बाजार होना ही भारत के लिए सबसे बड़ा हथियार
टीएन नाइनन बिजनेस स्टैंडर्ड में लिखते हैं कि अभी दो साल भी नहीं हुए हैं जब सऊदी अरब ने 6.2 अरब डॉलर की मदद पाकिस्तान को की थी. इनमें से आधी रकम का तेल उधार देने का वादा था. अब उसने पाकिस्तान से उधार लौटाने को कहा है और तेल भी उधार पर देना रोक दिया है. ऐसे में चीन पाकिस्तान की मदद को सामने आया है और उसने आपात नकद मदद की है. इस बीच आईएमएफ से भी पाकिस्तान को 6 अरब डॉलर का मिलने वाला लोन ठंडे बस्ते में चला गया है.
कश्मीर मुद्दे पर सऊदी अरब और यूएई ने पाकिस्तान के आवाज उठाने की अनदेखी की है. यह सब इसलिए हो रहा है क्योंकि खाड़ी की राजनीति बदली है. भारत कच्चे तेल का सबसे बड़ा खरीदार है. ऐसे देश को कोई नाराज करना नहीं चाहेगा. कश्मीर पर टिप्पणी करने के बाद भारत ने पाम ऑयल का आयात रोककर मलेशिया को उचित जवाब दे दिया था.
नाइनन लिखते हैं कि भारत का बड़ा बाजार ही सबसे बड़ा हथियार है. मोबाइल फोन में विश्व बाजार में दूसरे नंबर का बाजार है भारत, तो सौर ऊर्जा उपकरणों के लिए तीसरा सबसे बड़ा बाजार है यह देश. हथियारों का दूसरा सबसे बड़ा आयातक देश है भारत, तो फेसबुक और टिकटॉक जैसे उपभोक्ता आधारित कंपनियों के लिए भी सबसे बड़ा बाजार हैं हम.
दुनिया में 5वीं अर्थव्यवस्था होकर यह शक्ति भारत ने हासिल की है. चीन इस ताकत का इस्तेमाल दुनिया भर में करता रहा है. सीमा विवाद के मामले में भी भारत की इस भाषा को चीन समझने लगा है. तमाम टकरावों के बीच अमेरिका की नीति भारत के साथ सहयोग की रहने वाली है क्योंकि भारत हथियारों का बड़ा खरीदार है. इसी तरह तेल उत्पादक देश भारतीय प्रधानमंत्री का पलक पावड़े बिछाकर स्वागत करने को तैयार हैं क्योंकि वे पीएम मोदी को नाराज करना नहीं चाहते. रूस अब भी भारत का सबसे ज्यादा हथियारों की आपूर्ति कर रहा है.
धार्मिक सहिष्णुता को बढ़ावा दे सरकार
मार्क टली हिन्दुस्तान टाइम्स में लिखते हैं कि राम मंदिर के शिलान्यास के बाद से धर्म की भूमिका को लेकर नये सिरे से भारत में बहस छिड़ गयी है. तीन सोच हैं. एक नेहरूवादी धर्मनिरपेक्षता है जो धर्म और राष्ट्र के बीच किसी संबंध का विरोध करती है. दूसरा विकल्प हिन्दुत्व है जो मानता है कि हिन्दू धर्म और संस्कृति को ही भारतीय राष्ट्रवाद का निर्माता होना चाहिए. तीसरी सोच है कि सभी भारतीय धर्मों को महत्व मिले, साथ ही साथ धार्मिक सहिष्णुता को भी आगे बढ़ायी जाए. कांग्रेस और बीजेपी के बीच पहली और दूसरी सोच में संघर्ष है और इसलिए तीसरा गांधीवादी विकल्प कहीं खो-सा गया है.
टली लिखते हैं कि सभी धर्मों में सहिष्णुता के प्रमाण हैं. हालांकि असहिष्णुता के उदाहरण भी रहे हैं. वे हिन्दू धर्म को इस वजह से बाकी से अलग बताते हैं कि सहिष्णुता को इसमें न सिर्फ प्रमुखता दी जाती है बल्कि हिन्दू इस पर गर्व भी करते हैं.
विद्वानों और लेखकों के हवाले से वे लिखते हैं कि जो सहिष्णुता हिन्दुओं में है, वही दूसरे धर्मों में भी होनी चाहिए. सूफीवाद का उदाहरण रखते हुए वे लिखते हैं कि इस्लाम में भी सहिष्णुता थी. इस वजह से वह भारत में फैल सका. वे लिखते हैं कि पढ़े लिखे लोग ही आम लोगों के पीच मतभेदों को बढ़ाते हैं. अब यह राज्य पर निर्भर करता है कि वह यह तय करे कि उसे धार्मिक सहष्णुता को बढ़ाना है या नहीं. मगर, ऐसा करते हुए यह भी देखा जाना चाहिए कि ऐतिहासिक रूप से सभी मान्यताओं के बीच सहिष्णुता एक सच्चाई है.
सुप्रीम कोर्ट में घटा है लोगों का विश्वास
रामचंद्र गुहा ने द इंडियन एक्सप्रेस में सुप्रीम कोर्ट के जज को संबोधित एक चिट्ठी लिखी है जिसकी बहुत चर्चा हो रही है. इसमें वे लिखते हैं कि सुप्रीम कोर्ट के कामकाज के प्रति लोगों का विश्वास कम हुआ है जो भारतीय लोकतंत्र के पतन का ही हिस्सा है. उन्होंने साफ किया है कि भारतीय लोकतंत्र में गिरावट लाने का काम कांग्रेस ने शुरू किया था जब वह सत्ता में थी. और, अब यही काम बीजेपी सरकार आगे बढ़ा रही है.
यूएपीए कानून को खारिज करने से सुप्रीम कोर्ट का इनकार, बड़े मामलों की सुनवाई में देरी, कश्मीर में छात्रों और बच्चों को बुनियादी मानवाधिकारों से वंचित रखना, साल भर से इंटरनेट बंद करना जैसे कई उदाहरण हैं जिससे सुप्रीम कोर्ट की प्रतिष्ठा बढ़ी नहीं है.
रामचंद्र गुहा ने उदाहरण देते हुए लिखा है कि कैदी मां से मिलने को तड़प रही बेटी से सुप्रीम कोर्ट के जज की सलाह कि वह ठंड से बचे, प्रशंसनीय नहीं है. एक अन्य न्यायाधीश ने लॉकडाउन के दौरान बेरोजगार प्रवासी मजदूरों से कहा कि उन्हें वेतन की मांग नहीं करनी चाहिए. खाना तो मिल रहा है ना. गुहा लिखते हैं कि मुख्य न्यायाधीश अगर ऐसी निष्ठुर और संवेदनहीन बातें करेंगे तो यह सुप्रीम कोर्ट के लिए अच्छी बात नहीं है.
विभिन्न लेखों और विद्वानों की राय रखते हुए रामचंद्र गुहा लिखते हैं कि मौजूदा समय के पतन को रोका जा सकता है. लेकिन, सुप्रीम कोर्ट अधिनायकवादी और सांप्रदायिक कट्टरता रोकने की दिशा में कुछ करता नहीं दिख रहा है. वे आगाह करते हैं कि कहीं आने वाली पीढ़ियां यह मूल्यांकन न कर बैठे कि सुप्रीम कोर्ट और कार्यकारी में मिलीभगत रही हो.
सबसे बुरे दौर में पर्यटन, नयी शुरुआत की जरूरत
सुमन बिल्ला हिन्दुस्तान टाइम्स में लिखते हैं कि विश्व पर्यटन अब तक के सबसे बुरे दौर से गुजर रहा है. संयुक्त राष्ट्र विश्व पर्यटन संगठन का अनुमान है कि दुनिया भर में पर्यटकों की संख्या में 58 फीसदी से 78 फीसदी तक की कमी होने जा रही है. इसका मतलब है कि करीब एक अरब पर्यटक कम हो जाएंगे. मुश्किल यह है कि कोविड-19 से सबसे पहले प्रभावित होने वाला क्षेत्र भी पर्यटन है और सबसे अंतिम में उबरने वाला भी यही क्षेत्र होगा. ऐसे में जरूरी यह है कि पर्यटन उद्योग से जुड़े लोग और सरकार मिलकर इस योजना पर काम करे कि किस तरह अस्तित्व बचाया जाए, इस क्षेत्र का पुनरोद्धार हो और दीर्घकालिक नीति तैयार की जाए.
कारोबार और नौकरी दोनों एक साथ बचाने की चुनौती पर्यटन क्षेत्र को है. लेखक लोन रीपेमेंट के लिए वक्त देने की मांग करते हैं. केंद्र सरकार को लोन का कुछ हिस्सा माफ करने पर भी विचार करना चाहिए.
कम से कम 2.4 करोड़ भारतीय पर्यटक दुनिया में घूमते हैं और करीब 25 अरब डॉलर खर्च करते हैं. ऐसे पर्यटकों को स्थानीय पर्यटन की ओर आकर्षित करने पर हमें ध्यान देना चाहिए. हमें पर्यटन के गंतव्यों की प्राथमिकता बनानी चाहिए.
भारत सरकार और पर्यटन से जुड़े लोग मिलकर ग्लोबल कॉन्फ्रेन्स जैसी चीजें संगठित करें ताकि दुनिया को यह संदेश जाए कि भारत में कारोबार लौट रहा है. इस महामारी ने हमें यह अवसर दिया है कि हम नये सिरे से शुरुआत करें ताकि आर्थिक प्रगति और विकास का स्थायी सशक्त इंजन तैयार हो सके.
73 साल बाद भी नियति से मिलन का इंतजार
पवन के वर्मा द टाइम्स ऑफ इंडिया में लिखते हैं कि 73 सालों में भारत ने दूरी तय की है लेकिन नियति से साक्षात्कार होना अब भी बाकी है. दुनिया का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश बने रहना गर्व का विषय है. 91.1 करोड़ वोटरों में 60 करोड़ वोटरों की हिस्सेदारी दुनिया का इकलौता उदाहरण है. लेकिन, लोकतंत्र में धन और बल का बढ़ा है. विधायक खरीदे जा रहे हैं, संवैधानिक संस्थाएं दबाव में हैं, असहिष्णुता बढ़ गयी है. संसद में बहस नदारद हो गये हैं.
पवन वर्मा लिखते हैं कि पांचवीं अर्थव्यवस्था हम जरूर बन चुके हैं लेकिन यह भी सच है कि महज 1 फीसदी अमीरों के पास 58.4 फीसदी दौलत है. 10 प्रतिशत अमीरों के पास 80.7 फीसदी दौलत है. जबकि अंतिम 10 फीसदी लोगों के पास महज 0.2 फीसदी दौलत है. वे लिखते हैं 2005 से 2016 के बीच 27 करोड़ लोगों को गरीबी रेखा से ऊपर उठना बड़ी उपलब्धि है. फिर भी दुनिया के सबसे ज्यादा गरीब भारत में ही हैं.
प्रति व्यक्ति आय के मामले में भारत दुनिया में 139वें नंबर पर है. इसी तरह ग्लोबल हंगर इंडेक्स में भारत का 117 देशों में 102वां स्थान रहना चिंताजनक है. आधा वर्कफोर्स कृषि में लगा है लेकिन जीडीपी में योगदान सिर्फ 16 फीसदी है. अगर मॉनसून फेल जाए तो किसानों का मुआहाल हो जाता है. ईज ऑफ डुइंग बिजनेस में भारत की रैंकिग 2014 में 139 के मुकाबले 2019 में 63 पर आ चुकी है. इस तरह विभिन्न पैमानों पर उपलब्धियां भी हैं तो चिन्ताजनक स्थितियां भी.
चुनाव की तैयारी है तमिलनाडु में भाषा का विवाद
अमृत लाल द इंडियन एक्सप्रेस में लिखते हैं कि पिछले हफ्ते सांसद कनिमोझी करुणानिधि ने शिकायत की थी कि एक सीआईएसएफ के कर्मचारी ने चेन्नई एअरपोर्ट पर उनसे पूछ डाला कि वे भारतीय हैं या नहीं. ऐसा इसलिए कि कनिमोझी ने उस कर्मचारी से अंग्रेजी या तमिल में बात करने को कहा था. इस घटना से एक
हफ्ते पहले ही मुख्यमंत्री ई पलनीस्वामी ने नयी शिक्षा नीति में प्रस्तावित त्रि-भाषा फॉर्मूले को ठुकरा दिया था. उन्होंने इसे हिन्दी थोपने के तौर पर देखा. कनिमोझी और पलनीस्वामी दोनों द्रवुड़ आंदोलन वाली भाषा बोल रहे हैं. तमिल इलाकों में भाषा को लेकर अतिवाद बढ़ाने में पेरियार और अन्ना का नेतृत्व रहा था.
तमिल पहचान को लेकर जब राजनीति शुरू हुई तो ग्लोबल तमिल समुदाय भी इकट्ठा हुआ. इनमें श्रीलंका, मलेशिया, दक्षिण अफ्रीका आदि देशों से भी लोग आए.
अमृतलाल लिखते हैं कि 1937 में मद्रास प्रेजिडेंसी में तमिल पहचान की बात ने जोर पकड़ा था. दूसरी बार 1963 में इसने जोर पकडा जब ऑफिशियल लैंग्वेज एक्ट 1963 लाया जा रहा था. 1964 में चिन्नासामी के आत्मदाह ने हिन्दी विरोध के आंदोलन को तेज गति दे दी. 1967 में सत्ता में आए डीएमके के लिए यह आंदोलन वरदान साबित हुआ. मगर, बदली हुई परिस्थिति में तमिलनाडु की दोनों पार्टियां केंद्र की सरकारों के साथ सत्ता में रह चुकी हैं. यहां तक कि बीजेपी के साथ भी, जो अक्सर हिन्दी भाषा को लेकर खास नजरिया रखती आयी है. ऐसे में नये सिरे से भाषा को पूरे तेवर के साथ मुद्दा बनाने की कोशिश का मकसद एक साल बाद होने वाला विधानसभा चुनाव है. बीजेपी भी विकल्प की तलाश में है.
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