किसान आंदोलन के दौरान जिन मुद्दों पर सबसे ज्यादा चर्चा छिड़ी है, उनमें से एक एपीएमसी यानी मंडी समितियां हैं. किसान इन मंडी समितियों को बरकरार रखने की मांग कर रहे हैं, और सरकार भी कह रही है कि नए कानूनों के बावजूद समितियां रहेंगी ही.
बेशक, मंडी समितियों की ही बदौलत भारत अब तक खाद्य संकट से जूझता रहा है. लॉकडाउन के दौरान भी इन्हीं समितियों के गोदाम लोगों का पेट भरने के काम आए. लेकिन इसमें भी कोई शक नहीं कि राज्यों की एपीएमसी की हालत खराब है. किसान संगठन ही नहीं, सरकार खुद बताती रही है कि कैसे खस्ता हाल एपीएमसी अस्तित्व के संकट से जूझ रही हैं.
बाजार कितने चाहिए, हैं कितने कम
ज्यादातर राज्यों में कृषि उत्पाद मार्केटिंग कमिटियां यानी एपीएमसी ही कृषि मार्केटिंग को रेगुलेट करती हैं. इनके अपने बाजार होते हैं. देश में इस समय 7,000 से भी कम रेगुलेटेड बाजार हैं. होने कितने चाहिए? 2006 में एमएस स्वामीनाथन की अध्यक्षता में गठित राष्ट्रीय किसान आयोग ने जो आकलन किया था, उसके हिसाब से देश में 41,000 बाजारों की जरूरत है. इस आयोग ने कहा था कि एक एपीएमसी बाजार के तहत औसत 80 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र आना चाहिए. पर हमारे यहां औसत 496 वर्ग किलोमीटर में एक बाजार है. इसी की वजह से सिर्फ छह प्रतिशत किसान ही इन बाजारों में अपने उत्पाद बेच पाते हैं.
बुनियादी सुविधाओं तक की कमी
न सिर्फ एपीएमसी के अंतर्गत बाजार कम हैं, बल्कि वहां बुनियादी सुविधाओं का भी अभाव है. 2018 में कृषि मार्केटिंग पर गठित संसद की स्टैंडिंग कमिटी ने कहा था कि ज्यादातर एपीएमसी बाजारों में इंफ्रास्ट्रक्चर और सार्वजनिक सुविधाओं की स्थिति अच्छी नहीं. 51% बाजारों में तौल मशीनें नहीं हैं और 17% में गोदाम और 85% में कोल्ड स्टोरेज नहीं है. उपज को सुखाने के लिए ड्राइंग प्लेटफॉर्म सिर्फ 29% बाजारों में हैं, और ग्रेडिंग मशीन सिर्फ 22% में.
इससे किसानों के लिए मुश्किलें बढ़ती हैं और बाजारों की कार्य कुशलता पर भी असर होता है. 2013 में राज्य मंत्रियों की एक कमिटी ने कहा था कि अगर मंडी बाजारों में मार्केटिंग और कोल्ड स्टोरेज की सुविधा नहीं होती तो इससे फलों और सब्जियों को काफी नुकसान होता है. कमिटी ने 2012-13 में पैदावार के बाद फलों और सब्जियों के नुकसान का आकलन किया था. उसका कहना था कि उस साल फलों का 7-16% और सब्जियों का 7-12% नुकसान हुआ था. 2014 के मूल्यों के आधार पर यह 31,000 करोड़ रुपए का नुकसान बताया गया था. जब बुनियादी सुविधाएं ही उपलब्ध न हों तो बैंकिंग, इंटरनेट कनेक्टिविटी वगैरह की उपलब्धता के बारे में क्या बात की जाए.
इसके अलावा मंडी समितियों के कामकाज के तौर-तरीकों की भी आलोचना होती रही है. कुछ विशेषज्ञों का यह कहना है कि समितियों के काम करने का तरीका ऐसा है कि नए लोगों का बाजार में प्रवेश मुश्किल होता है और कार्टेलाइजेशन बढ़ता है. 2016 में नीति आयोग खुद कह चुका है कि कमीशन एजेंट्स और व्यापारियों के लिए लाइसेंस लेना जरूरी है, इसलिए बाजार के पदाधिकारों की मोनोपली कायम होती है.
इसका रास्ता क्या है?
मंडी समितियों और उनके बाजारों की दिक्कतों के कारण लगातार यह कोशिश की जा रही है कि इनकी मौजूदा संरचना को खत्म कर दिया जाए. प्रकाश सिंह बादल जैसे पंजाब के दिग्गज नेता कई बार कह चुके हैं कि किसान बाजारों को उदार बनाने की दुहाई देते हुए अर्थशास्त्री और पॉलिसी मेकर्स उन पर एपीएमसी के मार्केट नेटवर्क को तोड़ने का दबाव बनाते रहे हैं. यहां तक की फूड कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया की मौजूदा संरचना को खत्म करने का सुझाव भी दिया गया है और उससे कहा गया है कि उसे कमोडिटी ट्रेडिंग का काम करना चाहिए.
बेशक, परेशानियां कई हैं लेकिन व्यवस्था को खत्म करके, समस्या का हल निकालना, एक दूसरी समस्या खड़ी करने वाला है. जब सरकारी मंडियों की बुरी दशा के बारे में नीति निर्माता जानते ही हैं तो उन्हें दुरुस्त करने की बजाय बाजार को निजी हाथों में सौंपने का क्या मायने है.
निजी हाथों में सौंपने के क्या मायने हैं?
दरअसल जब नए कानून के तहत कृषि उपज की खरीद फरोख्त कहीं भी की जा सकेगी तो मंडी की दरकार क्यों रह जाएगी. चूंकि खरीद फरोख्त के लिए मार्केट फी नहीं चुकानी होगी तो समिति के बाजार चलाना ही मुश्किल होगा. वे तो मार्केट फीस की बदौलत ही अपना कामकाज चलाते हैं. इसके अलावा निजी क्षेत्र के लिए कृषि उपज खरीदना आसान होगा क्योंकि खरीद के लिए लाइसेंस की भी जरूरत नहीं होगी. जरूरत होगी सिर्फ पैन कार्ड की. पर इससे नुकसान किसका होगा- किसान का ही. इसे बिहार के उदाहरण से समझा जा सकता है जहां एपीएमसी हैं ही नहीं.
बिहार मक्के का सबसे बड़ा उत्पादक है. लेकिन एपीएमसी न होने के कारण इस साल मक्का के लिए 1850 रुपए प्रति क्विंटल के एमएसपी के बावजूद बिहार के किसानों को 1000 से 1300 रुपए प्रति क्विंटल का मूल्य मिला. गेहूं के लिए भी बिहार के किसानों को 10-15 प्रतिशत कम कीमतें मिलीं. चूंकि निजी बाजार में प्राइज रेगुलेशन जैसी कोई व्यवस्था ही नहीं है.
विकल्प क्या था?
जैसा कि विशेषज्ञों का कहना है कि मार्केट को डीरेगुलेट करने से समस्या का समाधान नहीं हो सकता. आंकड़े कहते हैं कि 94 प्रतिशत किसान तो एपीएमसी तक पहुंचते ही नहीं. वे तो ओपन मार्केट में ही उपज को बेचते हैं. अगर प्राइवेट सेक्टर इतना कारगर होता तो किसान इतनी बड़ी संख्या में आत्महत्या ही नहीं करते. उनकी आमदनी भी अच्छी होती. जबकि 2016 का आर्थिक सर्वेक्षण कहता है कि देश के 17 राज्यों में किसान परिवारों की आमदनी साल में 20,000 रुपए से भी कम है.
विकल्प यह है कि मौजूदा संरचनाओं को ही मजबूत किया जाता. फिर जिन जगहों पर सरकारी मंडियां नहीं है, वहां प्राइवेट मार्केट नेटवर्क बनाए जाते. स्वामीनाथन समिति ने कहा था कि ग्रामीण हाट में किसानों की सीधी पहुंच बनाई जानी चाहिए. इन हाटों में आने के लिए परिवहन पर उतना खर्च नहीं करना पड़ता, इसलिए ऐसी हाट कृषि बाजारों के मुकाबले अधिक व्यावहारिक होती हैं. कृषि मार्केटिंग पर 2018 की संसदीय स्थायी समिति ने तो इन हाटों को एपीएमसी एक्ट्स के दायरे में लाने का सुझाव दिया था.
लेकिन विकल्पों पर विचार नहीं किया गया और किसान की रही सही कमाई पर भी आंखें गड़ा ली गई हैं. वह कमाई जो पहले ही छीजती हुई उसके हाथों में आती है. फिलहाल किसान सड़क पर हैं. वह किसान जो सालों से अपनी जमीन से बेदखल हो रहा और हमारी चेतना से भी. अब जब वे अपने हक के लिए शहर में नारे लगा रहे हैं तो हमारे शहरी मन पर कुछ खरोंचे तो लगनी ही चाहिए.
(माशा लगभग 22 साल तक प्रिंट मीडिया से जुड़ी रही हैं. 7 साल से वह स्वतंत्र लेखन कर रही हैं. इस लेख में दिए गए विचार उनके अपने हैं, क्विंट का उनसे सहमत होना जरूरी नहीं है.)
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