वर्ल्ड बैंक के पूर्व चीफ इकनॉमिस्ट और भारत सरकार के पूर्व मुख्य आर्थिक सलाहकार प्रोफेसर कौशिक बसु का कहना है कि पिछले 70 साल में भारत ने जो कमाया था वो अब गंवा रहा है. अमेरिका की कॉर्नेल यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर बसु इसबात पर भी चिंता जताई है कि उत्तर प्रदेश की हालत बिगड़ रही है. उनना कहना है कि वो इस राज्य में धार्मिक उन्माद बढ़ने से चिंतित हैं.
कोरोना वायरस संकट के बाद भारत और दुनिया की अर्थव्यवस्था पर क्या असर पड़ा है? कामकाज का तरीका कैसे बदला है और लोगों की जिंदगी पर इसका कैसे असर पड़ा है? इसको लेकर इंस्टीट्यूट ऑफ ह्यूमन डेवलपमेंट की चर्चा में कॉर्नेल यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर कौशिक बसु और योजना आयोग के पूर्व उपाध्यक्ष मोटेंक सिंह अहलूवालिया ने अपने विचार रखे. इस चर्चा में उन्होंने राजनीतिक सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक मुद्दों पर विस्तार से बात की
कौशिक बसु कहते हैं कि हम सब कोरोना के हालात को दुनियाभर में देख रहे हैं. लेकिन हमें ये भी देखना चाहिए पहले भी ऐसे कई मौके आए हैं. 1968 में आए हॉन्ग-कॉन्ग फ्लू से करीब 10 लाख लोगों की मौत हुई थी, 1958 में एशियाई फ्लू आया उससे 15 से 20 लाख लोगों की मौत हुई, 1980 में स्पेशिन फ्लू आया ये भी बहुत बड़ा फ्लू था. तो इस लिहाज से ये समझना होगा कि दुनिया ने ऐसे कई झटके देखे हैं. फर्क ये है कि तब सोशल मीडिया नहीं था, तब हर दो मिनट में खबर नहीं मिलती थी. तो आज पल-पल की खबरों के कारण डर का माहौल ज्यादा है और ये बात समस्या को और बड़ा बना रही है.
कौशिक बसु ने 1990 के बाद की भारत की ग्रोथ स्टोरी पर बात करते हुए कहा कि 2003 से लेकर 2008 तक भारत की ग्रोथ रेट में लगातार तेजी देखने को मिली लेकिन भारत की ग्रोथ रेट पिछले सालों में लगातार तेजी से गिरी है. साल 2016-17 में भारत की ग्रोथ रेट 8.2% थी, जो 2019-20 में गिरकर 4.2% पर आ गई थी. लेकिन अब कोरोना संकट के बाद अनुमान लगाया जा रहा है कि ये गिरकर -5.8% पर आ चुकी है. जो कि चिंता का विषय है. बसु ने इसके पीछे के कारणों पर आगे विस्तार से बात की है.
कोरोना काल में सरकार की नीतियों में कोई प्लान नजर नहीं आया
कोरोना संक्रमण के बाद एक बहुत ही शॉर्ट नोटिस पर भारत में लॉकडाउन लगाया गया, उसके बाद सरकार के पास कोई प्लान नहीं था कि नौकरीपेशा लोगों का क्या होगा, दिहाड़ी मजदूरी करने वालों का क्या होगा. कौशिक बसु कहते हैं कि इस दौरान सरकार की नीतियों में कमी है. कोरोना संकट के बाद प्रधानमंत्री ने जिस पैकेज की घोषणा की थी. जब ऐलान हुआ तो बहुत खुशी हुई कि इतना बड़ा पैकेज सरकार दे रही है लेकिन जब पूरी तस्वीर सामने आई तो निराशा हुई.
सरकार को अब नए नोट छापने के बारे में सोचना चाहिए. मैं इसके पक्ष में इसलिए हूं क्योंकि हम एक विशेष परिस्थिति से गुजर रहे हैं. हां ये सही है कि इसकी वजह से महंगाई बढ़ सकती है लेकिन सतर्कता बरतते हुए ये किया जा सकता है. अब सरकार को चीजों पर नियंत्रण कम करना चाहिए. नई टैक्स नीति लानी चाहिए जिसमें अमीरों पर टैक्स लगाइए और गरीबों को उसका फायदा दीजिएप्रो. कौशिक बसु, पूर्व मुख्य आर्थिक सलाहकार, भारत सरकार
इकनॉमिक ग्रोथ के लिए भरोसे का होना जरूरी
कौशिक कहते हैं कि भारत में संस्थाओं की स्थिति खराब हो रही है. अगर ये ऐसे ही चलता रहा तो ये भारत के लिए अच्छा नहीं होगा. इकनॉमिक की कामयाबी के लिए भरोसे की जरूरत होती है. लेकिन बांटने और नफरत की राजनीति से हम अपना ही नुकसान कर रहे हैं, भरोसा जो सफलता की बुनियाद है उसे धक्का पहुंच रहा है.
जब तक लोग असुरक्षित महसूस करते हैं तब तक वो निवेश नहीं करते. निवेश का सीधा संबंध समाज में भरोसे से है. तो निवेश में जो भयानक गिरावट हुई है उसके पीछे भरोसे में गिरावट भी एक बड़ा कारण है. पिछले दिनों में आम लोगों में असुरक्षा का भाव आया है और उनका भरोसा टूटा हैप्रो. कौशिक बसु, पूर्व मुख्य आर्थिक सलाहकार, भारत सरकार
सरकार को धर्म, जाति, भाषा, क्षेत्र से ऊपर उठकर काम करना चाहिए
पिछले सालों में कश्मीर में कई सारी उठापटक हुई हैं. कौशिक बसु कहते हैं कि बतौर भारतीय मैं चाहता हूं कि कश्मीर भारत का हिस्सा रहे, लेकिन मैं कश्मीरी लोगों के दिल में अपनी जगह बनाते हुए ऐसा करना चाहता हूं. जिससे कि वो भी खुद को इस भारत का हिस्सा समझें. हमें इसी तरह से लोगों तक पहुंचना चाहिए.
मैं यहां साफ कर दूं कि मैं किसी भी राजनीतिक पार्टी का सदस्य नहीं हूं. अकादमिक स्वतंत्रता के लिए मैं किसी पार्टी के बंधन में नहीं बंध सकता. बतौर सरकार हमें धर्म, जाति, रंग, भाषा, क्षेत्र इन सब से ऊपर उठकर सभी के प्रति समान बर्ताव रखना चाहिए. ये सारी बातें इकनॉमिक ग्रोथ के लिए बहुत जरूरी हैंप्रो. कौशिक बसु, पूर्व मुख्य आर्थिक सलाहकार, भारत सरकार
विचारों की विविधता के सम्मान का यादगार लम्हा
पिछले प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने मुझे अपनी सरकार में बतौर चीफ इकनॉमिक एडवाइजर नियुक्त किया. वो जानते थे कि मैं किसी भी पार्टी से नहीं हूं और मैं उनकी सरकार और नीतियों को लेकर आलोचनात्मक भी था. लेकिन उनके लिए सबसे अहम ये था कि मैं उनके सामने कितने आइडिया लाता हूं. कौशिक बताते हैं कि '2011 का एक वाकया मुझे याद आता है कि मैंने एक अखबार में लेख लिखा कि भारत का भ्रष्टाचार निरोधी कानून संशोधित किया जाना चाहिए. मैंने तर्क किया कि रिश्वत देने वाले को सजा नहीं होनी चाहिए सिर्फ रिश्वत लेने वाले अधिकारी/कर्मचारी को सजा होनी चाहिए. मेरे इस विचार पर काफी बवाल हुआ. कई लोगों ने तब के प्रधानमंत्री, वित्त मंत्री को पत्र लिखे और सलाह दी कि इनको सरकार से बाहर किया जाना चाहिए. तब मुझे एक टीवी चैनल पर अपने विचार रखने के लिए बुलाया गया, मैंने सोचा कि टीवी पर जाने से पहले मुझे प्रधानमंत्री से पूछना चाहिए.'
मैंने मनमोहन सिंह को फोन किया. प्रधानमंत्री ने कहा मैंने आपके विचार अखबार में पढ़े लेकिन मैं आपसे इस मामले में असहमत हूं. मैंने उनसे तर्क करने की कोशिश की लेकिन प्रधानमंत्री से कितनी देर तर्क किया जा सकता है. उन्होंने कहा कि भले ही मैं आपसे असहमत हूं लेकिन आपको अपने विचार अभिव्यक्त करना ही चाहिए. एडवाइजर का काम है कि वो ज्यादा से ज्यादा आइडिया सुझाए. तो आप टीवी पर जाने के लिए आजाद हैं और अपने विचार रखेंप्रो. कौशिक बसु, पूर्व मुख्य आर्थिक सलाहकार, भारत सरकार
कौशिक कहते हैं कि वो मेरे लिए बहुत यादगार क्षण थे. भारत को इस तरह की घटनाओं के लिए गर्व होना चाहिए. भारत को एक खुला समाज होना चाहिए, जहां पर अलग-अलग तरह के विचारों पर चर्चा हो. ये बहुत बढ़िया उदाहरण है कि मनमोहन सिंह कैसे सही मायनों में एक मजबूत और आत्मविश्वास से भरे हुए नेता थे. वो विचारों की विविधता का सम्मान करते थे.
पिछले 2-3 साल में उत्तर प्रदेश में बिगड़ा सामाजिक ताना-बाना
अर्थशास्त्री कौशिश बसु उत्तर प्रदेश की स्थिति को लेकर काफी चिंतित हैं. वो कहते हैं कि 'उत्तर प्रदेश एक ताजा उदाहरण है, जहां पर पिछले दिनों में सामाजिक ताने बाने पर बुरा असर पड़ा है. ये भारत की वैश्विक छवि पर विपरीत असर डाल रहा है. शिक्षण संस्थानों के मामले में उत्तर प्रदेश किसी जमाने में भारत में अगली पंक्ति में आया करता था. कुछ साल पहले तक इलाहाबाद, लखनऊ, वाराणसी के विश्वविद्यालय तब भारत को वैचारिक नेतृत्व दिया करते थे.
पिछले 2-3 साल में उत्तर प्रदेश में जो हुआ है वो काफी निराशाजनक है. कानून-व्यवस्था की बिगड़ती हुई स्थिति, धार्मिक उन्माद का बढ़ता स्तर, अल्पसंख्यकों के प्रति बढ़ती नफरत, राय अलग हुई तो चुप कराया जाना, ये सब भारत की परंपरा के खिलाफ है. अगर आज विवेकानंद होते तो वो ये सब देखकर बहुत परेशान होते. उनके धर्म के नाम पर जो नफरत फैलाई जा रही वो देखकर काफी दुखी होते. पिछले 70 सालों में भारत ने धर्मनिरपेक्षता, समानता, बहुलता, लोकतंत्र इन्हीं मूल्यों को कमाया है. लेकिन अब हम वो खो रहे हैं. "प्रो. कौशिक बसु, पूर्व मुख्य आर्थिक सलाहकार, भारत सरकार
इतिहास की गलतियों को नहीं भूला जा सकता
आर्थिक मोर्चे पर गलतियां हुई हैं इससे कोई इनकार नहीं कर सकता. जैसे हमने उच्च शिक्षा पर काफी ज्यादा ध्यान दिया लेकिन उसकी तुलना में हमने बेसिक शिक्षा पर खास काम नहीं किया. हमने लाइसेंस राज कायम किया जो इकनॉमिक ग्रोथ में बाधा बना, लेकिन 1990 के बाद हुए सुधारों के बाद भारत ने अच्छी रिकवरी की. मनमोहन सिंह और नरसिंह राव सरकार ने काफी अच्छे फैसले किए. इसके बाद 2003 में वाजपेई सरकार को भी इसका क्रेडिट जाता है. 2006 तक भारत दुनिया की 3 सबसे तेजी से आगे बढ़ने वाली इकनॉमी में शामिल था. लेकिन 2016 के बाद भारत ढलान की तरफ बढ़ रहा है और ये अभी शुरू नहीं हुआ. इस मोदी सरकार आने के पहले से ही ये होना शुरू हो गया था.
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