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चुनाव में कोई लहर नहीं?3 राज्यों में चंबल की 6 सीट तो यही कहती हैं

चंबल के इलाकों में चुनावी मुद्दे, स्थानीय मुद्दे हैं, जिनमें जातिगत समीकरणों का बोलबाला है.

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“चंबल पार करते ही मोदी लहर खत्म हो जाती है.” मध्य प्रदेश में मुरैना के मनीष कुमार बड़े नाटकीय अंदाज में कहते हैं. चंबल नदी के एक ओर दक्षिण-पूर्वी राजस्थान के धौलपुर, करौली और सवाई माधोपुर जिले हैं और दूसरी ओर मध्य प्रदेश के उत्तरी जिले, जैसे मुरैना और शिवपुर.

चंबल नदी के साथ धौलपुर से मुरैना के बीच 28 किलोमीटर की यात्रा करनी पड़ती है. 28 किलोमीटर की यात्रा में कई मशहूर बीहड़ों का सामना होता है. लेकिन बीहड़ बदलने के साथ राजनीतिक रुझान भी बदल जाते हैं.

राजस्थान की फिजां में मोदी फैक्टर की सियासी नैरेटिव महसूस हुई, लेकिन मध्य प्रदेश की सीमा में घुसते ही ये नैरेटिव गोल हो गई.

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चंबल इलाका इस सोच की बेहतरीन मिसाल है, कि 2019 लोकसभा में कोई लहर काम नहीं कर रही. यहां के चुनावी मुद्दे, स्थानीय मुद्दे हैं, जिनमें जातिगत समीकरणों का बोलबाला है.

एक नजर डालते हैं तीन राज्यों में पड़ने वाले चंबल के 6 सीटों पर. राजस्थान में भरतपुर, करौली-धौलपुर, मध्य प्रदेश में मुरैना, भिंड और ग्वालियर साथ ही उत्तर प्रदेश में इटावा.

भरतपुर

इस सीट पर मोदी फैक्टर सबसे ज्यादा दिखा. कई वोटरों का कहना था कि पिछले साल उन्होंने कांग्रेस को वोट दिया था, जिसकी खास वजह राज्य में वसुंधरा राजे की अगुवाई में बीजेपी सरकार से नाराजगी थी. लेकिन उन वोटरों की योजना लोकसभा चुनाव में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अगुवाई वाली बीजेपी को ही वोट देने की थी.

वोटरों के साथ बातचीत में पुलवामा आतंकी हमला और बालाकोट हवाई हमले का असर साफ दिखा, जिसके लिए कई लोगों ने पीएम मोदी की प्रशंसा की. लेकिन जिला मुख्यालय से छोटे शहरों और गांवों की ओर रुख करते ही मोदी फैक्टर फीकी पड़ गई.

दलित और जनजातीय वोटरों में भी बीजेपी के प्रति उत्साह की कमी दिखी. इस सीट पर कांग्रेस की उम्मीद दलित और मुस्लिम वोटरों पर टिकी है.

भरतपुर में दलित वोटरों की तादाद 22 फीसदी और मुस्लिम वोटर 14 फीसदी हैं. हालांकि इस सीट पर जाट वोटरों की आबादी करीब 25-30 फीसदी है, जिनका झुकाव पूरी तरह बीजेपी की ओर है.

दलित वोट भी बंट सकते हैं. बीजेपी ने कोली समाज की रंजीता कोली को टिकट दिया है, जबकि कांग्रेस ने जाटव उपजाति के अभिजीत कुमार जाटव को खड़ा किया है. यहां बहुजन समाज पार्टी (BSP) को विधानसभा चुनाव में 13 फीसदी वोट मिले थे. BSP उम्मीदवार भी जाटव समुदाय का है, जो कांग्रेस उम्मीदवार को नुकसान पहुंचा सकता है.

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करौली-धौलपुर

भरतपुर से तुलना करें, तो करौली-धौलपुर में मोदी फैक्टर कुछ कमजोर दिखता है. ये सीट ग्रामीण बहुल है. कई वोटरों का कहना है कि इस सीट पर कांग्रेस उम्मीदवार के जीत की संभावना ज्यादा है. यहां कांग्रेस की उम्मीदें दलित, जनजातीय और मुस्लिम वोटरों पर हैं, जिनकी आबादी 22 फीसदी, 14 फीसदी और 6 फीसदी है.

बीजेपी को जाट समुदाय और कुछ सवर्ण वोटरों से उम्मीद है. हालांकि इन वोटरों ने विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को वोट दिया था, लेकिन लोकसभा चुनाव में प्रधानमंत्री मोदी के नाम पर बीजेपी को वोट देंगे. लेकिन विधानसभा चुनावों से तुलना की जाए, तो बीजेपी को भरतपुर सीट की तुलना में करौली-धौलपुर सीट पर ज्यादा स्विंग वोटों की जरूरत पड़ेगी.

इस लोकसभा सीट में आठ विधानसभा सीट पड़ते हैं. सभी सीटों को जोड़ने पर कांग्रेस को यहां 47 फीसदी वोट मिले थे, जो बीजेपी से 12 फीसदी ज्यादा थे. उधर बीएसपी को भी 12 फीसदी वोट मिले थे.

अक्सर देखा गया है कि विधानसभा चुनाव की तुलना में लोकसभा चुनाव में बीएसपी के वोटों में कमी आती है. लिहाजा ये वोट कांग्रेस के समर्थन में जा सकते हैं, जिसे इस सीट पर बढ़त मिल सकती है. भरतपुर की तरह करौली-धौलपुर सीट भी अनूसूचित जाति के लिए सुरक्षित है.

कांग्रेस ने यहां भी जाटव समुदाय के उम्मीदवार संजय कुमार जाटव को टिकट दिया है, जबकि बीजेपी ने वर्तमान सांसद मनोज रजोरिया को अपना उम्मीदवार बनाया है. मनोज कम आबादी वाले खटीक समुदाय से आते हैं.

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मुरैना

धौलपुर में नदी के दूसरी ओर मुरैना है. जैसा मनीष कुमार ने कहा कि जैसे ही आप चंबल नदी पार करते हैं, मोदी लहर थम जाती है, उसी तर्ज पर इस संसदीय सीट के कई वोटरों ने बताया कि यहां मोदी फैक्टर नहीं है.

मुरैना पिछले दो दशकों से बीजेपी का गढ़ रहा है. पार्टी को यहां 1996 से लगातार जीत मिलती आई है. मध्य प्रदेश में बीजेपी का एक प्रमुख दलित चेहरा अशोक अरगल ने इस सीट से चार बार जीत हासिल की है.

लेकिन 2009 चुनावों से पहले मुरैना सामान्य सीट बन गया, जिसपर बीजेपी के नरेन्द्र तोमर ने कब्जा जमाया. 2014 में तोमर ग्वालियर चले गए और मुरैना से अनूप मिश्रा को जीत मिली. मोदी सरकार में मंत्री रह चुके तोमर इस बार फिर मुरैना सीट से अपनी किस्मत आजमा रहे हैं. उनकी टक्कर कांग्रेस के राम निवास रावत से है.

अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निरोधक) अधिनियम, 1989 (Prevention of Atrocities Act) को लेकर ग्वालियर और भिंड के अलावा मुरैना भी जाति आधारित संघर्ष का केंद्र था. सवर्ण जाति इस अधिनियम को हटाने के लिए संघर्ष कर रहे थे, तो दलितों का आंदोलन इस अधिनियम के पक्ष में था. इससे विधानसभा चुनाव में बीजेपी को नुकसान पहुंचा और दोनों ही वर्ग बीजेपी के खिलाफ हो गए. लोकसभा चुनाव में भी जाति एक मुख्य आधार हो सकती है, लेकिन बदलाव के साथ.

विधानसभा चुनाव में सवर्णों के एक बड़े तबके ने बीजेपी के बजाय कांग्रेस और नई पार्टी सामान्य, पिछड़ा वर्ग एवं अल्पसंख्यक कल्याण समाज (सपाक्स) पार्टी को वोट दिया था. ये तबका वापस बीजेपी खेमे में पहुंच सकता है.

मुरैना की सीट पर ठाकुरों की संख्या करीब 15 फीसदी है, जो बीजेपी के तोमर को समर्थन दे सकते हैं. तोमर खुद ठाकुर हैं. सवर्ण वोटरों की संख्या करीब 30 फीसदी है, जिनमें ज्यादातर बीजेपी के समर्थन में जा सकते हैं. दूसरी ओर, कांग्रेस दलितों पर निर्भर है. इस सीट पर उनकी तादाद करीब 20 फीसदी है. इसके अलावा कांग्रेस की उम्मीदें मुस्लिम, जनजातीय और रावत जैसे छोटे पिछड़े समुदायों पर टिकी हैं, जिनकी कुल आबादी करीब 15 फीसदी है.

कांग्रेस के लिए मुश्किलें

कांग्रेस की राह में एक बड़ा रोड़ा BSP है, जिसे विधानसभा चुनाव में 18 फीसदी वोट मिले थे. BSP की सेंध के अलावा कांग्रेस को दूसरा झटका उम्मीदवार के चयन के कारण लग सकता है. पार्टी ने यहां से मजबूत उम्मीदवार रामलखन सिंह को हटाकर करतार सिंह भडाना को टिकट दिया है.

जाति से ठाकुर, रामलखन, तोमर के वोट काट सकते थे. लेकिन OBC गुज्जर समुदाय के भडाना से रावत वोटों का ज्यादा नुकसान हो सकता है. फिर भी विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को 10 फीसदी की भारी बढ़त हासिल हुई थी, लिहाजा बीजेपी के लिए अपनी उम्मीदों को परवान चढ़ाने के लिए भारी स्विंग की जरूरत है.

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ग्वालियर

शहरी इलाका होने के बावजूद ग्वालियर में बीजेपी के खिलाफ भारी एंटी इंकम्बेंसी फैक्टर दिख रही है. मौजूदा सांसद तोमर, मुरैना से किस्मत आजमा रहे हैं और बीजेपी ने यहां से विवेक नारायण शेजवलकर को अपना उम्मीदवार बनाया है. शेजवलकर ग्वालियर स्थित मराठी समुदाय से हैं, जिनकी तादाद काफी है.

दूसरी ओर, कांग्रेस के उम्मीदवार अशोक सिंह हैं, जिन्होंने 2014 के चुनाव में तोमर को कड़ी टक्कर दी थी. अशोक सिर्फ 29,000 वोटों से हारे थे. कुल मिलाकर इस बार अशोक सिंह की जीत की संभावनाएं ज्यादा हैं.

कांग्रेस ने पिछले साल इस सीट पर पड़ने वाले आठ विधानसभा सीटों में से 7 पर जीत हासिल की थी. सभी सीटों के वोट जोड़ दिये जाएं तो कांग्रेस को बीजेपी से 10 फीसदी ज्यादा वोट मिले थे. BSP, मुरैना की तरह इस सीट पर भी कांग्रेस का खेल खराब कर सकती है. विधानसभा चुनाव में उसे 14 फीसदी वोट मिले थे.

लेकिन मुरैना की तरह ग्वालियर में भी मोदी फैक्टर फीका दिखा. दोनों सीटों के कई वोटरों का मानना था कि मोदी इस बार सत्ता से बेदखल हो सकते हैं. ये सोच राजस्थान के भरतपुर जैसी सीटों में मोदी को “अपराजेय” मानने की सोच से बिलकुल विपरीत है. आखिरी बार कांग्रेस को 2004 में इस सीट पर जीत हासिल हुई थी.

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भिंड

कुछ ही सीट हैं, जो मध्य प्रदेश की सुरक्षित सीट भिंड की तरह कांग्रेस के जातीय समीकरण का गणित बताते हैं. यहां से पार्टी ने 28 साल के युवा दलित एक्टिविस्ट देवाशीष जरारिया को टिकट दिया है. देवाशीष ने पिछले साल अप्रैल में Atrocities Act हटाने के खिलाफ भिंड में भारत बंद की अगुवाई की थी.

पिछले तीन दशकों से बीजेपी के गढ़ में सेंध लगाने के लिए कांग्रेस ने दलित नेता पर भरोसा किया है. ये सीट 1989 से लगातार बीजेपी के कब्जे में रही है.

सुरक्षित सीट होने के बावजूद भिंड सवर्णों और खासकर ठाकुरों के जंग का मैदान बनता दिख रहा है. ये हालत कांग्रेस और बीजेपी दोनों ही खेमे में देखने को मिल रही है.

जरारिया को अपनी ही पार्टी में बगावत का सामना करना पड़ा था. पार्टी के सीनियर नेताओं ने उनकी उम्मीदवारी का विरोध किया था. लेकिन बताया जा रहा है कि मुख्यमंत्री कमलनाथ और सीनियर नेता दिग्विजय सिंह तथा ज्योतिरादित्य सिंधिया के दखल देने के बाद बागी शांत हो गए हैं.

बीजेपी उम्मीदवार संध्या राय की अलग परेशानियां हैं. उन्हें नरेन्द्र सिंह तोमर के उम्मीदवार के तौर पर देखा जा रहा है. इसके अलावा उनपर बीजेपी में अपने प्रतिद्वंदी अशोक अरगल को किनारे कर बीजेपी पर कब्जा करने की कोशिश के भी आरोप लग रहे हैं. राय को तोमर के समर्थन के कारण एक और प्रतिद्वंदी और अतर के विधायक अरविंद सिंह भदोरिया ने भी विरोध में कमर कस लिया है.

जरारिया पर रैडिकल होने का आरोप लगाकर बीजेपी पूरी तरह सवर्ण वोटों पर निर्भर है. कांग्रेस उम्मीदवार ने पहले ही बीजेपी उपाध्यक्ष विनय सहस्रबुद्धे पर मानहानि का मुकदमा ठोक रखा है. सहस्रबुद्धे पर जरारिया को “देशद्रोही” कहने का आरोप है.

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इटावा

राजस्थान और मध्य प्रदेश की तरह चंबल नदी, मध्य प्रदेश के भिंड जिले और उत्तर प्रदेश के इटावा जिले को भी अलग करती है. भिंड और इटावा के बीच 40 किलोमीटर की दूरी में बीहड़ों में भी बदलाव आता है. चंबल के किनारे पड़ने वाले सूखे बीहड़ यमुना नदी पार कर उत्तर प्रदेश का उपजाऊ दोआब इलाका आते ही हरे भरे हो जाते हैं. इसके साथ ही सियासी आबोहवा भी बदल जाती है. मध्य प्रदेश में बीजेपी vs कांग्रेस की जंग उत्तर प्रदेश में बीजेपी vs महागठबंधन की जंग में तब्दील हो जाती है.

इटावा की ज्यादातर जनता शहर में ढांचागत कामों को मुलायम सिंह यादव और अखिलेश यादव की देन मानती है. यादव परिवार इटावा के सैफई का रहने वाला है, लेकिन परिवार का ज्यादातर प्रभाव मैनपुरी संसदीय क्षेत्र में है. नतीजा ये है कि इटावा सीट पर सवर्णों की भूमिका अहम है और यही बीजेपी के पक्ष में है.

इटावा के सवर्णों में मोदी फैक्टर मजबूत है, लेकिन दूसरे समुदायों में नहीं.

यहां बीजेपी और महागठबंधन – दोनों ने ही धनुक दलित समुदाय से उम्मीदवार खड़े किये हैं. अनूसूचित जाति के लिए सुरक्षित सीट से बीजेपी के राम शंकर कठेरिया के खिलाफ समाजवादी पार्टी के कमलेश कठेरिया चुनाव लड़ रहे हैं. उधर कांग्रेस ने बीजेपी के वर्तमान सांसद अशोक दोहरे को टिकट दिया है, जिन्होंने हाल ही में कांग्रेस का हाथ पकड़ा है. जाटव समुदाय से होने के कारण दोहरे BSP के जाटव वोट बैंक में सेंध लगा सकते हैं.

समाजवादी पार्टी का गणित जाटव, यादव और मुस्लिम के अलावा गैर-जाटव दलित समुदाय के एक वर्ग को अपनी छतरी के नीचे लाना है. बीजेपी की उम्मीदें सवर्ण वोट, गैर-यादव OBC वोट और गैर-जाटव दलित वोट पर टिकी हैं. उधर कांग्रेस को उम्मीद है कि जाटव समुदाय में दोहरे को समर्थन, कुछ सवर्णों में पार्टी का समर्थन और मुस्लिम समुदाय के वोटों से वो रेस में बनी रह सकती है.

इटावा सीट BSP सुप्रीमो मायावती की भी अग्निपरीक्षा है. क्या वो जाटव वोटों को SP उम्मीदवार के समर्थन में ट्रांसफर कर पाती हैं? क्या उन्हें गैर-जाटव वोटों का समर्थन मिलता है? इटावा में अनुसूचित जाति को वोटों की संख्या करीब 25 फीसदी है.

इटावा में 29 अप्रैल को, चौथे चरण में वोटिंग हुई है.

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पूरी तस्वीर

  • मोदी फैक्टर मौजूद है और राष्ट्रीय सुरक्षा भी एक मुद्दा है, लेकिन स्थानीय एंटी इंकम्बेंसी और जातिगत समीकरण उनपर हावी हैं.
  • ये मुद्दे सवर्णों और शहरी इलाकों में रहने वाले कुछ OBC समुदाय को प्रभावित करते हैं. लेकिन जिला मुख्यालयों से छोटे शहरों और गांवों की ओर रुख करने पर ये मुद्दे कमजोर पड़ जाते हैं.
  • राजस्थान में और खासकर भरतपुर में मोदी ज्यादा लोकप्रिय हैं. लेकिन मुरैना, भिंड और यहां तक कि इटावा में कई वोटरों का मानना है कि बीजेपी को चुनाव में भारी नुकसान हो सकता है. ये भी मुमकिन है कि मोदी सत्ता में न लौटें. “आएगा तो मोदी ही”, ये नारा काम नहीं कर रहा.
  • मध्य प्रदेश और राजस्थान के जनजातीय और दलित बहुल इलाकों में कांग्रेस को कुछ मजबूती मिली है. शहरी इलाकों से बाहर निकलने पर कांग्रेस के लिए समर्थन मजबूत होता दिखता है. लेकिन इसकी वजह बीजेपी से नाराजगी है, न कि कांग्रेस का नेतृत्व. लोगों ने कांग्रेस की NYAY के बारे में सुना जरूर है, लेकिन वोटिंग पैटर्न पर इसका असर दिखना अभी बाकी है. युवा वर्ग के अलावा दूसरा वर्ग कांग्रेस को ज्यादा तवज्जो दे रहा है.
  • पूरे इलाके में जाति की भूमिका अहम है. सभी सीटों पर सवर्ण वोट बीजेपी के पक्ष में दिख रहे हैं, जबकि दलितों में पार्टी के खिलाफ असंतोष साफ नजर आ रहा है.
  • सभी राज्यों और सभी जातिगत समुदायों के किसानों में बीजेपी के खिलाफ असंतोष है. लेकिन इस असंतोष को जाति आधारित फैक्टर आकार दे रहे हैं. सवर्ण और जाट किसान खेती की परेशानियों को OBC और दलितों की तुलना में ज्यादा नजरंदाज कर रहे हैं.

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