खर्च, उधारी, मोनेटाइजेशन ही रास्ता
पी चिंदबरम ने द इंडियन एक्सप्रेस में प्रकाशित अपने लेख में लिखा है कि 11 मार्च को विश्व स्वास्थ्य संगठन ने कोविड-19 को महामारी घोषित किया था. मगर, उसके पहले से ही हमारे देश की अर्थव्यवस्था लगातार 7वीं तिमाही में गिरावट दिखा रही थी. मार्च महीने में निश्चित रूप से लॉकडाउन जरूरी था, मगर वैकल्पिक रणनीति के अभाव में सरकार एक के बाद एक लॉकडाउन का फैसला लेती चली गयी. तीसरे लॉकडाउन के बाद केंद्र सरकार ने राज्य सरकारों पर सारा बोझ डाला, जबकि राज्य सरकारें हर बात के लिए केंद्र पर निर्भर है.
चिदंबरम लिखते हैं कि भारत में सिक्किम जैसा राज्य भी है जहां एक भी कोरोना का मरीज नहीं है और महाराष्ट्र भी है जहां देश में कोरोना मरीजों का 35 फीसदी हैं. मोदी सरकार ने वास्तविकता को समझे बिना उस रास्ते से चलने से इनकार कर दिया, जिससे महामारी के आर्थिक नतीजे से मुकाबला किया जा सकता था.
राजकोषीय प्रोत्साहन को सभी जरूरी मान रहे हैं. 2020-21 के लिए व्यय बजट 30,42,230 करोड़ रुपया है. मगर, अब परिस्थिति बदल गयी है. नये बजट की जरूरत है. व्यय बजट बढ़ाकर 40 लाख करोड़ होना चाहिए. विभिन्न स्रोतों से 18 लाख करोड़ रुपये की प्राप्ति के आसार लगते हैं, इसलिए उधारी बजट अनुमान 22 लाख करोड़ रुपये तक पहुंच जाएंगे. लेखक नोट छापने का विकल्प सुझाते हैं और कहते हैं कि 2008-09 में मंदी के दौर में कई देशों ने यह राह चुनी थी. बेरोजगारी से बचने और घर लौटते मजदूरों को बदहाली से बचाने का रास्ता यही है कि अधिक से अधिक खर्च, उधारी और मौद्रिकरण हो.
मोदी के लिए ‘अच्छे दिन’ गायब
तवलीन सिंह ने द इंडियन एक्सप्रेस में लिखा है कि बुरे दिन तो सबके चल रहे हैं लेकिन वास्तव में सबसे ज्यादा बुरे दिन देख रहे हैं हमारे प्रधानमंत्री. दूसरे दौर के कार्यकाल का पहला साल खत्म होने को है लेकिन ढूंढ़ने से भी जश्न मनाने का अवसर नहीं मिल रहा है. तवलीन लिखती हैं कि बीते साल अगस्त महीने में अरुण जेटली के देहावसान के बाद से सरकार की प्राथमिकताएं बदल गयीं. देश को आर्थिक महाशक्ति और जगतगुरू बनाने के बजाए देश को हिन्दू राष्ट्र बनाना मकसद हो गया.
इस मुश्किल राह को और अधिक मुश्किल बनाया गृहमंत्री अमित शाह ने. बांग्लादेशी मुसलमानों के ‘दीमक’ की तरह फैल जाने और चुन-चुन कर निकालने की बात कहने उन्होंने कही. इस बीच जब राष्ट्रीयता कानून में संशोधन हुआ तो स्थिति बिगड़ गयी. अमित शाह ने दिल्ली चुनाव में वोट इस तरह डालने को कहा कि करंट शाहीनबाग को लगे. दुनिया में नरेंद्र मोदी ने जो साख बीते कार्यकाल में कमायी थी, वह दिल्ली दंगे के दौरान मिट्टी में मिल गयी.
तवलीन लिखती हैं कि ऐसे माहौल में महामारी आ गयी. 18 दिन में महाभारत की तर्ज पर 21 दिन में महामारी को परास्त करने का एलान प्रधानमंत्री ने किया. मगर, ऐसा नहीं हुआ. मजदूर सैकड़ों किमी पैदल चलने को सड़क पर निकल आए. दो महीने बाद कुछ ट्रेनें शुरू हुई हैं और बसें भीं, मगर निजी तौर पर नरेंद्र मोदी का बहुत नुकसान हो चुका है.
यह धारणा टूट गयी है कि मोदी शासन चलाने में माहिर हैं. लॉकडाउन में मजदूरों को ध्यान में नहीं रखा गया. राहत देते वक्त भी विवेक का इस्तेमाल नहीं हुआ. अब मंत्री कह रहे हैं कि लॉकडाउन खोलने का काम राज्य सरकारों का है, केंद्र का नहीं. कभी मोदी के लिए अच्छे दिन हुआ करते थे, मगर इस साल उनके लिए अच्छे दिन गायब हो चुके हैं.
जरूरी हैं ये पांच राजनीतिक सुधार
हिन्दुस्तान टाइम्स में चाणक्य ने भारत में राजनीतिक सुधारों की वकालत की है. पीएम नरेंद्र मोदी के आत्मनिर्भर भारत का जिक्र करते हुए वे लिखते हैं कि इस बात को भूल जाएं कि राहत पैकेज से किसे फायदा हुआ किसे नहीं, तो एक बात साफ है कि कई सुधारों का रास्ता इसने तैयार कर दिया है. संकट अवसर लेकर आता है, इस बात की याद दिलाते हुए चाणक्य भारतीय राजनीति में पांच सुधार जरूरी बताते हैं- व्यक्तिगत अधिकार, संस्थागत स्वायत्तता, उदार संघीय ढांचा, राजनीतिक दलों में सुधार और चुनाव में वित्तीय समर्थन.
चाणक्य लिखते हैं कि भारत को चार्टर ऑफ फ्रीडम की जरूरत है. राजद्रोह कानून खत्म हो, इंटरनेट का अधिकार मौलिक अधिकार हो, मानहानि सिविल केस बने, आर्म्ड फोर्सेस स्पेशल पावर एक्ट को हल्का बनाया जाए.
लेखक वकालत करते हैं कि चुनाव आयोग मजबूत हो, कार्यपालिका के दबाव से संसद मुक्त रहे, न्यायपालिका पूरी तरह से संविधान के हिसाब से चले, भ्रष्टाचार पर निगरानी रखने वाली संस्थाएं स्वतंत्र रहें और वे विरोधियों के लिए शिकारी कुत्ते न बनें. सीबीआई जैसी संस्थाएं दबाव से मुक्त हों. चाणक्य संघीय ढांचे को लचीला बनाने की वकालत करते हैं.
वे मोदी के को-ऑपरेटिव फेडरलिज्म की वकालत करते हैं. लंबे समय तक गुजरात का सीएम रहने को लेखक उम्मीद बताते हैं. जीएसटी आने से केंद्र की ताकत बढ़ी है. केंद्र, राज्य और समवर्ती सूची का फिर से अवलोकन हो, ऐसी वकालत लेखक करते हैं. राजनीतिक दलों को जागीर की तरह इस्तेमाल होने से चिंतित लेखक आंतरिक लोकतंत्र की वकालत करते हैं. नियमित चुनाव को वे जरूरी बताते हैं. राजनीतिक दलों के लिए लेखक वित्तीय व्यवस्था बनाने की वकालत करते हैं जिसके अभाव में क्रोनी कैपिटलिज्म और राजनीति में अपराधीकरण तेज हुए हैं.
याकूब-अमृत की यादगार तस्वीर
करण थापर ने हिन्दुस्तान टाइम्स में याकूब-अमृत की यादगार तस्वीर और उससे जुड़ी घटना पर पूरा एक लेख ही लिख डाला है. वे कहते हैं कि विजयी मुस्कान, कंधे थपथपाना, कपटपूर्ण तरीके से आंख मारना- ये ऐसी चीजें जो शब्दों से अधिक मायने रखते हैं. मोहम्मद याकूब के अविश्वसनीय व्यवहार पर सरकार या बीजेपी की ओर से एक शब्द भी नहीं कहे जाने से लेखक चिंतित हैं. ट्रक में सवार होकर सूरत से बिहार के लिए निकले याकूब ने किस तरह अपने बीमार साथी अमृत का साथ दिया. ट्रक से बीच सड़क पर उतरकर अपनी गोद में अपने मित्र का सिर रखकर प्यार दिया, उसकी सेवा की, वह भूलने वाली बात नहीं है.
यह सब करने के पीछे उसकी भावना बस यही थी कि जैसे उसके घर वाले याकूब इंतजार कर रहे थे, वैसे ही अमृत के घरवाले भी बिहार के बनपट्टी में उसका इंतजार कर रहे होंगे.
थापर लिखते हैं कि राजनीतिक दल इस घटना को अपनी जुबान बना सकते थे. नागरिकता संशोधन कानून, दिल्ली दंगे, तबलीगी जमात जैसी विभाजनकारी घटनाओं के बीच मोहब्बत बढ़ाने वाली यह तस्वीर समाज को जोड़ने का काम करती. दुनिया भर में भारत की जो गलत तस्वीरें बीते दिनों बनी हैं, उसके लिए भी यह अवसर एक संदेश होता. लेखक को अब भी उम्मीद है कि प्रधानमंत्री ने अब तक अगर इस घटना पर कोई टिप्पणी नहीं की है तो आगे ‘मन की बात’ में इसका जिक्र वे जरूर करेंगे. मुसलमानों से व्यवहार को लेकर जो भ्रम दुनिया में बना है वह इस घटना के जिक्र से टूटेगा.
भारत के बाबुओं में कुछ तो गड़बड़ है
द टाइम्स ऑफ इंडिया में चेतन भगत ने गृह मंत्रालय के एक सर्कुलर का जिक्र कर सरकार में बाबूशाही पर सवाल उठाया है. उन्होंने लिखा है कि दुनिया भर में बदलाव हो रहे हैं लेकिन भारत के बाबू सुधरने को तैयार नहीं हैं. कोविड-19 को लेकर जारी सर्कुलर जिन लोगों के लिए जारी किए गये, अगर यह उन्हें ही समझ में न आए तो ऐसे सर्कुलर के क्या मायने हैं.
देश भर में सिविल सर्विसेज की तैयारी कर रहे छात्रों के लिए भी ऐसे सर्कुलर के हर शब्द महत्वपूर्ण होते हैं. लेखक कहते हैं कि जो लोग यह कह रहे थे कि कोरोना वायरस के कारण दुनिया की कंपनियां चीन के बजाए भारत में रुचि दिखलाएंगे, वे गलत हैं. भारत के बाबू ऐसा नहीं होने देंगे.
लेखक का कहना है कि पहली बात यह है कि चीन अपनी गति में लौट चुका है, भारत के साथ ऐसा नहीं है. वे अधिक जोखिम लेने को तैयार हैं, भारत के बाबू यहां ऐसा करने नहीं देंगे. वे लिखते हैं कि जिन प्रवेश परीक्षाओं से बाबू तैयार होते हैं वहां दो प्रारंभिक परीक्षाएं और नौ मुख्य विषय के अलावा साक्षात्कार होते हैं.
सरकारी कर्मचारी बनने के लिए 11 प्रकार की परीक्षाओं की कोई जरूरत लेखक नहीं मानते. तैयारी कर रहे छात्र सिलेबस पर कभी सवाल नहीं करते, बस परीक्षा पास करने में जुटे रहते हैं. लाखों लोगों में कुछ हजार चुने जाते हैं. आधी सीटें रिजर्व होती हैं. यह बेतुकी परीक्षा है और चुने जाने की दर भी उतनी ही बुरी है. परीक्षा की तैयारी में जुटे छात्र दो साल में ऐसे हो जाते हैं कि वे पहल करने की आदत भूल जाते हैं. लेखक सवाल करते हैं कि क्या सरकारी बाबू दूसरे देशों के कोविड-19 के सर्कुलर को पढ़कर कुछ नया नहीं कर सकते?
COVID-19 में ईद मुबारक! दिवाली भी ऐसी ही होगी!
द टाइम्स ऑफ इंडिया में शोभा डे लिखती हैं कि ईद मुबारक! हाल के इतिहास में यह ईद अनोखी है. दिवाली भी ऐसी ही होने वाली है. मुंबई का गणेश उत्सव कुछ ऐसा ही अहसास कराने वाला है. वजह है कोविड-19, जो अब एक गाली बन चुका है. इस समय सभी उत्सव रुके हुए हैं. एक विचित्र भावना सबके मन में है. देश चौथे लॉकडाउन से लड़ने-भिड़ने को तैयार दिख रहा है, सड़क पर विरोध है, बगावत है. महामारी से निपटने के तरीके से हम निराश हैं.
एक बेहद असंवेदनशील फैसला एकतरफा ले लिया गया. महज चार घंटे के भीतर 1.3 अरब लोगों को लॉकडाउन में जाने को कह दिया गया.
शोभा डे लिखती हैं कि जब कभी इस चुनौतीपूर्ण समय का इतिहास लिखा जाएगा तो वह लाखों लोगों के सड़क पर मार्च करने का इतिहास होगा. बगैर किसी फायदे के सिर्फ अपनों से मिलने के लिए ये लोग सड़क पर उतर आए. भले ही इसके लिए जान क्यों न गंवानी पड़े. जो राहत का पैकेज लेकर सरकार आयी, उसे यशवंत सिन्हा ने फ्रॉड यानी धोखाधड़ी करार दिया. 20 लाख करोड़ का पैकेज आया, मगर शायद ही कोई इस पर बात कर रहा है. महामारी से निपटने में यह ऐतिहासिक असफलता है जिसे पीढ़ियां याद रखेंगी. जो निर्दयता दिखी है, उसे कोई माफ नहीं कर सकेगा.
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