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नागरिकता संशोधन बिल पर शिवसेना- ‘बाहर का बोझ छाती पर लिया जा रहा’

सामना ने इस संपादकीय में क्रेंद की सरकार और बीजेपी पर निशाना साधा है

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शिवसेना ने अपने मुखपत्र सामना में 09 दिसंबर को नागरिकता संशोधन बिल को लेकर “मोदी-शाह के लिए यह सहज ही संभव है हिम्मत दिखाओ!” इस शीर्षक के साथ संपादकीय लिखा है. सामना ने इस संपादकीय में केंद्र की सरकार और बीजेपी पर निशाना साधा है. सामना ने लिखा है कि राष्ट्रहित कितना है और वोट बैंक की राजनीति कितनी, इस पर बहस शुरू है. सरकार ने इस बिल के जरिए हिंदू-मुसलमान का विभाजन किया है.

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सामना लिखता है- ‘मुंबई जैसे शहर, महाराष्ट्र जैसे राज्य पर पहले ही बाहरी लोगों का बोझ है. ऐसे में हम पहले ही अभावग्रस्त थे उस पर बाहर से हांके गए लोगों को वैसे पोसा जाए, ये सवाल है.’

‘बाहर का बोझ छाती पर लिया जा रहा है’

सामना ने लिखा है कि “हमारे देश में क्या समस्याओं की कमी है? जो बाहर का बोझ छाती पर लिया जा रहा है. देश की अर्थव्यवस्था में जबरदस्त गिरावट आई है. कांदे का वांदा हो गया है, ऐसे में हमारे शासक पास-पड़ोस के चार-पांच देशों के नागरिकों को हिंदुस्थान की नागरिकता देने का निर्णय ले रहे हैं. इसमें राष्ट्रहित कितना है और वोट बैंक की राजनीति कितनी, इस पर बहस शुरू है. नागरिकता सुधार विधेयक लाकर ऐसा कानून बनाया जा रहा है. इसके जरिए हिंदू और मुसलमान ऐसा विभाजन सरकार ने कर दिया है.”

‘वोटबैंक की राजनीति देशहित में नहीं’

सामना ने वोटबैंक की राजनीति पर बीजेपी पर निशाना साधते हुए लिखा- ‘देश के बहुसंख्य प्रमुख राजनैतिक दलों ने नागरिकता संशोधन विधेयक का विरोध किया है. उसमें भाजपा के ईशान्य के नेता भी हैं. असम में भाजपा का शासन नहीं होता तो वर्तमान मुख्यमंत्री सोनोवाल भी आसाम की संस्कृति की रक्षा के लिए सड़क पर उतरे ही होते. हमने खुद इस बारे में कई बार चिंता व्यक्त की. घुसपैठियों को खदेड़ना ही चाहिए लेकिन इसके बदले अन्य धर्मीय उनमें हिंदू बंधु हैं, उन्हें स्वीकार करने की राजनीति देश में धर्मयुद्ध की नई चिंगारी तो नहीं भड़काएगी न? हिंदुओं के लिए दुनिया के कोने पर हिंदुस्थान के अलावा अन्य कोई देश नहीं है, यह स्वीकार है. लेकिन नागरिकता संशोधन विधेयक के माध्यम से ‘वोट बैंक’ की नई राजनीति इसमें से कोई करने की सोच रहा होगा तो यह देशहित में नहीं होगा.’

शरणार्थियों को न मिले 25 साल तक वोटिंग का अधिकार

शिवसेना ने सामना में लिखे इस संपादकीय में एक सुझाव भी दिया है. “जिन घुसपैठिए निर्वासितों को तुम यहां नागरिक के रूप में बसाना चाहते हो उन्हें अगले लगभग पच्चीस सालों तक मतदान का अधिकार नहीं मिलेगा. ऐसा सुधार नए विधेयक में किया जा सकता है क्या? मतलब यह वोट बैंक की राजनीति न होकर सरकार का उद्देश्य मानवतावादी तथा राष्ट्रीय सुरक्षा की दृष्टिकोण वाला होगा इस पर लोगों का विश्वास बैठेगा. दूसरा यह कि दूसरे देशों के नागरिकों अथवा अल्पसंख्यकों को हम स्वीकार करने की बजाय मोदी-शाह की मजबूत इरादोंवाली सरकार सीधे कोई साहसी प्रयोग करे.”

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