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सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस अरुण मिश्रा के 6 सबसे विवादित फैसले 

जस्टिस मिश्रा 2 सितंबर को रिटायर हो गए लेकिन ये मामले सुप्रीम कोर्ट में उनकी विरासत की गाथागाते रहेंगे

भारत
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जस्टिस अरुण मिश्रा 2 सितंबर को सुप्रीम कोर्ट से रिटायर हो गए. जस्टिस एनवी रमन्ना चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया की कतार में दूसरे नंबर पर हैं. जस्टिस मिश्रा जस्टिस रमन्ना के बाद सबसे सीनियर जज थे.

जून 2014 में जस्टिस मिश्रा सुप्रीम कोर्ट पहुंचे थे. उनके कार्यकाल में कई बड़ी घटनाएं हुईं और सुप्रीम कोर्ट के इतिहास में वह सबसे विवादास्पद जजों में से एक रहे. रिटायरमेंट से चंद दिन पहले भी वह प्रशांत भूषण अवमानना मामले और एजीआर विवाद के चलते सुर्खियों में बने रहे. इन दोनों घटनाओं ने देश में जबरदस्त बहस छेड़ी है.

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सुप्रीम कोर्ट में जस्टिस मिश्रा के छह साल के कार्यकाल में सात अलग-अलग चीफ जस्टिस रहे. खुद जस्टिस मिश्रा ने कई हाई प्रोफाइल, राजनीतिक रूप से संवेदनशील मामलों पर फैसले सुनाएं, हालांकि उन्हें अपेक्षाकृत ‘जूनियर जज’ माना जाता था.

यही वजह थी कि जस्टिस मिश्रा पर आलोचनाओं की बौछार हुई. उन्हें ऐसे मामले सौंपने वाले चीफ जस्टिस के दामन भी दागदार हुए. उसी का चरम था कि जनवरी 2018 में सुप्रीम कोर्ट के चार सीनियर जजों ने अभूतपूर्व प्रेस कांफ्रेंस की थी.

हालांकि इन जजों की चिट्ठी में इस बात पर चिंता जताई गई थी कि कैसे राजनैतिक रूप से संवेदनशील मामलों को ‘पसंदीदा बेंचों’ को सौंपा जाता है, लेकिन उसमें किसी का नाम नहीं लिया गया था. यह प्रेस कांफ्रेंस उसी दिन की गई थी, जब जस्टिस मिश्रा जज लोया मामले से जुड़ी बेंच की अध्यक्षता करने वाले थे. जब प्रेस ने उनसे पूछा था कि क्या उन्होंने जिस समस्या को जिक्र किया है, जज लोया वाला मामला उसी की मिसाल है तो जस्टिस रंजन गोगोई (तब वह जस्टिस थे) ने कहा था- ‘हां’.

प्रेस कांफ्रेंस के बाद जस्टिस मिश्रा खुद ही इस मामले से 'रेक्युज' यानी अलग कर लिया था. लेकिन फिर भी कई संवेदनशील मामले उनके सुपुर्द किए गए. सीजेआई बनने के बाद जस्टिस गोगोई ने भी उसी लकीर को बड़ा किया. यहां तक कि सीजेआई गोगोई ने अपने खिलाफ यौन शोषण के आरोपों की जांच का जिम्मा भी जस्टिस मिश्रा को ही सौंपा.

यहां हम उन सबसे विवादास्पद मामलों और फैसलों का जिक्र कर रहे हैं जिनमें जस्टिस मिश्रा शामिल रहे हैं. बेशक, ये सभी मामले सुप्रीम कोर्ट में जस्टिस मिश्रा की विरासत की गाथा गाएंगे.

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सहारा बिड़ला डायरी

2017 में जस्टिस मिश्रा सबसे पहले विवादों के घेरे में आए. अदालत में ‘सहारा बिड़ला डायरी’ की जांच की मांग करने वाली एक याचिका दायर की गई थी. लेकिन जस्टिस मिश्रा की अध्यक्षता वाली दो सदस्यीय बेंच ने इस याचिका को खारिज कर दिया.

2013 में आदित्य बिड़ला ग्रुप के दफ्तरों में छापे के दौरान कुछ डॉक्यूमेंट्स इनकम टैक्स विभाग और सीबीआई के हाथ लगे. इनसे पता चलता था कि कई नेताओं को करोड़ों रुपए दिए गए हैं. एक इंट्री में गुजरात के मुख्यमंत्री और मौजूदा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को 25 करोड़ रुपए का भुगतान दिखाया गया था.

2015 में 'कॉमन कॉज' नाम के एक एनजीओ ने सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर की जिसमें अदालत से सहारा-बिड़ला डॉक्यूमेंट्स की जांच करने की मांग की गई थी. चूंकि इनकम टैक्स विभाग ने इन डॉक्यूमेंट्स को सीबीआई को नहीं सौंपा था जोकि इन कंपनियों के मामले की जांच कर रही थी.

विवाद क्या था?

जनवरी 2017 में जस्टिस मिश्रा और अमिताव रॉय ने 'कॉमन कॉज' की याचिका को खारिज कर दिया. बेंच ने कहा कि उच्च संवैधानिक पदों पर बैठे लोगों को ‘लूज पेपर्स’ के आधार पर जांच का विषय नहीं बनाया जा सकता.

सहारा बिड़ला डॉक्यूमेंट्स की जांच इनकम टैक्स विभाग के केवी चौधरी की अगुवाई में की जा रही थी. उन्हें जून 2015 में चीफ विजिलेंस कमीशनर बना दिया गया. कॉमन कॉज ने उनकी नियुक्ति को चुनौती दी चूंकि उनके खिलाफ भ्रष्टाचार के कई आरोप थे. जून 2018 में जस्टिस मिश्रा की बेंच ने कॉमन कॉज की याचिका रद्द कर दी.

कुछ वकील और एक्टिविस्ट्स आरोप लगाते हैं कि जस्टिस मिश्रा उस दौर के सत्तारूढ़ दल के करीबी थे और इसी वजह से उन्होंने सहारा बिड़ला डायरी की जांच की मांग ठुकरा दी थी.
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भूमि अधिग्रहण विवाद

भूमि अधिग्रहण का मामला जस्टिस मिश्रा के दौर के प्रतीक के रूप में देख जा सकता है, जिसमें औचित्य के सवाल के साथ-साथ बड़े कॉरपोरेट्स को लाभ पहुंचाना और विवादास्पद कानूनी तर्क जैसे मसले जुड़े हुए थे.

23 अक्टूबर 2019 को जस्टिस अरुण मिश्रा ने खुद को पांच जजों की संवैधानिक बेंच से अलग कर लिया था. यह बेंच इस मामले पर फैसला सुनाने वाली थी कि क्या 2013 के भूमि अधिग्रहण कानून से संबंधित पहले के दो निर्णय सही थे.

बाद में उसी संवैधानिक बेंच ने मार्च 2020 में इस मुद्दे पर 2018 के फैसले को बरकरार रखा जिसे इत्तेफाक से जस्टिस मिश्रा ने ही लिखा था.

यह मामला भूमि अधिग्रहण में उचित मुआवजा और पारदर्शिता का अधिकार, पुनर्वास एवं पुनर्स्थापन अधिनियम, 2013 की धारा 24 (2) की विभिन्न व्याख्याओं से जुड़ा हुआ था.

2013 के कानून की धारा 24 (2) कहती है कि 1894 के पुराने भूमि अधिग्रहण के अंतर्गत शुरू कार्यवाहियां रद्द हो जाएंगी, अगर पांच साल के अंदर जमीन के मालिकों को ‘मुआवजा नहीं दिया जाता.’

जनवरी 2014 में उस समय के सीजेआई लोढ़ा ने पुणे म्यूनिसिपल कॉरपोरेशन के मामले में कहा था कि सरकारी खजाने में मुआवजे को जमा करने का यह अर्थ नहीं है कि जमीन के मालिकों को भुगतान कर दिया गया है.

फरवरी 2018 में इंदौर डेवलपमेंट अथॉरिटी मामले में जस्टिस मिश्रा की अध्यक्षता वाली तीन जजों की बेंच ने 2014 के फैसले के विरोध में निर्णय सुनाया. बेंच ने कहा कि सरकारी खजाने में धन जमा कराना, अधिग्रहण प्रक्रिया के लिए पर्याप्त है, भले ही किसान को भुगतान न किया गया हो.

विवाद क्या था?

फरवरी 2018 में जस्टिस मिश्रा की बेंच ने भ्रम की स्थिति पैदा कर दी. 2013 के कानून के अंतर्गत सुप्रीम कोर्ट और कई हाई कोर्ट्स में याचिकाएं दायर थीं. इसके अलावा 2:1 के बहुमत के साथ बेंच ने फैसला सुनाया था कि 2014 का फैसला ‘पेर इन्कूरियम’ (per incuriam) था, यानी इसे कानून के उन बिंदुओं की अनदेखी करके गलत तरीके से सुनाया गया था, जिन पर विचार किया जाना चाहिए था.

परंपरा के तौर पर सुप्रीम कोर्ट में एक बेंच का फैसला बाद की सभी बेंचों पर बाध्यकारी होता है, चाहे उनमें सदस्यों की संख्या कम हो या ज्यादा.

जस्टिस मिश्रा के 2018 के फैसले में ‘पेर इन्कूरियम’ वाले रिफरेंस को बड़े पैमाने पर अनुचित और कानूनी रूप से संदिग्ध माना गया क्योंकि सिर्फ एक बड़ी बेंच को पेर इन्कूरियम पर फैसला देना चाहिए, खास तौर से जब कोई एक जज संतुष्ट न हो.

इस संबंध में संवैधानिक बेंच में जस्टिस मिश्रा की मौजूदगी काफी विवादपूर्ण रही क्योंकि बेंच को यह तय करना था कि जस्टिस मिश्रा का 2018 का फैसला सही है या नहीं- तिस पर पेर इन्कूरियम के संदर्भ का औचित्य भी तलाशना था.

अक्टूबर 2019 में अखिल भारतीय किसान संगठन ने उस समय के सीजेआई रंजन गोगोई को चिट्ठी लिखी और उनसे अनुरोध किया कि जस्टिस मिश्रा को इस मामले की सुनवाई न करने दी जाए, चूंकि ‘वह 2018 के फैसले में इस मामले पर अपनी राय पहले ही जाहिर कर चुके हैं.’

जब सुनवाई शुरू हुई तो जस्टिस मिश्रा से खुद को इस मामले से अलग करने का अनुरोध किया गया जिसे उन्होंने एक फैसले में खारिज कर दिया. इसकी भी जबरदस्त आलोचना हुई.

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हरेन पंड्या की हत्या की गुत्थी

5 जुलाई 2019 को जस्टिस अरुण मिश्रा की अध्यक्षता वाली एक बेंच ने गुजरात के पूर्व गृह मंत्री हरेन पंड्या की हत्या के मामले में 12 लोगों को अपराधी ठहराया.

इसके लिए सुप्रीम कोर्ट की बेंच ने गुजरात उच्च न्यायालय के उस फैसले को खारिज कर दिया जिसमें उसने इन आरोपियों को बरी कर दिया था. साथ ही बेंच ने सीबीआई और गुजरात सरकार की अपील को मंजूर कर लिया.

गुजरात के पूर्व गृह मंत्री हरेन पंड्या को अहमदाबाद में 26 मार्च, 2003 को गोली मार दी गई थी. सीबीआई ने जांच के बाद कहा था कि 2002 में गोधरा दंगों का बदला लेने के लिए पंड्या की हत्या की गई थी.

अगस्त 2011 में गुजरात हाई कोर्ट ने हत्या के 12 आरोपियों को बरी कर दिया था और ट्रायल कोर्ट के 2007 के फैसले को रद्द कर दिया था, चूंकि उसने जांच में कई खामियां पाई थीं. ट्रायल कोर्ट ने अपराधियों को पांच साल से लेकर उम्र कैद तक की सजा सुनाई थी.

विवाद क्या था?

सीबीआई और गुजरात सरकार ने 2011 में गुजरात हाई कोर्ट के फैसले के तुरंत बाद सुप्रीम कोर्ट में अपील दायर की. अक्टूबर 2018 में यह अपील जस्टिस मिश्रा की अध्यक्षता वाली दो सदस्यीय पीठ के सुपुर्द कर दी गई.

बेंच ने जुलाई 2019 में गुजरात हाई कोर्ट के फैसले को खारिज कर दिया. यह राजनैतिक रूप से एक संवेदनशील मामला था. दिलचस्प बात यह थी कि यह फैसला लोकसभा चुनावों के कुछ ही हफ्तों बाद आया, जब नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भारतीय जनता पार्टी सत्ता में आई थी. इस मामले में अगर पहले फैसला सुनाया जाता तो इससे लोकसभा चुनावों पर राजनैतिक असर पड़ सकता था.

2011 के गुजरात हाई कोर्ट के फैसले में कहा गया था कि सीबीआई जांच ‘बहुत खराब तरीके से की गई थी’ और ‘गुमराह करने वाली थी’. लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि सीबीआई ने मामले की जांच ‘पूरी तरह’ और 'बारीकी से’ की थी.

जस्टिस मिश्रा ने एनजीओ सेंटर फॉर पब्लिक इंटरेस्ट लिटिगेशन (सीपीआईएल) की पीआईएल को भी खारिज कर दिया. पीआईएल में यह मांग की गई थी कि पंड्या हत्या मामले में नए तथ्यों के मद्देनजर अदालत की निगरानी में दोबारा जांच कराई जाए. इस पर बेंच ने सीपीआईएल पर ही 50,000 रुपए का जुर्माना लगा दिया था.

सीपीआईएल की ओर से प्रशांत भूषण ने सुप्रीम कोर्ट से इस मामले की नए सिरे से जांच करने की मांग की थी. उनका कहना था कि 2003 से गुजरात में मुठभेड़ों में हुई हत्याओं से नए तथ्य उभरकर आए हैं. गुजरात हाई कोर्ट ने आरोपियों को बरी करते हुए इस मामले में दूसरे लोगों के संबंधित होने की तरफ इशारा किया था.

लेकिन बेंच ने इस बात पर आपत्ति जताई कि प्रशांत भूषण जैसा वकील सीपीआईएल का प्रतिनिधित्व कर रहा है. बार काउंसिल ऑफ इंडिया के नियमों के अनुसार कोई वकील किसी ऐसे संगठन का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकता जिसकी गवर्निंग बॉडी का वह सदस्य हो.

प्रशांत भूषण और जस्टिस मिश्रा के बीच छत्तीस के आंकड़े का एक कारण यह भी है जो कि सहारा बिड़ला डायरी मामले से शुरू हुआ और अदालत की अवमानना के मामले के साथ खत्म. 
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दो सीजेआई का बचाव

जस्टिस मिश्रा उन बेंचों का हिस्सा रहे हैं जिन्होंने एक नहीं, दो पूर्व सीजेआई की मान-मर्यादा की रक्षा करने में अहम भूमिका निभाई.

14 नवंबर 2017 को जस्टिस मिश्रा की सदस्यता वाली तीन जजों की बेंच ने सीनियर वकील कामिनी जायसवाल की याचिका को खारिज कर दिया जिसमें उन्होंने अदालत की निगरानी में मेडिकल कॉलेज घूस मामले की एसआईटी जांच की मांग की थी. सीबीआई एक मेडिकल कॉलेज के मामले की जांच कर रहा थी. कॉलेज के लिए कहा गया था कि वह अपने पक्ष में फैसला सुनाने के लिए हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के मौजूदा जजों को घूस देने की कोशिश कर रहा है.

सीनियर वकीलों प्रशांत भूषण, कामिनी जायसवाल और दुष्यंत दवे ने सीजेआई के शामिल होने पर चिंता जताई क्योंकि उन पर आरोप लगाए जा रहे थे, हालांकि सीबीआई की एफआईआर में उनका नाम नहीं था

1 दिसंबर 2017 को कैंपेन फॉर ज्यूडीशियल एकाउंटेबिलिटी एंड रिफॉर्म्स (सीजेएआर) ने इसी मामले पर दूसरी पीआईएल दायर की. इसे भी जस्टिस आर के अग्रवाल, ए एम खानविलकर और अरुण मिश्रा की तीन सदस्यीय बेंच ने खारिज कर दिया. साथ ही सीजेएआर पर 25 लाख रुपए का जुर्माना भी लगाया गया.

20 अप्रैल 2019 को सीजेआई रंजन गोगोई पर यौन शोषण के आरोप लगाए गए. इसकी जांच के लिए विशेष बेंच बनाई गई तो उसमें भी जस्टिस अरुण मिश्रा मौजूद थे. ‘प्रॉपरायटी’ यानी औचित्य के सभी नियमों को ताक पर रखकर सीजेआई की अगुवाई में वह विशेष बेंच बनाई गई थी, यह बात और है कि बाद में उनका नाम रिकॉर्ड से हटा दिया गया.

इसके बाद जस्टिस मिश्रा की अगुवाई में तीन सदस्यीय बेंच ने यह बात पर विचार किया कि क्या सीजेआई को ब्लैकमेल करने के लिए एक बड़ा षडयंत्र रचा गया था. इस बेंच ने वकील उत्सव बैंस को नोटिस जारी किया. इसमें यह दावा किया गया था कि सीजेआई के खिलाफ यौन शोषण के आरोप न्यायपालिका को अस्थिर करने के षडयंत्र का हिस्सा थे.

रिटायर्ड जस्टिस एके पटनायक को मामले की जांच करने के बाद विस्तृत रिपोर्ट सौंपने को कहा गया.

विवाद क्या था?

ये दो मामले थे जब पूर्व सीजेआई उस बेंच का हिस्सा थे जो उनके मामलों की सुनवाई कर रही थीं.

मेडिकल कॉलेज घूस मामले में उस दौर के सीजेआई दीपक मिश्रा के खिलाफ आरोप थे. उन्होंने कहा था कि उन्हें यह तय करने का अधिकार है कि कौन सा जज इस मामले की सुनवाई करेगा. जांच की मांग करने वाली याचिकाओं को खारिज करने से विवाद उठा था, चूंकि यह मामला सीजेआई से संबंधित था और ‘मास्टर ऑफ द रोस्टर’ यानी चीफ जस्टिस के विशेषाधिकार के अनुसार, वह सिर्फ बेंच बनाने और मामले आवंटित करने के अधिकार का लाभ उठा सकते हैं.

यौन उत्पीड़न मामले की जांच के बाद रिटायर जस्टिस एके पटनायक ने सितंबर 2019 के अंत में एक बंद लिफाफे में अपनी रिपोर्ट सुप्रीम कोर्ट को सौंपी. इस रिपोर्ट पर अब तक सुनवाई नहीं हुई है और जस्टिस अरुण मिश्रा की अध्यक्षता में बनी स्पेशल बेंच ने अप्रैल 2019 से इस पर कोई सुनवाई नहीं की है.

सुप्रीम कोर्ट की जिस कर्मचारी ने यौन शोषण के आरोप लगाए थे, उसे जनवरी 2020 में बहाल कर दिया गया और उसके खिलाफ आपराधिक मामले रद्द कर दिए. मार्च 2020 में सीजेआई गोगोई को राज्यसभा में नामांकित कर दिया गया.

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आदिवासियों के 100% आरक्षण वाला फैसला

इस साल 22 अप्रैल को जस्टिस अरुण मिश्रा की अध्यक्षता वाली पांच सदस्यीय संवैधानिक बेंच ने आंध्र प्रदेश सरकार के एक आदेश को रद्द कर दिया. 2000 में आंध्र प्रदेश सरकार ने अधिसूचित क्षेत्रों में स्कूल टीचरों के पदों के लिए अनुसूचित जातियों के उम्मीदवारों को 100% आरक्षण दिया था. यह आदेश आंध्र प्रदेश और तेलंगाना, दोनों राज्यों में लागू था.

संवैधानिक बेंच ने कहा कि सरकारी आदेश मनमाना था और संविधान के अंतर्गत इसके लिए अनुमति नहीं है. बेंच ने 1992 के इंदिरा साहनी फैसले का हवाला दिया और आरक्षण पर अपनी मौजूदा स्थिति को दोहराया कि 50 प्रतिशत कोटा ही लागू होगा.

आदिवासियों और उनके हक की लड़ाई लड़ने वाले एक्टिविस्ट्स की तरफ से इस फैसले की काफी आलोचना हुई थी.

विवाद क्या था?

आंध्र प्रदेश और तेलंगाना के कई आदिवासी समूहों ने इस फैसले के खिलाफ देशव्यापी विरोध प्रदर्शन किए.

इन समूहों का कहना था कि अधिसूचित इलाकों में रहने वाले लोगों की जरूरतें, देश के दूसरे हिस्से में रहने वालों से बहुत अलग होती हैं. उनकी यह दलील भी थी कि बेंच का आदेश संविधान की पांचवी अनुसूची का उल्लंघन करता है जोकि आदिवासियों के अधिकारों का संरक्षण करता है.

अधिसूचित आदिवासी इलाकों में अच्छी शिक्षा देना सरकार के लिए एक बड़ी प्रशासनिक समस्या है. इस सरकारी आदेश के पीछे एक व्यावहारिक कारण यह भी था. इन इलाकों के स्कूलों में गैर आदिवासी टीचर्स काम नहीं करना चाहते इसीलिए अनुपस्थित रहते हैं जोकि सरकार के लिए एक चुनौती से कम नहीं. कोटा रद्द करने से वहां बच्चों को बेहतर शिक्षा प्राप्त होने की संभावना कम होती है.

(सह्रांशु महापात्र दिल्ली स्थित पत्रकार और सीएलसी, दिल्ली विश्वविद्यालय के एल्यूमनस हैं जोकि कानूनी और राजनैतिक मुद्दों पर लिखते हैं. वह @sahas पर ट्वीट करते हैं. यह एक ओपिनियन पीस है और इसमें व्यक्ति विचार लेखक के अपने हैं. द क्विंट न तो इसकी पुष्टि करता है और न ही इसकी जिम्मेदारी लेता है)

(हैलो दोस्तों! हमारे Telegram चैनल से जुड़े रहिए यहां)

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