तीन 'विवादित' कृषि कानूनों के खिलाफ किसानों का प्रदर्शन जारी है. किसान दिल्ली में कई दिनों से लगातार विरोध-प्रदर्शन कर रहे हैं. केंद्र सरकार से किसानों की कई दौर की बातचीत नाकाम रही है. 8 दिसंबर को किसानों ने इन कानूनों के खिलाफ भारत बंद बुलाया था और अब 14 दिसंबर को किसान बीजेपी दफ्तरों का घेराव करने जा रहे हैं. पूरे किसान आंदोलन की देशभर में तो रिपोर्टिंग हो ही रही है, विदेशी मीडिया भी इसे व्यापक कवरेज दे रहा है.
किस विदेशी मीडिया संस्थान ने किसान प्रदर्शन और कृषि कानूनों पर क्या लिखा है और कौन क्या कह रहा है, ये सब यहां जानिए.
किसान प्रदर्शन के लिए समर्थन बढ़ा, मोदी दबाव में: ब्लूमबर्ग
ब्लूमबर्ग ने 10 दिसंबर को अपने एक आर्टिकल में लिखा कि 'प्रदर्शनकारी किसानों को रिटायर्ड सेना वेटरन जैसे कई मुख्य समूहों का समर्थन मिल रहा है और इससे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार पर अपने कृषि कानून वापस लेने का दबाव बढ़ रहा है.'
ब्लूमबर्ग ने लिखा कि किसानों के मुद्दे देश के लिए भावुक और राजनीतिक रूप से महत्वपूर्ण हैं क्योंकि 60 फीसदी से ज्यादा लोग प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से खेती पर निर्भर हैं. रिपोर्ट में कहा गया, "रिटायर्ड जवानों का भी समर्थन मिल रहा है, जिससे प्रदर्शन राष्ट्रीय राजधानी से बाहर फैलने के भी आसार हैं."
ब्लूमबर्ग की रिपोर्ट में पीएम नरेंद्र मोदी के आर्टिकल 370 हटाने और CAA पास करने का भी जिक्र है. इसमें कहा गया कि मोदी सरकार ये दोनों ही फैसले बिना किसी महत्वपूर्ण गतिरोध के लिए थे, 'लेकिन इस बार स्थिति अलग हो सकती है.'
मोदी की इकनॉमी में सुधार की कोशिशों को किसानों ने दी चुनौती: WSJ
द वॉल स्ट्रीट जर्नल ने अपने एक आर्टिकल में कहा कि 'COVID-19 की वजह से बर्बाद हुई इकनॉमी में सुधार के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने खेती सेक्टर को ओवरहॉल और डिरेगुलेट करने की कोशिश की.'
WSJ की रिपोर्ट में कहा गया, "मोदी जिस तरह के बदलाव करना चाह रहे हैं, कई इकनॉमिस्ट्स इसकी सालों से मांग करते आ रहे हैं. उनका कहना है कि इससे निवेश बढ़ेगा, इनोवेशन को बढ़ावा मिलेगा और प्रभावकारिता बढ़ेगी."
रिपोर्ट में वाशिंगटन डीसी के सेंटर फॉर स्ट्रेटेजिक एंड इंटरनेशनल स्टडीज के इंडिया एक्सपर्ट रिचर्ड रॉस्सो के हवाले से कहा गया कि 'किसान चिंता जता रहे हैं, लेकिन बड़े स्तर पर इस तरह के आधुनिकीकरण कदम जरूरी हैं.'
क्या मोदी को भारतीय किसानों में अपनी बराबरी का कोई मिला: गार्डियन
ब्रिटिश अखबार द गार्डियन के लिए रविंदर कौर ने एक आर्टिकल में लिखा है कि 'प्रदर्शनकारियों के संकल्प ने भारत की सत्ताधारी पार्टी को मुश्किल में डाल दिया है.' कौर ने लिखा, "पार्टी को ये उम्मीद नहीं थी कि महामारी के दौरान देशव्यापी हड़ताल हो जाएगी. 'दुनिया के सबसे सख्त लॉकडाउन' और संक्रमण के खतरे को विरोध की लोकतांत्रिक अभिव्यक्ति सीमित करने के लिए इस्तेमाल किया गया."
गार्डियन के आर्टिकल में कहा गया कि 'किसान प्रदर्शन जाति और वर्ग, शहर और गांव से ऊपर उठ चुके हैं. मोदी सरकार के खिलाफ ये काफी बड़ा जनविद्रोह है और प्रदर्शनकारी लंबी तैयारी से आए हैं.'
प्रदर्शनकारी किसान भारत को एक सबक दे रहे हैं: वाशिंगटन पोस्ट
वाशिंगटन पोस्ट के लिए पत्रकार बरखा दत्त ने लिखा कि 'एक कानून के खिलाफ शुरू हुआ प्रदर्शन अब कुछ बड़ा बन गया है. इसने संस्कृति, पहचान, लोकतंत्र और असहमति जैसे मुद्दों पर भी बातचीत को शुरू किया.' दत्त ने लिखा है कि ये बीजेपी के खिलाफ केवल नागरिकों के सबसे बड़े आंदोलनों में से एक है.
पोस्ट के आर्टिकल में कहा गया, "नए कानूनों के जटिल तर्क और भाषा लोगों को समझ नहीं आती, फिर भी पूरे देश में किसानों के लिए एकजुटता दिखाई देती है."
बरखा दत्त ने अपने आर्टिकल में कहा कि 'प्रदर्शन ये याद दिलाते हैं कि आम सहमति का मूल्य है. सबसे पॉपुलर नेता को भी कभी-कभी सुनना पड़ता है कि सड़कें क्या कह रही हैं.'
विदेश में भी किसानों के समर्थन में प्रदर्शन
किसानों के समर्थन में अमेरिका, यूके, कनाडा और ऑस्ट्रेलिया समेत कई देशों में प्रदर्शन हो चुके हैं. इसके अलावा यूके में लेबर पार्टी के तनमनजीत सिंह धेसी के नेतृत्व में ब्रिटेन के 36 सांसदों का एक धड़ा किसान आंदोलन के समर्थन में सामने आया.
वहीं कनाडा के पीएम जस्टिन ट्रूडो भी किसानों के समर्थन में बयान दे चुके हैं. भारत ने इस पर आपत्ति जताई थी, लेकिन ट्रूडो ने कहा था कि 'वो शांतिपूर्ण प्रदर्शन के अधिकार के साथ खड़े हैं.'
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