राघव बहल ने उदारवाद के बाद के दौर के छह शक्तिशाली वित्त मंत्रियों के बारे में व्यक्तिगत विवरण लिखने के लिए अपनी यादों के खजाने को टटोला है. ये छोटा-संस्मरण दो हिस्सों में लिखा गया है. पहला हिस्सा जसवंत सिंह और डॉ मनमोहन सिंह पर है और ये दूसरा हिस्सा यशवंत सिन्हा, पी चिदंबरम, अरुण जेटली और प्रणब मुखर्जी पर.
कुछ दिन पहले, मैंने दो वित्त मंत्रियों जसवंत सिंह और डॉ मनमोहन सिंह के प्रभावी योगदान के बारे में लिखा था. दोनों का कार्यकाल उल्लेखनीय था, लेकिन 30 साल की सक्रिय सुधार यात्रा में दोनों का कार्यकाल मिला दें तो सिर्फ 7 साल होते हैं. इनके अलावा चार और असाधारण वित्त मंत्री थे जिनके साथ मेरे यादगार पल हैं. उन्हें छोड़ देना ठीक नहीं लग रहा. इसलिए, इस सफल, प्रखर चौकड़ी के लिए एक कुछ कसीदे. इनकी कहानियां वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण के काम आ सकती हैं जो 'सौ सालों में एक बार लिखा जाने वाला बजट' तैयार कर रही हैं.
इनको किस क्रम में रखना है इसके लिए एक बार मुझे फिर जूझना पड़ेगा. और एक बार फिर यादों को टटोलने पर एक अपरंपरागत नाम आया है-थोड़े बदकिस्मत यशवंत सिन्हा.
यशवंत सिन्हा- सबसे मेहनती जिन्होंने ऊबड़-खाबड़ रास्तों पर सवारी की
वो बिहार के एक पूर्व आईएएस अधिकारी थे जिन्होंने स्वतंत्र विचारों वाले चंद्रशेखर के साथ राजनीतिक करियर की शुरुआत करने के लिए सिविल सर्विसेज की नौकरी छोड़ने का अकल्पनीय काम किया. 1990 में वो छह महीने की सरकार में वित्त मंत्री थे जब कुवैत युद्ध ने करीब-करीब भारतीय अर्थव्यवस्था को तहस-नहस होने पर मजबूर कर दिया था. कहा जाता है कि उन्होंने बड़े स्तर पर आपातकालीन बचाव की व्यवस्था कर रखी थी जिसका अनावरण करना 1991 में उनके उत्तराधिकारी डॉ मनमोहन सिंह के नसीब में था. इस बात की सत्यता को कभी भी चुनौती दी जा सकती है लेकिन आठ
साल बाद यशवंत सिन्हा 1998 में प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की पहली एनडीए सरकार में “नियमित” वित्त मंत्री बने और 1999 में जब वाजपेयी जी फिर से प्रधानमंत्री बने तो भी ये मंत्रालय उन्हीं के पास रहा.
सिन्हा शेक्सपीयर की कहानी के आदर्श दुखद नायक की तरह थे. उन्हें परमाणु परीक्षण के बाद के प्रतिबंधों, एशियाई मुद्रा संकट और करगिल युद्ध के कारण हुई अकल्पनीय अशांति के दौरान अर्थव्यवस्था को गति देना था. दिल पर हाथ रखकर, उन्होंने बहुत अच्छा काम किया. शाम 5 बजे होने वाले बजट भाषण की औपनिवेशक परंपरा को तोड़ने के अलावा उनका प्रभावशाली योगदान बड़े पैमाने पर उत्पाद करों का पुनर्गठन/कमी थी. उन्होंने पेट्रोलियम उद्योग को नियंत्रण मुक्त कर दिया और ऋण को टैक्स-कटौती योग्य बनाने की अनुमति दी जिससे हाउसिंग सेक्टर में उछाल की स्थिति बनी. उन्होंने शायद भारत में तब तक के सबसे कम ब्याज दर शासन की भी शुरुआत की थी. उन्हें इसका पूरा श्रेय कभी नहीं दिया गया लेकिन कम टैक्स और ब्याज दर दोनों के साथ ने सन 2000 के शुरुआती वर्षों में अर्थव्यवस्था की ऊंची उड़ान के लिए अनुकूल माहौर तैयार किया. दुर्भाग्य से यूनिट ट्रस्ट ऑफ इंडिया का मामला उनके रहते ही आ गया और उन्हे वित्त मंत्रालय से सम्मानजनक रूप से छुट्टी दे दी गई और विदेश मंत्री जसवंत सिंह के साथ मंत्रालय की अदला-बदली की गई और वो विदेश मंत्री बनाए गए.
उनको वित्त मंत्री पद से हटाए जाने के आस-पास ही मुझे उनके साथ देर शाम की फोन पर एक बातचीत याद है.
यशवंत सिन्हा (थोड़े शांत से)-मुझे लगता है कि आप वित्त मंत्री के तौर पर मेरे कार्यकाल पर एक पूरा शो कर रहे हैं, मुझे उम्मीद है कि आप निष्पक्ष रहेंगे. मुझे बहुत कठिन परिस्थितियों का सामना करना पड़ा. लेकिन मैक्रो इकोनॉमिक
वैरिएबल्स को देखिए, ख़ासकर कम ब्याज दर जो मैं पीछे छोड़ कर जा रहा हूं. अगर और कुछ नहीं तो ये हमारी अर्थव्यवस्था में फिर से तेजी लाएगा.
मैंने फोन पर चुपचाप सिर हिलाया, पूरी तरह से निष्पक्ष होने का वादा किया. पता नहीं, मैं निष्पक्ष था या नहीं.
पी चिदंबरम-योद्धा जो कोई चुनौती बर्दाश्त नहीं करते थे
आर्थिक सुधारों के बाद के सालों में वो करीब-करीब एक तिहाई वर्षों तक वित्त मंत्री रहे, दो विरोधात्मक राजनीतिक गठबंधन और तीन प्रधानमंत्रियों के तहत उन्होंने काम किया. उनका गुस्सा भी काफी प्रसिद्ध था (है). उन्होंने हमेशा लचीले वित्तीय ज्ञान के साथ कुशल कानूनी संयोजन किया. उनमें 1990 के दशक के अंतिम वर्षों में अपने ड्रीम बजट में टैक्स कम करने का साहस था. मेरी उनके साथ सबसे कुख्यात मुलाकात रही लेकिन उन्हें हर तर्क जीतना होता था. इसके अलावा कोई विकल्प नहीं था.
मुझे खास तौर पर 2009 के चुनावों के ठीक पहले अर्थव्यवस्था को संभावित तौर पर पंगु बना देने वाले कृषि ऋण की छूट के बाद की तीखी बातचीत याद है. आम तौर पर आर्थिक दृष्टि से अनुशासित होकर चलने वाले चिदंबरम को शायद इस फैसले के लिए मजबूर किया गया होगा क्योंकि इंटरव्यू के दौरान उनका गुस्से से चेहरा लाल था.
लेकिन कुछ पीड़ा के साथ जो मुलाकात मुझे याद है वो इससे पहले की है, जो इंप्लॉयीज स्टॉक ऑप्शंस पर टैक्स लगाने के प्रस्ताव पर थी. उन्होंने फैसला किया था कि विकल्प का इस्तेमाल करने पर टैक्स लगाया जाएगा, बेचने के समय नहीं. मेरे विचार में, ये पूरी तरह गलत था, यहां तक कि ये जबरन वसूली जैसा था, क्योंकि कर्मचारियों को एक रुपये कैश मिले बिना ही टैक्स का भुगतान करना होगा, इससे भी बुरा अगर स्टॉक की कीमत घट गई तो वो नुकसान होने पर भी टैक्स चुका चुके होते! ये अजीब था लेकिन चिदंबरम अपने रुख पर अड़े रहे और ये टैक्स आज भी कानून की किताब में है.
आज तक मैं ये नहीं समझ पाया हूं कि क्या पी चिदंबरम सच में मुक्त बाजार की नीतियों में भरोसा करते हैं या मुख्य रूप से एक आर्थिक रूढ़ीवादी हैं जो अपनी सीमा से आगे जाकर मेहनत करते हैं लेकिन कभी इतना भी नहीं कि सांख्यिकीविद के ढांचे से आगे निकल सकें.
अरुण जेटली- वकील की तरह सहमति बनाने वाले
मैं अरुण जेटली को “अरुण जेटली” बनने के काफी पहले से जानता हूं. स्कूल में वो मेरे सीनियर थे और मैंने उनके साथ जूनियर स्कूल के निकर में परेड किया है. मैंने उनकी असामयिक मौत के बाद लिखी इस श्रद्धांजलि में हमारे संबंधों के बारे में काफी लिखा था.
उनके पास 2014-19 के बीच का महत्वपूर्ण कार्यकाल था लेकिन वो हमेशा एक शानदार वकील ही रहे और कुछ हद तक भ्रमित वित्त मंत्री. उन्हें जीएसटी लाने के लिए राज्यों के वित्त मंत्रियों के तीखे विरोध के बीच सहमति बनाने के लिए याद किया जाएगा, हालांकि अगर नए टैक्स को समान रूप से प्रभावी ढंग से लागू किया जाता तो ये बिना किसी दाग की उपलब्धि होती. नोटबंदी से पैदा हुए आर्थिक मलबे को हटाने का मुश्किल काम भी उन्हीं का था.
मुझे याद है जब मैंने उनके सामने टीमासेक-जैसा एक ट्रस्ट या सभी सॉवरिन एसेट की होल्डिंग कंपनियों का प्रस्ताव रखा था. ये 2015 के शुरुआत की बात है. प्रेजेंटेशन रूम में वित्त सचिव राजीव महर्षि, मुख्य आर्थिक सलाहकार अरविंद सुब्रमणियम और तत्कालीन राजस्व सचिव और अभी आरबीआई गवर्नर शक्तिकांत दास जैसे बड़े अधिकारी मौजूद थे. जेटली मेरी कोशिश में जरा भी दिलचस्पी नहीं ले रहे थे. मुझे बाद में पता चला कि सरकार ने पहले ही
नेशनल इनवेस्टमेंट एंड इंफ्रास्ट्रक्चर फंड (NIIF) लॉन्च करने का फैसला कर लिया था, इसलिए, एक तरह से मेरे आइडिया पर पहले ही काम शुरू हो चुका था.
प्रणब मुखर्जी- 80 के दशक की झलक
प्रणब दा 2009 के आस-पास असामान्य वित्त मंत्री थे. इससे पहले वो 1980 के दशक में वित्त मंत्री रहे थे जब भारतीय अर्थव्यवस्था विवेकाधीन नियंत्रणों और सरकारी उदारता की भूल-भुलैया थी. वो लाइसेंस, कोटा और पाबंदियों के दिन थे. बजट भाषण काफी ऊबाऊ होता था जिसमें छह अलग-अलग तरह के कच्चे धागों के लिए नौ अलग उत्पाद शुल्क बताए जाते थे! इसलिए मैं मानता हूं कि वो नए मुक्त बाजार अर्थव्यवस्था के विरोध में थे जिसमें लाइसेंस खत्म कर दिए गए थे और विदेशी पूंजी/सामान आसानी से आ-जा हो रहे थे. उन्होंने लेहमैन संकट के बाद की स्थिति का सामना करने के लिए वित्तीय प्रोत्साहन के तौर पर बड़ी राशि दी लेकिन उनसे हमेशा रेट्रोस्पेक्टिव टैक्स संशोधन के लिए सवाल किए जाएंगे जो आखिरकार वोडाफोन और कैयर्न मामलों के साथ अपमानजनक रूप से खत्म हो गया.
वित्त मंत्री रहने के दौरान मेरी उनसे मुलाकात कम ही हुई. एक बार उन्होंने एक छोटा काम बोला था जो मैंने कर दिया था. उनकी याददाश्त और शिष्टता इतनी अच्छी थी कि जब कुछ हफ्तों के बाद मैं उनसे मिला तो उन्होंने कहा “मेरा अनुरोध मानने के लिए धन्यवाद”
काश, मैं उनके आर्थिक सिद्धांतों से इतनी उदारता के साथ सहमत हो पाता लेकिन अफसोस, ये मेरे लिए बहुत पुरानी दुनिया थी.
राघव बहल क्विंटिलियन मीडिया के को-फाउंडर और चेयरमैन हैं, जिसमें क्विंट हिंदी भी शामिल है. राघव ने तीन किताबें भी लिखी हैं-'सुपरपावर?: दि अमेजिंग रेस बिटवीन चाइनाज हेयर एंड इंडियाज टॉरटॉइस', "सुपर इकनॉमीज: अमेरिका, इंडिया, चाइना एंड द फ्यूचर ऑफ द वर्ल्ड" और "सुपर सेंचुरी: व्हाट इंडिया मस्ट डू टू राइज बाइ 2050"
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