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संडे व्यू: NYAY से मिटेगी गरीबी? भारत में दलाई लामा के 60 साल पूरे

पढ़ें संडे व्यू, जिसमें आपको मिलेंगे देश के प्रतिष्ठित अखबारों के चुनिंदा आर्टिकल्स 

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भारत
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गरीबों का है देश के संसाधनों पर पहला हक

पी चिदंबरम ने इंडियन एक्सप्रेस में लिखा है कि देश के संसाधनों पर पहला हक गरीबों का है. उन्हें जीने का बुनियादी हक देने के लिए देश को अपनी जीडीपी का 2 प्रतिशत जरूर खर्च करना चाहिए. आलेख में बिना नाम लिए राहुल गांधी की ‘न्याय’ योजना को उन्होंने विषयवस्तु बनाया है. वे लिखते हैं कि आजादी के समय औसत उम्र 32 वर्ष और अब 68 वर्ष होने के साथ-साथ प्रति व्यक्ति आय 247 रुपये से आज 1,12,835 रुपये सालाना हो चुकी है, लेकिन देश में 25 करोड़ लोग अब भी गरीब हैं. इनके पास जमीन का टुकड़ा नहीं है, भरपेट भोजन नहीं है, ऐसे लोगों की दुर्दशा को दूर करने का समय आ चुका है.

चिदंबरम लिखते हैं कि डॉ अरविंद सुब्रहमण्यम ने 2016-17 में इस विषय पर एक अध्ययन पेश किया था. लक्षित समूह को प्रत्यक्ष नकद हस्तांतरण के जरिए गरीबी से जुड़े अनेक सवालों के जवाब दिए जा सकते हैं. वे लिखते हैं कि जब बुलेट ट्रेन पर 1 लाख करोड़ रुपये खर्च किया जा सकता है, चंद लोगों के 84 हजार करोड़ रुपये के एनपीए का निपटारा हो सकता है तो 25 करोड़ लोगों के लिए जीडीपी का 2 फीसदी खर्च क्यों नहीं किया जा सकता?

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‘न्याय’ से नहीं मिटेगी गरीबी

जनसत्ता में तवलीन सिंह लिखती हैं कि राहुल गांधी ने सत्ता में आने पर ‘न्याय’ योजना लागू करने की घोषणा इस तरह की है मानो वे प्रधानमंत्री बन गये हों. 3.6 लाख करोड़ सालाना खर्च किया जाएगा, लेकिन तब भी इससे गरीबी मिट पाएगी, इस पर लेखिका को संदेह है. उनका मानना है कि ऐसी योजनाओं के मूल में वे लोग होते हैं जिन्होंने गरीबी नहीं देखी है. वे लिखती हैं कि सामाजिक भेदभाव और जातिगत भेदभाव जब तक जिंदा है तब तक गरीबी नहीं मिट सकती.

तवलीन सिंह लिखती हैं कि गरीबी मिटाने का तरीका अशिक्षा दूर करना हो सकता है. अपने अनुभवों के हवाले से वे लिखती हैं कि गरीब के पास स्थायी पता हो, तो उनकी स्थिति में सुधार आ सकता है और वे अपने लिए अविश्वास के संकट से उबर सकते हैं. प्रशासन जो व्यवहार गरीबों के लिए रखता है, उसमें बदलाव लाए जाने की जरूरत है. गरीबी मिटाने के लिए मनरेगा जैसी योजनाओं से कोई लाभ नहीं होगा. ऐसी योजनाएं देश पर बोझ बन जाएंगी, जिसे गरीबी की तरह कभी हटाया या मिटाया नहीं जा सकेगा. वे नरेंद्र मोदी को भी मनरेगा खत्म नहीं कर पाने के लिए जिम्मेदार ठहराती दिखीं.

ए-सैट का नाम ‘मिशन शक्ति’ ही राजनीतिक

द टाइम्स ऑफ इंडिया में मनोज जोशी ने लिखा है कि ए-सैट पर दिखावे से बचना अधिक जरूरी था क्योंकि अब पाकिस्तान यही काम करने के लिए आगे बढ़ेगा. उन्होंने लिखा है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी में किसी चीज की पैकेजिंग करने की पूरी दक्षता है, जो उन्होंने चुनाव अभियान के जारी रहते एक बार फिर दिखलायी है. उन्होंने लिखा है कि 1998 में परमाणु परीक्षण के लिए जिस ‘ऑपरेशन शक्ति’ का इस्तेमाल किया गया था, उसी का एक बार फिर इस्तेमाल इसके राजनीतिक दुरुपयोग की पुष्टि करता है. लेखक ने लिखा है कि 1989 में अग्नि के तकनीक का परीक्षण हो या 2006 में पहली बार बैलेस्टिक मिसाइल डिफेंस की तकनीक का परीक्षण, कभी प्रधानमंत्री को आकर देश को बताने की जरूरत नहीं पड़ी.

यहां तक कि 2007 में यही काम कर चुके चीन के राष्ट्राध्यक्ष ने भी ऐसी जरूरत नहीं समझी. लेखक का मानना है कि भारत ने 50 और 60 के दशक में परमाणु कार्यक्रम शुरू किया, तो पाकिस्तान भी उस राह पर चल पड़ा. हमने 1989 में अग्नि की तकनीक का प्रदर्शन किया, तो पाकिस्तान एम-9 के रूप में उसका उत्पादन करने लगा. यहां तक कि जब हमने परमाणु परीक्षण किए, तो पाकिस्तान ने भी ऐसा ही कर दिखाया. इसलिए आश्चर्य नहीं होना चाहिए अगर पाकिस्तान भी ए-सैट तकनीक के प्रदर्शन के बाद इसी राह पर चल पड़े.

दलाई लामा को भारत आए 60 साल हुए, भारत रत्न मिले

द टेलीग्राफ में रामचंद्र गुहा ने दलाई लामा के भारत आने के 60 साल पूरे होने पर उनका सम्मान किए जाने की जरूरत पर आलेख लिखा है. दलाई लामा 1959 में मार्च के महीने में आखिरी हफ्ते में भारत आए थे. इस तरह 60 साल पूरे हो चुके हैं. तब नेफा और अब अरुणाचल प्रदेश में उन्होंने पहली बार अपने कदम रखे थे. उसके बाद से लंबा वक्त गुजर चुका है, दलाई लामा को पर्याप्त सम्मान भारत में मिला है और तिब्बतियों ने भी भारत के प्रति वैसा ही प्यार दिखाया है.

रामचंद्र गुहा कहते हैं कि अब जबकि दलाई लामा भी कह चुके हैं कि तिब्बत कम्युनिस्ट चीन में सुरक्षित है, तो चीन को अपने नजरिए में बदलाव लाना चाहिए. यह बहुत अच्छी बात होती अगर दलाई लामा अपने आखिरी वक्त अपनी मातृभूमि में बिताते. मगर, वे भी कहते हैं कि चीन से ऐसी सहृदयकी की उम्मीद नहीं की जा सकती. मगर, वे भारत सरकार से अपेक्षा रखते हैं कि दलाई लामा को भारत रत्न से सम्मानित किया जाता. रामचंद्र गुहा ने यह इच्छा जतायी है कि चीन से निर्वासन और भारत आगमन के 60 साल पूरे होने पर दलाई लामा के सम्मान में सत्ताधारी दल और विपक्ष एक साझा सम्मान समारोह आयोजित करता. लेखक ने लिखा है कि इस आशय की बात उन्होंने भारत सरकार तक पहुंचायी है लेकिन कोई सुगबुगाहट नहीं हुई.

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बीत गए 1825 अच्छे दिन, फिर कीजिए वोट

द हिन्दू में जी सम्पत ने लिखा है कि भारत दुनिया का सबसे बड़े और प्राचीन लोकतंत्र की प्रयोग स्थली है. 87,561 साल पहले भारत में पहला चुनाव होने के दस्तावेजी सबूत होने की बात वे लिखते हैं. इस बारे में ह्वाट्स यूनिवर्सिटी के ज्ञान भंडार का भी वे आदर करते हैं. जिस तरह 1825 अच्छे दिन बीते हैं, उसी तरह अगले इतने ही दिनों के लिए वोट किए जाने हैं. लेखक गुजरात में पढ़ाए जा रहे उन दिनों को याद करते हैं जब भारत माहिष्मति के रूप में मशहूर था. चुनाव की घोषणा राजा भल्लालदेव ने की थी और उसे कटप्पा ने कराया था जो दुनिया का पहला स्वतंत्र चुनाव आयोग था. राणा दुग्गबती ने वह चुनाव जीता था और प्राचीन भारत के पहले प्रधानमंत्री बने थे जबकि तमन्ना भाटिया विपक्ष की नेता बनी थी

जी सम्पत लिखते हैं कि उन्हें अच्छा लगता है कि स्त्री-पुरुष, अमीर-गरीब, चोर-चौकीदार सभी के पास एक जैसे अधिकार हैं. अपराधी, धोखेबाज या अवसरवादी सभी भारत के कुपोषित, बेरोजगार, कर्ज में डूबी आबादी का नेतृत्व करने के लिए स्वतंत्र हैं. वे लिखते हैं कि कुछ लोगों को आश्चर्य जरूर होता है कि अगर नतीजे 2014 जैसे ही आने हैं तो चुनाव पर इतना खर्च करने की जरूरत क्या है? वे लिखते हैं शादी के दिन दुल्हा और दुल्हन को क्या पता होता है कि परिवार दिवालिया होने वाला है?

अपनी-अपनी पिच पर खेल रही हैं कांग्रेस-बीजेपी

हिन्दुस्तान टाइम्स में चाणक्य लिखते हैं कि 2019 के लिए दो समांतर चुनाव अभियान चल रहे हैं. एक पक्ष दूसरे अभियान से बचकर आगे बढ़ रहा है. बीजेपी और कांग्रेस एक ही मुद्दे पर बहस करते नजर नहीं आ रहे हैं. बीजेपी कह रही है कि अब वह समय गया जब सरकारें डरा करती थीं, जब तक मोदी प्रधानमंत्री हैं भारत अब पाकिस्तान को घर में घुसकर मारेगा. कांग्रेस जवाब नहीं दे पा रही है कि 2008 या आतंकवाद के दौर में उनकी सरकार क्यों जवाब नहीं दे पा रही थी. इसी तरह कांग्रेस बेरोजगारी और किसानों की मुश्किलों के सवाल को उठा रही है, लेकिन बीजेपी इस पर बात करने को तैयार नहीं है.

लेखक का कहना है कि पुलवामा और एअर स्ट्राइक के बाद वह कांग्रेस अचानक खामोश हो गयी जो पांच राज्यों में चुनाव नतीजों के बाद से मुखर थी. 3 हफ्ते की खामोशी के बाद कांग्रेस ने न्यूनतम आय योजना के बाद दोबारा बोलना शुरू किया है. मगर, इस मुद्दे पर अब बीजेपी की ओर से कुछ कहा नहीं जा रहा है. वास्तव में देश दो अलग-अलग चुनाव अभियान का गवाह बन रहा है. न सत्ताधारी दल और न ही विपक्ष दूसरों के विकेट पर खेलने को तैयार हैं.

‘फिर होगी मोदी की जीत’

मेघनाद देसाई ने इंडियन एक्सप्रेस में लिखा है कि नरेंद्र मोदी की जीत होगी क्योंकि वे अलग हैं. मोदी सरकार सत्ता में दोबारा लौट रही है. किस पार्टी को कितनी सीटें मिलेंगी, केवल यही चुनाव नतीजों में देखने वाली बात होगी. देसाई लिखते हैं कि विरोधी स्वाभाविक रूप से चुनाव में अपनी-अपनी जीत के दावे कर रहे हैं. स्टालिन के नेतृत्व में राहुल गांधी को अगले प्रधानमंत्री के रूप में पेश किया जा रहा है. इन सबके बावजूद अगर सत्ताधारी दल दोबारा जीतकर आए तो विपक्ष के लिए यह बात पचाना बहुत मुश्किल होगा कि बेरोजगारी, नोटबंदी, जीएसटी, किसानों की बदहाली जैसे मुद्दों के बावजूद सत्ताधारी दल दोबारा जीतकर आने वाली है.

लेखक इंग्लैंड में मार्ग्रेट थैचर की तुलना भारत में नरेंद्र मोदी से करते हैं. दोनों में वर्तमान राजनीति की परंपरा को बदलने की खासियत रही है. उन्होंने व्यवस्था के ढर्रे को बदल डाला. परम्परागत सोच को बदलने की कोशिश की. जनता ने इस बदलाव को पसंद किया. मेघनाद लिखते हैं कि जनता बदलाव को पसंद करती है, यही वजह है कि वह मोदी का साथ देने वाली है.

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