आजकल पद्मावती शब्द जहां खड़ा हो जाता है, विवादों की लाइन वहीं से शुरू हो जा रही है. विवादों की इस लाइन में सबसे पीछे एक बोर्ड नजर आता है. ये लाचार-सा सेंसर बोर्ड किसी विवाद में नहीं पड़ना चाहता, इसलिए वो ज्यादा बोल नहीं रहा. ज्यादा बोल नहीं रहा, अब इस पर भी विवाद खड़े हो रहे हैं.
वैसे इस फिल्म पर वैसे लोग भी खूब बोल चुके हैं, जिन्होंने अब तक फिल्म नहीं देखी. विवाद गहरा गया है, सो अब समाधान तलाशना भी जरूरी हो चला है.
सतही तौर पर देखने से ऐसा लग रहा है कि बॉलीवुड की एक फिल्म को आने से जबरन रोका जा रहा है. अभिव्यक्ति की आजादी छीनी जा रही है. पर ऐसा है नहीं. पद्मावती विवाद में भविष्य की बाधाओं से पार पाने के कई सूत्र छिपे हैं. उन सूत्रों को पकड़कर आगे बढ़ें, तो आने वाले दौर में फिल्मों की राह में रोड़े आ ही नहीं सकते.
थोड़ी-थोड़ी आजादी छिनती जरूर दिखेगी, पर डेमोक्रेसी से समस्या चुटकी बजाते सुलझ जाएगी. ये क्यों भूलते हैं कि हमने आजादी ही हासिल की थी डेमोक्रेस की खातिर.
हर फिल्म को एक्सपर्ट पैनल से दिखलाने का रास्ता
खबर है कि सेंसर बोर्ड चीफ प्रसून जोशी ने पार्लियामेंट्री कमेटी से कहा है कि वे पद्मावती को इतिहासकारों के पैनल से दिखलाएंगे, फिर आगे कुछ करेंगे. फिल्म की कहानी इतिहास के प्लॉट पर बनाई गई है, ऐसे में इतिहासकारों से राय-मशविरा किया ही जाना चाहिए.
पंच-पंचायती और पंचायती राज तो पहले से ही रहा है. बस हमें थोड़ा और पहले से डेमोक्रेटिक होना था. हम लेट हो गए.
जॉली एलएलबी का नाम सुना होगा आपने. सीक्वल पर सीक्वल बनाए जा रहे हैं. रिलीज करने से पहले कुछ सोचा तक नहीं. मी लॉर्ड नहीं, तो इसे कम से कम वकीलों के पैनल से तो दिखला लेते. जहां लोग न्याय के लिए खड़े होते हैं, उसकी ऐसी-तैसी करके रख दी. माना कि गवाह बिकते होंगे, पर न्याय भी कहीं बिकता है भला?
मुन्नाभाई एमबीबीएस देखी होगी आपने. कायदे से तो पूरी फिल्म को डॉक्टरों के पैनल से दिखलाया जाना चाहिए था. आप कहेंगे कि तब इस तरह की मांग ही नहीं उठी थी. लेकिन इससे क्या? कम से कम फिल्म के डायरेक्टर, प्रोड्यूसर और एक्टरों का फ्री हेल्थ चेकअप तो कराया ही जा सकता था. क्या इसके लिए भी किसी मांग की जरूरत थी?
इसी तरह आप और भी फिल्मों के नाम लेते जाइए और फिर तय कीजिए कि उसे रिलीज होने से पहले किस तरह के एक्सपर्ट पैनल को दिखाना जाना चाहिए था.
एडल्ट फिल्मों में न हो वादाखिलाफी
हां, सबसे जरूरी बात. जिन फिल्मों को एडल्ट सर्टिफिकेट दिए जाते हैं, उन्हें भी 18 साल से ऊपर वाले कुछ एडल्ट के पैनल से दिखला लेना चाहिए.
ऐसा न हो कि लोग सिर्फ पोस्टर पर A देखकर सिनेमाहॉल चले जाएं और फिर गालियां देते बाहर आएं. ये देखना पैनल की जिम्मेदारी होनी चाहिए कि दर्शकों के साथ किसी तरह की वादाखिलाफी न हो. आखिर पूरे पैसे दिए हैं. किसी दिन ग्राहक जाग गया तो?
चलिए थोड़ा और डेमोक्रटिक हो जाएं
एक और बड़ा सवाल अभी देश के सामने मुंह बाए खड़ा है. क्या हमारी सरकारें किसी ऐसी फिल्म को बैन कर सकती हैं, जिसे सेंसर बोर्ड ने पास कर दिया हो?
इस सवाल का जवाब भी डेमोक्रेसी के पास है. क्या सरकारों के बिना किसी बोर्ड की कल्पना की जा सकती है? चाहे सेंसर बोर्ड हो या स्कूलों के ब्लैकबोर्ड, सबको लगाने-उखाड़ने वाली तो सरकारें ही होती हैं.
कौन-सी फिल्म दिखाई जानी चाहिए, कौन-सी नहीं, इसका फैसला देश के हर शख्स से पूछ-पूछकर तो किया नहीं जा सकता. इसलिए सबसे आसान तरीका है कि सेंसर बोर्ड से पास होने के बाद फिल्मों की कॉपी को सीधे जनता के चुने हुए प्रतिनिधियों के पास भेज दिया जाना चाहिए.
ध्यान सिर्फ इस बात का रखा जाना चाहिए कि इन जनप्रतिनिधियों के पैनल में सत्ता और विपक्ष, दोनों के लोग हों. अगर बिना हो-हंगामे के कुछ पास हो गया, तो लोग शक की नजर से देखेंगे. डेमोक्रेटिक होने के साथ-साथ दिखना भी जरूरी है.
एक बात और. अगली बार आपको कौन-सी फिल्म देखनी है, कौन-सी नहीं, इसके लिए रिव्यू आने का इंतजार मत कीजिएगा. ये बात तो आप गली-मोहल्ला टाइप के किसी नेता से भी पूछ सकते हैं.
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