दिल्ली में करीब पिछले 15 दिनों से प्रदर्शन कर रहे किसानों की समस्या का हल अभी तक नहीं निकल पाया है. सरकार कृषि कानूनों में संशोधन करने के लिए तैयार है, लेकिन किसान इसे वापस लेने की मांग पर अड़े हैं. सरकार और किसान नेताओं के बीच पांच दौर की बातचीत हो चुकी है, लेकिन सभी बेनतीजा रहीं. गृहमंत्री अमित शाह के साथ बैठक में भी समस्या का हल नहीं हो सकता है. किसान आंदोलन, और सरकार के बीच जारी इस बातचीत पर विशेषज्ञों का क्या कहना है?
वर्ल्ड बैंक के पूर्व चीफ इकनॉमिस्ट और भारत सरकार के पूर्व मुख्य आर्थिक सलाहकार, प्रो. कौशिक बसु ने ट्विटर पर लिखा कि कृषि बिल किसानों से ज्यादा कॉर्पोरेट को फायदा पहुंचाएंगे.
उन्होंने लिखा, “मैंने भारत के नए कृषि बिलों को स्टडी कर लिया है और महसूस किया है कि उनमें खामियां हैं और किसानों के लिए हानिकारक साबित होंगे. हमारे कृषि रेगुलेशन में बदलाव की जरूरत है, लेकिन नए कानून किसानों से ज्यादा कॉर्पोरेट हितों की मदद करेंगे. भारत के किसानों की संवेदनशीलता और नैतिक शक्ति को सलाम.”
द इंडियन एक्सप्रेस में राजनीतिक विशेषज्ञ प्रो. सुहास पलशिकर लिखते हैं कि किसान आंदोलन समझौते की राजनीति को वापस ला सकता है. उन्होंने लिखा कि किसानों के विरोध के कुछ दिनों के अंदर ही, सरकार ने बातचीत शुरू कर दी. ये कुछ ऐसा है जो मौजूदा सरकार ने शायद ही कभी किया हो. वो कहते हैं, "राजनीति से, समझौता और प्रदर्शनों को छह साल तक दूर रखने के बाद, सरकार को आखिरकार बातचीत शुरू करनी पड़ी. इसलिए, चाहे विरोध प्रदर्शनों का परिणाम जो हो, और नए कृषि कानून जिस भी तरफ हों, ये अहसास का पल होना चाहिए कि नीतियों को केवल राज्य की शक्तियों से नहीं पास किया जाना चाहिए."
वो आगे लिखते हैं, “बदलाव की जरूरत न केवल कृषि नीतियों के बारे में है, बल्कि राजनीति के बारे में भी है. पिछले छह सालों में, एक बहुसंख्यक राष्ट्रवाद की दिशा में पूरी तरह से आगे बढ़ने के अलावा, सरकार ने राजनीतिक रूप से चुनावी तानाशाही के रास्ते पर भी जोर दिया है. जाहिर है बीजेपी सरकार हमें यहां लेकर आई है, लेकिन चुनावी तानाशाही को स्वीकार करने की प्रवृत्ति कहीं ज्यादा खतरनाक है.”
पलशिकर ने आगे लिखा कि इस आंदोलन ने ‘मसीहा’ को मात्र एक प्रधानमंत्री के रूप में कम करने के लिए मजबूर किया है. वो कहते हैं कि समझौते का मतलब सर्व-शक्तिशाली और सर्वोच्च नेता को एक आम राजनेता में तबदील करने की दिशा में पहला कदम होगा.
द गार्डियन में, लेखक रविंदर कौर लिखती हैं, “प्रदर्शनकारियों के दृढ़ संकल्प भारत की सत्ताधारी पार्टी को मुश्किल जगह पर ला खड़ा किया है. महामारी के दौरान पार्टी राष्ट्रव्यापी बंद की उम्मीद बिल्कुल नहीं कर रही होगी. 'दुनिया का सबसे सख्त लॉकडाउन' और संक्रमण के डर का लोकतांत्रिक अभिव्यक्ति को सीमित करने के लिए फायदा उठाया गया है. मोदी सरकार ने महामारी को कई 'कठिन' बाजार सुधारों को लागू करने के एक दुर्लभ अवसर के रूप में देखा है.”
किसान नेताओं ने 8 दिसंबर को भारत बंद बुलाया था. इसी दिन शाम में किसानों की गृहमंत्री अमित शाह से भी बातचीत हुई. सरकार ने कानूनों में संशोधन करने का प्रस्ताव किसानों को दिया था, जिसे उन्होंने खारिज कर दिया है. किसानों ने 12 दिसंबर को दिल्ली-जयपुर हाईवे ब्लॉक करने की बात कही है. वहीं 14 दिसंबर को फिर से राष्ट्र स्तर पर प्रदर्शन होगा.
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