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बिहार में ‘साइलेंट’ नीतीश कुमार की हंगामेदार जीत की 5 वजहें

बिहार में NDA की जीत मोदी की जीत के तौर पर देखी जा रही हो, लेकिन किसी को छुपा रुस्तम कहा जाएगा तो वो हैं नीतीश.

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लोकसभा चुनाव में तमाम राजनीतिक पार्टियां नए नए नारे गढ़ रही थीं, जुबानी जंग तेज थी. चुनाव प्रचार में लालू के न होने की चर्चा थी, तो मोदी मैजिक चलेगा या नहीं, इस पर भी सवाल उठ रहे थे. लेकिन एक शख्स बयानबाजी, मीडिया के कैमरे और हेडलाइन तक से दूर रहे... वो हैं बिहार के सीएम नीतीश कुमार.

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मीडिया से लेकर हर किसी ने 'सुशासन बाबू' मतलब नीतीश कुमार के बारे में धारणा बना ली थी कि वे मोदी के बड़े चेहरे के पीछे कहीं छिप गए हैं. यहां तक ये कहा जाने लगा कि उनका करियर खत्म तक हो गया. लेकिन 2019 के चुनाव में साइलेंट होकर नीतीश कुमार की पार्टी 17 में से 16 सीटें जीत गई. मतलब प्रचंड जीत.

बिहार की 40 लोकसभा सीटों में बीजेपी-JDU ने क्रमश: 17-16 सीटें, जबकि रामविलास पासवान की लोक जन शक्ति पार्टी ने 6 सीटों पर कब्‍जा जमाया. इस तरह बिहार में एनडीए ने 40 से 39 सीटें जीत ली हैं.

ये जीत भले ही नरेंद्र मोदी की जीत के तौर पर देखी जा रही हो, लेकिन किसी को 'छुपा रुस्तम' कहा जाएगा, तो वो हैं नीतीश. आइए डालते हैं नजर, नीतीश के जीत के कारणों पर.

1. नीतीश की 'सुशासन बाबू' वाली छवि

बरकरार

साल 2005 में बिहार के विधानसभा चुनावों में बीजेपी और जेडीयू ने गठबंधन किया और वहीं से बिहार में एनडीए की मजबूती की कहानी शुरू हुई. पहली बार बिहार में नीतीश कुमार ने लालू प्रसाद यादव के मुस्लिम-यादव (MY) समीकरण को फेल करते हुए चुनाव जीता.

इस जीत के बाद नीतीश कुमार ने अपने काम के दम पर खुद की 'सुशासन बाबू' वाली छवि बना ली. सड़कों से लेकर प्राइमरी स्कूल और शराबबंदी जैसी चीजें वोटरों के बीच नीतीश को मजबूत बनाती गई.

2. वक्त पर माहौल भांप लेना, बीजेपी के साथ हो लेना

नीतीश कुमार को लेकर एक बात बार-बार उठती रही कि वे साथी बदलने में माहिर हैं, कभी बीजेपी, तो कभी धुर विरोधी रहे लालू का साथ. लेकिन इन साथ का फायदा नीतीश को हमेशा होता रहा. 2014 में नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री प्रोजेक्ट किये जाने पर नाराज नीतीश ने एनडीए का साथ छोड़ दिया था. इसका नतीजा भी उन्हें भुगतना पड़ा. 2014 लोकसभा चुनाव में नीतीश कुमार की पार्टी सिर्फ 2 सीटों पर ही जीत सकी थी.

लेकिन इस बार नीतीश सही समय पर माहौल भांप गए और बीजेपी के साथ हो लिए. भले ही नीतीश अकेले कभी भी बिहार की सत्ता में नहीं पहुंचे हों या लोकसभा में बहुत अच्छा नहीं कर पाए हों, लेकिन जीत और सीट बढ़ाने के लिए सही साथी की पहचान ने उनकी राजनीतिक समझ का परिचय दे दिया.
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3. लालू परिवार के व्यक्तिगत हमलों पर नीतीश की खामोशी

2015 विधानसभा चुनाव में नीतीश कुमार लालू यादव के साथ मिलकर चुनाव लड़े और जीते भी. लेकिन ये दोस्ती 20 महीने भी नहीं चली. नीतीश कुमार ने फिर दोबारा बीजेपी के साथ मिलकर सरकार बनाई. इसका नतीजा ये हुआ कि लालू यादव से लेकर उनके परिवार के हर व्यक्ति ने नीतीश कुमार के लिए 'पलटू चाचा', ‘धोखेबाज’, ‘विश्वासघाती’ जैसी तमाम बातें कहीं, लेकिन नीतीश कुमार ने इन सब का जवाब इस तरह के शब्दों में नहीं दिया.

अभी हाल ही में तेजस्वी यादव का ट्वीट बता रहा है कि किस तरह उनकी पार्टी और उन्होंने नीतीश कुमार पर हमला बोल रखा था.

हालांकि नीतीश ने राजनीतिक अटैक कम नहीं किया, कभी आरजेडी के निशान ‘लालटेन’ पर कटाक्ष किया, तो कभी लालू के जेल जाने पर. लेकिन व्यक्तिगत टिप्पणी से नीतीश बचते दिखे.

4. जाति की राजनीति से खुद को रखा दूर

नीतीश ने जाति आधारित राजनीति को हावी नहीं होने दिया. नीतीश कुमार कुर्मी समाज से आते हैं, जो बिहार में करीब 4 फीसदी हैं. लेकिन उन्‍होंने खुद को इस जात-पांत वाली छवि से दूर रखने की कोशिश की. इसके उलट इनके विरोधी आरजेडी जातीय समीकरण में उलझी दिखी. ये माना जा सकता है कि इसका फायदा नीतीश की पार्टी को मिला. वह 17 में से 16 सीटें जीतने में कामयाब रही.

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5. ब्रांड मोदी

नीतीश कुमार की जीत का श्रेय उनको भले ही जाए, लेकिन 'ब्रांड मोदी' ने उनकी काफी मदद की. पीएम मोदी जब जब बिहार आए, वो नीतीश कुमार की जमकर तारीफ करते. नीतीश कुमार भी मोदी की तारीफ कर उनके वोटरों को लुभाने में पीछे नहीं रहे. यही वजह थी कि नीतीश कुमार वापसी करने में कामयाब रहे.

नीतीश की इस हंगामेदार जीत ने उनके साइलेंट रहने की कहानी बती दी है कि वो किस तरह पर्दे के पीछे से अपनी जीत पक्की कर रहे थे.

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