कृषि विधेयकों का विरोध करने वाले किसानों को गुमराह किया गया है. श्रम कानून संशोधनों की आलोचना करने वाले मजदूरों को गुमहार किया गया है. ईआईए (पर्यावरण प्रभाव आकलनों) में बदलावों के खिलाफ आवाज उठाने वाले एक्टिविस्ट्स गुमराह हैं.
कुल मिलाकर, इस देश में अगर आप मोदी सरकार के विधायी और नीतिगत कदमों से असहमत हैं तो आप गुमराह लोगों के झुंड में शामिल हैं. इस समय इन दोनों में कोई फर्क नहीं समझा जाता. आप एक वेन डायग्राम के सिंगल सर्किल माने जाएंगे.
हर बार जब सरकार सांसत में फंसती है, तो उसके पास एक आसान हल यही होता है कि वह लोगों से कहे- कि उसका विरोध करने वाले, बेचारे लोग सरकार की नीतियों को समझ नहीं पाए.
चलिए, एकबारगी यह मान लिया जाए कि उसकी बात सही है. इसका मतलब यह है कि सरकार के पास वास्तव में हर विधेयक/नीति को बनाने के दुरुस्त कारण हैं, और उन्हें बहुत आसानी से लागू किया जा सकता है.
पर यहीं सरकार की दलील गच्चा खा जाती है क्योंकि वह इसका विस्तृत स्पष्टीकरण दे, फिर भी वह अपनी हर नई पेशकश का औचित्य साबित नहीं कर पाती.
नोटबंदी से लेकर इलेक्टोरल बॉन्ड तक, सरकार की हर दलील का रूप समय-समय पर बदलता रहा. यह बात और है कि तमाम स्वतंत्र विशेषज्ञों और प्रमाणों ने उन्हें निराधार ही बताया.
इनमें सबसे दिलचस्प उदाहरण तो नागरिकता (संशोधन) एक्ट, 2019 का है. इस मामले में सरकार ने जो नेरेटिव गढ़ा, वह पूरी तरह से पलट गया.
आशंकाओं को दूर करने की कोशिश नहीं की गई
सीएए को 12 दिसंबर 2019 को राष्ट्रपति की मंजूरी मिली. लेकिन ऐसा नहीं कि लोग मंजूरी मिलने के तुरंत बाद सीएए का विरोध करने जमा हो गए. सरकार ने 2015-16 में जब इसकी पेशकश की थी, तभी से इस प्रस्ताव के आधारभूत विचार का विरोध किया जा रहा था. फिर नरेंद्र मोदी के पहले कार्यकाल के आखिर में पूर्वोत्तर में इसका प्रस्ताव रखा गया तो वहां भी उसकी मुखालिफत की गई और फिर इसके लागू होने के पहले लोगों ने इसका विरोध करना चालू कर दिया.
अब तर्क तो यह कहता था कि पहले लोगों की आशंकाओं को दूर किया जाए. कानून से जुड़े स्पष्टीकरण दिए जाएं. आलोचकों को औचित्य समझाया जाए. इसके बाद कानून पारित हो. लेकिन सरकार ने सीधे कानून को पारित किया. किसी से कोई संवाद स्थापित नहीं किया गया.
ऐसे में व्यापक प्रदर्शन लाजमी था क्योंकि सरकार ने किसी भी आशंका को दूर करने का काम नहीं किया. इसके बाद बारंबार यह दर्शाने की कोशिश की गई कि प्रदर्शनकारियों को बहकाया गया है और सीएए को लेकर जो भी फिक्र, और चिंताएं हैं, वे ‘झूठी बातें’ हैं.
इसकी शुरुआत उस ‘फैक्ट शीट’ से हुई जिसे 19 दिसंबर को एएनआई ने जारी किया और कहा कि यह फैक्ट शीट उसे ‘सरकारी स्रोतों’ से प्राप्त हुई है. इसमें लोगों से कहा गया था कि “निहित स्वार्थों का शिकार बनने की बजाय, फैक्ट शीट को पढ़े, समझें और फिर अपनी राय कायम करें.”
सरकार ने खुद यह फैक्ट शीट क्यों जारी नहीं की, हमें कभी पता नहीं चलेगा, जबकि ऐसा करना उसके लिए ज्यादा अच्छा होता.
यह पहली कोशिश काम नहीं आई, जैसा कि उम्मीद की गई थी. इसका कारण यह नहीं था कि इसे जल्दीबाजी में तैयार किया गया था. इसका कारण यह भी नहीं था कि इसमें बाद में एक अनुलग्नक का जिक्र था जिसे अधिकारीगण नत्थी करना भूल गए थे.
इसमें कई झूठी बातें कही गई थीं, जैसे देशव्यापी एनआरसी प्रक्रिया को शुरू करने की कोई घोषणा नहीं की गई है (एनपीआर के अपडेशन, जोकि एनआरसी के नियमों का पहला चरण है, को 31 जुलाई 2019 को शुरू किया गया था), और किसी व्यक्ति को अपने माता-पिता के जन्म का विवरण देने की जरूरत नहीं है (जोकि 1987 के बाद जन्म लेने वाले लोगों के लिए नागरिकता स्थापित करने की शर्त है).
इसके विपरीत इस फैक्ट शीट में न तो सीएए के बारे में कुछ कहा गया था और न ही इसकी आलोचनाओं का जवाब दिया गया था. यह मुख्य रूप से एनआरसी पर केंद्रित थी (एनआरसी पर भी गलत तथ्य दिए गए थे या गुमराह करने वाली दलील पेश की गई थी).
सीएए के जुड़े सवालों को नजरंदाज किया गया
सीएए का सबसे संजीदा पहलू यह था कि इसे खुद गृह मंत्री अमित शाह ने एनआरसी के साथ प्रचारित किया था, इसलिए यह माना जा रहा था कि यह मुसलमानों की नागरिकता के लिए खतरा है. फिर एक मुद्दा यह था कि इसे मनमाने तरीके से लाया गया है और इसकी संवैधानिकता पर भी सवाल खड़े किए जा रहे थे.
इसके बाद प्रेस इनफॉरमेशन ब्यूरो ने सीएए पर कुछ ब्रीफ्स जारी किए, जैसे सीएए पर 12 प्वाइंट्स, जिन्हें हमें याद रखना चाहिए. यह बात और है कि इनमें से कोई भी प्वाइंट सीएए के मुख्य सवालों के जवाब नहीं देता.
आइए, इन पर एक बार फिर से सोचते हैं:
- पहला सवाल यह है कि धार्मिक उत्पीड़न के शिकार लोगों की मदद करने के लिए खास उपाय करना एक अच्छा काम है, लेकिन यह सिर्फ अफगानिस्तान, बांग्लादेश और पाकिस्तान के लोगों के लिए ही क्यों किया जाना चाहिए? म्यांमार, या श्रीलंका या चीन के लोगों के लिए क्यों नहीं?
- अगला और मुख्य सवाल यह है कि अगर इसका उद्देश्य सिर्फ धार्मिक उत्पीड़न के शिकार लोगों की रक्षा करना है तो इसे गैर मुसलमानों तक सीमित क्यों रखा गया है? पाकिस्तान के अहमदिया लोगों का क्या होगा, जिन्हें मुसलमान नहीं समझा जाता लेकिन उन्हें सीएए के दायरे में आने वाले छह धर्मों का भी नहीं समझा जाता? फिर उन नास्तिकों का क्या, जिन्हें बांग्लादेश में बहुत दिक्कतें उठानी पड़ रही हैं?
- अगर इसका मकसद धार्मिक उत्पीड़न से लोगों की रक्षा करना है तो 31 दिसंबर 2014 को अंतिम तारीख क्यों माना जा गया है? क्या उस तारीख के बाद इन देशों में धार्मिक उत्पीड़न बंद हो गया था?
- सीएए में धार्मिक उत्पीड़न की स्थिति को स्पष्ट रूप से क्यों नहीं लिखा गया है? इन्हें सेकेंडरी नियमों के जरिए अप्रत्यक्ष रूप से क्यों तैयार किया जाएगा ताकि एग्जीक्यूटिव जब इससे छुटकारा पाना चाहे, उसे उसी समय संशोधित किया जा सके.
अगर इन सवालों के कोई संतोषजनक जवाब नहीं थे, अगर सीएए का कोई सार्थक उद्देश्य नहीं था, तो आप इस देश के मुसलमानों पर आरोप कैसे लगा सकते हैं कि वे इसे एक षडयंत्र समझ रहे हैं. कि एनआरसी के साथ सीएए उनके देशनिकाले का फरमान जैसा है.
इस डर को वैध साबित करने के लिए एनआरसी को मुसलमानों को बाहर करने की जरूरत नहीं. इसके लिए सीएए ही काफी है. वह एक ऐसा संदिग्ध कानून है जिसे एनआरसी से बाहर होने के बाद मुसलमानों के अलावा हर धर्म का व्यक्ति इस्तेमाल कर सकता है.
हम सभी जानते हैं कि इस देश में ज्यादातर लोगों के पास किस किस्म के डॉक्यूमेंट्स हैं, और एक देशव्यापी अभियान में बहुत से लोग इस लिस्ट से बाहर हो जाएंगे.
अगर सीएए वस्तुनिष्ठ जांच की कसौटी पर खरा उतरता तो वह इस दलील का जवाब दे पाता कि सीएए सिर्फ गैर मुसलमानों के लिए लाइफ बोट जैसा है. लेकिन सीएए के पारित होने के एक साल बाद भी सरकार इस सवाल का जवाब देने में नाकाम रही.
सुप्रीम कोर्ट में खोखला हलफनामा
इस नाकामी की इंतेहा ही थी कि सरकार ने सीएए से जुड़ी आलोचनाओं और सवालों के जवाब में 17 मार्च 2020 को सुप्रीम कोर्ट को एक हलफनामा सौंपा. इसमें सीएए का बचाव किया गया था.
यह 129 पन्नों का एक डॉक्यूमेंट है (अनुलग्नकों सहित). सुप्रीम कोर्ट में सीएए की संवैधानिकता को चुनौती देने वाली करीब 200 याचिकाओं में जो मुद्दे उठाए गए हैं, उनका जवाब इस डॉक्यूमेंट में दिया गया है.
लेकिन इस डॉक्यूमेंट में भी उन चार सवालों के जवाब नहीं हैं, जोकि इस बहस के केंद्र में हैं कि क्या सीएए संविधान के अनुच्छेद 14 का उल्लंघन करता है. यह अनुच्छेद कानून के तहत सभी लोगों के साथ समान व्यवहार की गारंटी देता है.
इस सवाल पर कि इसने सिर्फ तीन देशों को क्यों चुना, यह जवाब दिया गया है कि अफगानिस्तान, बांग्लादेश और पाकिस्तान में एक धर्म राज्य धर्म है, और इस प्रकार ये देश पड़ोसी देशों से अलग हैं.
यह तर्क इस सच्चाई को नजरंदाज करता है कि श्रीलंका का संविधान ‘बौद्ध धर्म’ को देश के अन्य धर्मों से “अधिक महत्वपूर्ण स्थान” देता है और 2003 में श्रीलंका के सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि राज्य को सिर्फ बौद्ध धर्म की रक्षा करने की जरूरत है, दूसरे धर्मों की नहीं (हालांकि वह एक सेक्यूलर देश माना जाता है).
इस दलील में इस तथ्य की भी अनदेखी की गई है कि म्यांमार का 1982 का नागरिकता कानून रोहिंग्या जैसे जातीय समूहों को अपने दायरे से बाहर करता है और यह भेदभाव धार्मिक और जातीय आधार पर किया गया है.
इन देशों के सिर्फ छह गैर मुसलमान समुदायों को क्यों चुना गया है, इस बात को उचित ठहराने के लिए सरकार ने कई डॉक्यूमेंट्स की लिस्ट पेश की. इनमें यह दावा किया गया था कि इन समुदायों का धार्मिक उत्पीड़न होता है.
आप इस तथ्य को किनारे रख दीजिए कि इन डॉक्यूमेंट्स में अफगानिस्तान से जुड़े किसी मामले का उल्लेख नहीं था (सिवाय इसके कि भारत सरकार ने वहां के प्रवासियों के साथ होने वाले व्यवहार पर आदेश दिया था). दरअसल इन डॉक्यूमेंट्स में इन समुदायों के उत्पीड़न का वास्तव में कोई प्रमाण नहीं था. हां, कुछ में इस बात का संकेत था कि पाकिस्तान में हिंदुओं का उत्पीड़न होता है, लेकिन इसका भी बहुत ज्यादा जिक्र नहीं था.
अहमदिया जैसे समुदायों के मुद्दे पर सरकार ने तर्क दिया था कि यह इंट्रा रिलीजियस यानी धर्म के भीतर का मामला है, न कि धार्मिक उत्पीड़न का. उसके पास इस बात का कोई तर्क नहीं था कि किसी धर्म के विशेष मत का उत्पीड़न, धार्मिक उत्पीड़न क्यों नहीं कहा जाना चाहिए.
धार्मिक उत्पीड़न की पूरी अवधारणा इस पर आधारित है कि क्या पीड़ित को धर्म या धार्मिक संबद्धता के कारण भेदभाव का शिकार होना पड़ता है. हां, उत्पीड़न करने वाले का धर्म इस अवधारणा में पूरी तरह से अप्रासंगिक है.
इसी की बुनियाद पर यूएन हाई कमीशन फॉर रेफ्यूजीज़ तय करता है कि धार्मिक उत्पीड़न के आधार पर किसी को शरण देनी चाहिए. वह नास्तिकों, यहूदियों, बहाई और दूसरे गैर मुसलमान समुदायों के मुद्दे की भी अवहेलना करता है जो भले ही संख्या के लिहाज से छोटे समुदाय हैं, लेकिन उत्पीड़न के शिकार हो सकते हैं.
31 दिसंबर 2014 की तारीख को सही बताते हुए सरकार का हलफनामा कहता है कि इस तारीख के बाद देश में आने वाले भी नागरिकता के लिए आवेदन कर सकते हैं. और यह बिंदु साबित करता है कि सीएए की जरूरत तो कभी थी ही नहीं.
तो, इस सवाल का जवाब दिया ही नहीं गया कि सीएए धार्मिक उत्पीड़न का स्पष्ट उल्लेख क्यों नहीं करता.
इस हलफनामे में एक छलपूर्ण युक्ति की गई. चूंकि यह तर्क दिया गया था कि यह कानून धर्म के आधार पर नागरिकता देता है और संविधान की बुनियादी संरचना और धर्मनिरपेक्ष भावना के खिलाफ है तो सरकार ने अपने हलफनामे में संविधान की ही दुहाई दी. उसने संविधान के अनुच्छेद 6 में मूल नागरिकता की शर्तों के साथ सीएए की बराबरी की.
अनुच्छेद 6 में कहा गया है कि पाकिस्तान के प्रवासियों, जिनके माता-पिता/दादा-दादी अविभाजित भारत में पैदा हुए थे, को भारतीय नागरिक माना जाएगा. लेकिन उसमें किसी धर्म का कोई जिक्र नहीं है.
तो, यहां असल में कौन गुमराह है?
अब यह भी जान लीजिए कि सीएए कानून को लागू करने और जरूरतमंद लोगों को नागरिकता देने और उन्हें अवैध प्रवासी के दर्जे से मुक्त कराने के लिए यह अनिवार्य है कि इस कानून के तहत नियमों की रूपरेखा तैयार की जाए और उन्हें अधिसूचित किया जाए. लेकिन यह काम अभी तक नहीं किया गया है.
सरकार ने साल भर यह दर्शाया है कि सीएए की भावना अच्छी है. उसने प्रेस के सामने कई फैक्ट शीट्स पेश की हैं, ब्रीफिंग वाले नोट्स और बयान जारी किए हैं. सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा भी सौंपा है. लेकिन समाज को बांटने वाले इस कानून से जुड़े कई महत्वपूर्ण सवालों के जवाब अब तक नहीं दिए हैं.
वह बार-बार इसरार कर रही है कि इस कानून की मुखालिफत करने वाले गुमराह किए गए हैं. वह सीएए के खिलाफ अपनी आवाज बुलंद करने वालों पर कड़ी कार्रवाई कर रही है. लेकिन यह उसका कपट ही है, साथ ही असहमतियों और लोकतंत्र के लिए खतरा भी.
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