेलते?

भारतीय राजनीति का मैच निर्णायक मोड़ पर है. ये मौका फ्रंट फुट पर खेलने का था. तो तगड़े बैट्समैन उतरने चाहिए थे. कांग्रेस की ओर से भी यही गलती हुई. प्रियंका गांधी को वाराणसी से उतारने की चर्चा चली. खुद प्रियंका ने भी इस खबर को हवा दी लेकिन फिर हवा गुम हो गई. कांग्रेस ने ऐसे कैंडिडेट को चुनाव मैदान में उतारा, जो पिछली बार मोदी से बुरी तरह हार चुके हैं. ये सही है कि नरेंद्र मोदी को वाराणसी से  हराना मुश्किल है लेकिन ये भी सही है कि अगर विपक्ष मोदी को उनके ही किले में हराना चाहता है तो कोई तगड़ा उम्मीदवार चाहिए. आखिर डर के आगे ही जीत है. डर-डर के जीत नहीं मिलनी.

अतीक भी अखाड़े में

इस बीच एक डेवलपमेंट ये है कि बाहुबली नेता अतीक अहमद ने वाराणसी से पर्चा भर दिया है. जब उन्होंने वाराणसी से चुनाव लड़ने का एलान किया तो उनकी पार्टी प्रगतिशील समाजवादी पार्टी ने इसका खंडन किया. लेकिन अब अतीक निर्दलीय उम्मीदवार के तौर पर लड़ने जा रहे हैं. इसे भी शायद ही कोई चुनौती कहे. हां ये जरूर हो सकता है कि अतीक गठबंधन के कुछ वोट काट लें. खासकर मुस्लिम वोट. हालांकि अतीक की आमद के पीछे शुद्ध रूप से अतीक ही हों, कह नहीं सकते.

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