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'Mrs Undercover' रिव्यू: राधिका आप्टे की एक्टिंग दमदार, लेकिन कहानी में खामियां
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'Mrs Undercover' रिव्यू: राधिका आप्टे की एक्टिंग दमदार, लेकिन कहानी में खामियां

फिल्म गृहिणियों द्वारा रोज किए जा रहे अनपेड लेबर को ग्लोरीफाई करने की कैटेगरी में आ गिरती है.

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Mrs Undercover

केवल राधिका आप्टे की वजह से देखने लायक है फिल्म 'मिसेज अंडरकवर'

एक गृहिणी और 'स्पेशल फोर्स' एजेंट, दुर्गा को एक सीरियल किलर को ढूंढने और गिरफ्तार करने का काम दिया गया है, जो कामयाब औरतों को निशाना बनाता है.

मूर्खतापूर्ण, नासमझ सिनेमा से कोई दिक्कत नहीं है – ये अक्सर बेहद एंटरटेनिंग हो सकता है. कॉमेडी और हॉरर सिनेमा के ऐसे ही जॉनर हैं, जिसके साथ काम करना अक्सर मुश्किल माना जाता है.

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अनुश्री मेहता के डायरेक्शन में बनीं 'मिसेज अंडरकवर' (Mrs Undercover) पितृसत्ता के भयावह प्रभाव के बारे में कमेंट्री के लिए एक अच्छा आधार है, लेकिन एग्जीक्यूट करने में ये फिल्म फेल हो जाती है. हालांकि, हम फिल्म की लीड की कोई आलोचना नहीं कर रहे हैं.

दुर्गा के रोल को पूरी शिद्दत से निभाने में राधिका आप्टे कोई कसर नहीं छोड़तीं. दुर्गा कोलकाता में रहने वाली एक गृहिणी है, जिसे उसकी टीम ने छोड़ दिया था और (काफी हद तक) एक खराब शादी में फंस गई है.

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भावुक सीन में वो आपको रुला देंगी, और कॉमेडी सीन में अपनी कॉमिक टाइमिंग से आपके चेहरे पर हंसी भी ला देंगी.

दुर्गा के पति, देब के रोल में साहेब चैटर्जी ने अच्छा काम किया है. फिल्म की पूरी ही स्टारकास्ट का काम अच्छा है. उन सभी ने अपने हिस्से के रोल को अपना पूरा दिया है.

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शुरुआत से ही, फिल्म पितृसत्ता से बचने की कोशिश कर रही महिलाओं पर फोकस करती है. उनके विरोधी का नाम 'कॉमन मैन' है – फिल्म में ये एक हिंसक मिसॉजिनिस्ट (महिलाओं से नफरत करने वाला) ग्रुप है.

'कॉमन मैन' के रूप में सुमित व्यास जो बातें कहते हैं, वो आए दिन ट्विटर पर सुनने को मिल जाती हैं. ये 'ग्रुप' इस बात से नफरत करता है कि महिलाएं काम कर रही हैं और दूसरी महिलाओं को आजाद करने में मदद कर रही हैं. कहानी हकीकत के करीब लगती है न?

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एक सीरियल किलर के रोल में सुमित व्यास काफी प्रभावी हैं और उनका किरदार बॉलीवुड के इस आइडिया को चैलेंज करता है कि विलेन पहले लुक में अक्सर 'अजीब' दिखते हैं. गली-मोहल्ले में रहने वाले किसी दूसरे आम शख्स की तरह दिखने वाला ये शख्स ऐसे अपराध भी कर सकता है, ये बात और डराने वाली लगती है.

अपना घर चलाने के लिए दुर्गा दिनभर काम करती है और अक्सर थकी हुई दिखती है, लेकिन उसके आस-पास के लोगों को लगता है कि ये कोई काम ही नहीं है.

फिल्म के पास एक अच्छा आधार था, लेकिन स्क्रिप्ट ने उसके साथ न्याय नहीं किया. इस प्लॉट में व्यंग्य और कमेंट्री करने की गुंजाइश थी.

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फिर भी, फिल्म गृहिणियों द्वारा रोज किए जा रहे अनपेड लेबर को ग्लोरीफाई करने की कैटेगरी में आ गिरती है. 'औरत के दास हाथ होते हैं' – ये बयानबाजी पुरानी हो चुकी है और साफतौर पर काफी खतरनाक है.

महिलाओं को अक्सर एक साथ कई काम करने के लिए मजबूर होना पड़ता है और लोग अक्सर इस लाइन का इस्तेमाल इसे सही ठहराने के लिए करते हैं.

फिल्म में 'हाउसवाईफ' शब्द का इस्तेमाल इतनी बार किया गया है कि ऐसा लगने लगता है कि फिल्म ऑडियंस पर यकीन नहीं करती कि वो ये समझ पाए कि फिल्म क्या कहना चाह रही है.
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फिल्म एंटरटेनिंग है, लेकिन स्क्रिप्ट और टाइट हो सकती थी. ऐसा लगता है कि स्क्रिप्ट में थ्रिलर की समझ नहीं है और इसमें कई खामियां दिखाई देती हैं. अगर स्पेशल फोर्स को एक 'कॉमन मैन' नाम के संगठन की जांच करने का काम सौंपा गया है, तो टास्क का नेतृत्व करने वाला रंगीला पूरे कोलकाता में इसपर क्यों बात कर रहा है?

डीओपी अभिमन्यु सेनगुप्ता ने कोलकाता को अच्छे से कैमरे में कैद किया है, लेकिन जहां एक्शन सीन की बात आती है तो कैमरा कैप्चर करने से ज्यादा हिलता है.

दुर्गा के रूप में, राधिका आप्टे फिल्म को बचाने की पूरी कोशिश करती हैं और काफी हद तक कामयाब भी होती हैं. वही कारण हैं कि फिल्म को एक बार देखा जा सकता है.

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