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Agnipath प्रदर्शन हिंसक क्यों हुआ? रोजगार पर उठ रहा था धुआं,अग्निपथ ने भड़काई आग

Agnipath Protests: रोजगार के अवसर कम होते जा रहे हैं, यूथ लगातार प्रदर्शन कर रहे थे लेकिन उन्हें नजरअंदाज किया गया

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अग्निपथ योजना (Agnipath scheme) के खिलाफ विरोध प्रदर्शन (protests against the Agnipath) आश्चर्य की बात नहीं है. जिस हिसाब से विरोध प्रदर्शन हो रहा है, आश्चर्य उस बात में है. कम से कम 14 राज्यों में विरोध प्रदर्शन हुए हैं, वहीं कई जगहों से हिंसा की खबरें आ रही हैं. तेलंगाना के सिकंदराबाद में हुई हिंसा में एक व्यक्ति की मौत भी हो गई. प्रदर्शनकारियों ने ट्रेनों और बसों में आगजनी की. इसके अलावा बिहार के नवादा और मधेपुरा जैसी जगहों पर बीजेपी कार्यालयों पर हमले भी किए गए. ऐसे में, विरोध की तीव्रता और पैमाने से क्या पता चलता है? इसके तीन पहलू हैं.

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सेना भर्ती का महत्व और अग्निपथ से इसे कैसा खतरा है?

हम योजना की अच्छाई व बुराई की बात नहीं करेंगे. इस नीति के फायदे और नुकसान के बारे में लेफ्टिनेंट जनरल (सेवानिवृत्त) भोपिन्दर सिंह और क्विंट के संस्थापक राघव बहल ने अपने आर्टिकल में बखूबी विचार रखे हैं. आप उन आर्टिकल को पढ़ सकते हैं.

इन सबके बजाय, आइए इस बात पर ध्यान दें कि जो युवा इसका विरोध कर रहे उनके लिए सेना की नौकरी का वास्तव में क्या मतलब है?

जवान स्तर की भर्ती के लिए छोटे शहरों और गांवों से काफी अधिक संख्या में आवेदन आते हैं.

सेना की स्थायी नौकरी और इसके साथ मिलने वाले लाभों और प्रतिष्ठा को किसी अन्य करियर विकल्प के तौर पर नहीं देखा जाता है. सेना की स्थायी नौकरी को एक ऐसी उपलब्धि के रूप में देखा जाता है जिससे रातों-रात एक परिवार की किस्मत बदल सकती है.

उस उम्र के एक नौजवान के लिए यह एक ऐसा माध्यम है जिसके द्वारा वह अपने माता-पिता की बुढ़ापे में सहायता कर सकता है. अपने भाई-बहनों की शिक्षा और शादी का ख्याल रख सकता है और खुद का भविष्य सुरक्षित कर सकता है. कई मामलों में व्यक्ति की अपनी शादी की संभावनाओं में इससे मिलने वाला एक बड़ा बढ़ावा भी शामिल है.

स्वाभाविक तौर पर कोई भी परिवार अपनी बेटी की शादी ऐसे व्यक्ति से करने के इच्छुक होंगे, जिसके पास सेना में स्थायी नौकरी है. जो सुरक्षित व सम्मानजनक है और इसके साथ मिलने वाले फायदे हैं.

स्पष्ट तौर पर सेना में जाने की तैयारी करने वाले इन नौजवानों के लिए सेना की भर्ती भाग्य में बदलाव व बेहतर और इससे भी महत्वपूर्ण रूप से हर तरह से सुरक्षित भविष्य की आशा को दर्शाती है. और यही आशा उन्हें परीक्षा के लिए 3-4 साल की तैयारी के लिए और मानकों को पूरा करने के लिए कठिन शारीरिक प्रशिक्षण से गुजरने के लिए प्रेरित करती है.

सुरक्षा की यही उम्मीद अग्निपथ योजना से तबाह हो जाती है. हां, तैयारी करने वाले इस बात से अवगत हैं कि उनके पास स्थायी पद पाने का चार में से एक मौका है.

लेकिन सच यह है कि भर्ती से उनकी परेशानियों का अंत नहीं होगा, एक भयानक आशंका यह है कि उन्हें चार साल बाद वापस वहीं धकेला जा सकता है जहां से वे आए थे.

अग्निपथ योजना के खिलाफ नाराजगी का एक प्रमुख कारण यही डर और उनके परिवारों के सुरक्षित भविष्य के मार्ग को ब्लॉक करना है.

Agnipath से पहले क्या हो रहा था

सेना में नौकरी की आकांक्षा रखने वाले पिछले एक-दो महीने से कुछ जगहों पर विरोध प्रदर्शन कर रहे थे. सेना में जाने की तैयारी करने वाले नौजवानों ने मई में केंद्र सरकार से सेना भर्ती प्रक्रिया को फिर से शुरू करने की मांग को लेकर हरियाणा में विरोध प्रदर्शन शुरू कर दिया था. सेना भर्ती के लिए आयु सीमा पार करने के बाद भिवानी में एक एस्पिरेंट्स ने कथित तौर पर आत्महत्या कर ली थी जिससे उसकी मौत हो गई.

संसद में केंद्रीय रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने कहा कि महामारी के कारण प्रक्रिया रुकी हुई थी. अग्निपथ योजना के साथ एस्पिरेंट्स यह डर सच साबित हो गया है कि सरकार भर्ती प्रक्रिया में छेड़छाड़ कर रही है.

रोजगार के सिकुड़ते अवसर

सेंटर फॉर मॉनिटरिंग द इंडियन इकनॉमी (CMIE) द्वारा जारी आंकड़ों के मुताबिक, भारत की कार्यबल भागीदारी दर (workforce participation rate) जनवरी-अप्रैल 2016 में 47 प्रतिशत से गिरकर मई 2022 में 39.9 प्रतिशत हो गई. इसका मतलब है कि नौकरी की तलाश करने वाले भारतीयों की संख्या काफी कम है, ऐसा अक्सर होता है. क्योंकि उन्हें उचित नौकरी मिलने की कोई उम्मीद नहीं है.

रोजगार दर जनवरी-अप्रैल 2016 में 42.8 प्रतिशत से गिरकर मई 2022 में 37.07 प्रतिशत हो गई है. कुल मिलाकर जनवरी-अप्रैल 2016 में 15 वर्ष से अधिक आयु के 41.2 करोड़ लोगों को रोजगार मिला, जबकि मई 2022 में यह आंकड़ा 40.4 करोड़ रहा.
  • इंडियन एक्सप्रेस के एक आर्टिकल के मुताबिक जहां कुल कामकाजी उम्र की आबादी में 12 करोड़ की वृद्धि हुई है, वहीं कार्यरत लोगों की संख्या में लगभग 80 लाख की कमी आई है.

  • यह अंदाजा लगाने के लिए हालात कितने बुरे हैं ये समझिए-अगर 42.8 प्रतिशत की समान रोजगार दर मई 2022 तक जारी रहती, तो हमें लगभग 46.6 करोड़ लोगों को रोजगार मिलना चाहिए था. इसके बजाय हमारे पास 40.4 करोड़ हैं, इसमें लगभग 6 करोड़ का अंतर है.

  • इसमें कोई संदेह नहीं है कि 2020 की काेविड-19 लहर व लॉकडाउन और 2021 की कोविड-19 लहर के कारण कफी नुकसान हुआ. ये ऐसे कारक रहे जो पूरी तरह से केंद्र सरकार के नियंत्रण में नहीं थे. लेकिन नरेंद्र मोदी सरकार के नोटबंदी और जीएसटी के फैसलों से इसे भी नुकसान पहुंचा था.

  • COVID-19 से ठीक पहले जनवरी-अप्रैल 2020 में भी श्रम बल (लेबर फोर्स) की भागीदारी दर लगभग 41 प्रतिशत थी, जो अब की तुलना में थोड़ी बेहतर है और रोजगार दर भी लगभग 37 प्रतिशत थी, जो वर्तमान की रोजगार दर के समान है.

तो हां,कोविड-19 ने नुकसान पहुंचाया और उसके बाद चीजें थोड़ी ठीक हुईं, लेकिन हमें यह स्वीकार करना चाहिए कि 2016 और 2020 की शुरुआत के बीच, श्रम बल की भागीदारी और रोजगार दरों में कुछ गिरावट पहले ही हो चुकी थी और यह काफी हद तक मोदी सरकार की आर्थिक नीतियों के कारण है.
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  • देश में रोजगार की बिगड़ती स्थिति और निजी क्षेत्र में घटते अवसरों को देखते हुए सरकारी नौकरियों को ही एकमात्र रास्ता माना जाता है और यही कारण है कि सरकारी नौकरियों की मांग कई गुना बढ़ गई है.

  • अग्निपथ योजना के खिलाफ चल रहा विरोध प्रदर्शन देश में सरकारी नौकरी के एस्पिरेंट्स का पहला विरोध नहीं है. पिछले कुछ वर्षों में कई विरोध प्रदर्शन हुए हैं.

  • उदाहरण के लिए, जनवरी 2022 में रेलवे में नौकरी की इच्छा रखने वालों ने रेलवे द्वारा आयोजित नॉन टेक्निकल पॉपुलर कैटेगरी (NTPC) परीक्षा में विसंगतियों का आरोप लगाते हुए प्रयागराज में विरोध प्रदर्शन किया.

  • उत्तर प्रदेश में पिछले साल लोगों ने सरकार से सरकारी स्कूल शिक्षकों की भर्ती फिर से शुरू करने की मांग को लेकर विरोध प्रदर्शन किया था.

  • पंजाब में पिछले साल इस तरह के कई विरोध प्रदर्शन हुए हैं. जिनमें फिजिकल ट्रेनिंग इंस्ट्रक्टर एस्पिरेंट्स, पुलिस कॉन्सटेबल एस्पिरेंट्स, गवर्नमेंट स्कूल टीचिंग एस्पिरेंट्स जैसे कुछ नाम यहां दिए जा रहे हैं.

चुनावी परिणामों और राजनीतिक निर्णय लेने से युवाओं का अलगाव

सर्वे दर सर्वे पता चला है कि बेरोजगारी लोगों के लिए सबसे बड़ा मुद्दा है और इसे मोदी सरकार की मुख्य विफलताओं में से एक के रूप में भी देखा जाता है.

पिछले कुछ वर्षों में युवाओं के बीच एनडीए की लोकप्रियता भी कम हुई है. याद रखें, यह वही आबादी है जिसने प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी को 2014 में और फिर 2019 में सत्ता में लाने के लिए आगे बढ़ाने का काम किया था.

हालांकि यदि हम महत्वपूर्ण हिंदी बेल्ट राज्यों उत्तर प्रदेश और बिहार के चुनावों को देखें, तो लगता है कि युवाओं के बीच एनडीए की अपील में कुछ गिरावट आई है.

2020 के बिहार विधानसभा चुनाव में एनडीए ने कम अंतर से जीत हासिल की थी, इस चुनाव में गठबंधन वाकई में युवा मतदाताओं के बीच पीछे चल रहा था.

इंडिया टुडे-एक्सिस माई इंडिया एग्जिट पोल के मुताबिक, 18-25 साल के आयु वर्ग के 34 फीसदी लोगों ने एनडीए को वोट दिया, जबकि तेजस्वी यादव के नेतृत्व वाले महागठबंधन को 47 फीसदी ने वोट दिया. इन आंकड़ों के मुताबिक एनडीए 13 फीसदी पॉइंट के नुकसान में थी.

26-35 आयु वर्ग की बात करें तो 36 फीसदी ने एनडीए को और 47 फीसदी ने महागठबंधन को वोट दिया, यहां 11 अंकों की कमी है.

इसकी तुलना में, 61 वर्ष से अधिक आयु वालों में एनडीए के पास 10 फीसदी अंक की बढ़त थी और 51-60 वर्ष के बीच के लोगों में 5 अंकों की बढ़त थी

ऐसा काफी हद तक इस वजह से हुआ क्योंकि तेजस्वी यादव ने दमदार तरीके से चुनाव में नौकरी का मुद्दा उठाया था.

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2022 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों में एनडीए ने 18-25 आयु वर्ग में सबसे खराब प्रदर्शन किया. एक्सिस के सर्वे के मुताबिक इस आयु वर्ग में उसे सपा के नेतृत्व वाले महागठबंधन के 40 प्रतिशत की तुलना में 41 प्रतिशत वोट मिले. वहीं एनडीए ने 51-60 और 61 व उससे अधिक आयु वर्ग में 50 फीसदी और 54 फीसदी अंक हासिल किए.

इस पर विचार करें, यूपी में 18-25 आयु वर्ग के 59 प्रतिशत मतदाताओं ने एनडीए को वोट नहीं दिया, जबकि 60 से अधिक आयु वर्ग में 46 प्रतिशत मतदाताओं ने वोट नहीं दिया. वहीं बिहार में 18-25 साल के करीब 66 फीसदी मतदाताओं ने एनडीए को वोट नहीं दिया..

इन राज्यों में परंपरागत रूप से गैर-एनडीए वोटिंग समुदाय जैसे मुस्लिम, यादव और जाटव मतदाता 30-35 प्रतिशत थे. इसका हिसाब देने के बाद भी, ऐसा लगता है कि इन समुदायों के बाहर के युवाओं के एक बड़े हिस्से ने भी इन दो राज्यों में एनडीए के खिलाफ मतदान किया.

इसलिए, यह स्पष्ट है कि इन दोनों राज्यों में चुनावी परिणाम 18-25 आयु वर्ग में राज्य की आबादी के एक बड़े हिस्से की इच्छा के खिलाफ थे.

यह संभव है कि इन दोनों राज्यों में युवा के वर्गों के बीच यह धारणा हो कि एनडीए अपने विशाल संसाधनों के साथ जीतने में सफल हो जाता है और विपक्ष अप्रभावी रहता है, ऐसे में उनके (युवाओं के) हितों की रक्षा करने वाला कोई नहीं है.

इसके परिणामस्वरूप जो अलगाव हुआ है, उसे नरेंद्र मोदी सरकार में एकतरफा निर्णय लेने की प्रक्रिया से और भी बदतर बना दिया गया है.

बीजेपी के अंदर प्रतिक्रिया तंत्र बहुत प्रभावी नहीं लगता है, किसी के साथ नहीं - चाहे वह विधायक हों, सांसद हों, मंत्री हों या पदाधिकारी हों कोई भी ऐसा नहीं जो पीएम, गृह मंत्री और पार्टी अध्यक्ष से सवाल करने को तैयार हो. पीलीभीत के सांसद वरुण गांधी और गोवा के राज्यपाल सत्यपाल मलिक दो संभावित अपवाद हो सकते हैं.

इसलिए कम से कम जहां तक अप्रभावित वर्गों की इच्छा व्यक्त करने का संबंध है चुनावी नतीजे और बीजेपी का आंतरिक फीडबैक तंत्र दोनों काम नहीं कर रहे हैं.

ऐसे में यह संभव है कि कई लोगों को यह लगता है कि सड़कों पर उतरने और विरोध करने के अलावा कोई विकल्प नहीं है.

हालांकि प्रदर्शन कर रहे युवाओं का आक्रोश सीएए विरोधी प्रदर्शनों और किसान प्रदर्शनकारियों से थोड़ा अलग है.

मुसलमान और सिख उन दो आंदोलनों की रीढ़ थे. इन्होंने ज्यादातर बीजेपी के खिलाफ मतदान किया था और इसलिए उन्हें मोदी सरकार से कोई उम्मीद नहीं थी.

दूसरी ओर प्रदर्शन कर रहे युवा 2014 और 2019 में पूरी तरह से मोदी के जादू से प्रभावित हो गए और "अच्छे दिन" व नौकरियों का वादा करके उन्हें अपनी तरफ किया गया. ऐसे में उनका (युवाओं का) गुस्सा विश्वासघात की एक अतिरिक्त भावना से पैदा हुआ है.

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