राघव बहल ने उदारवाद के बाद के दौर के छह शक्तिशाली वित्त मंत्रियों के बारे में व्यक्तिगत विवरण लिखने के लिए अपनी यादों के खजाने को टटोला है. ये छोटा-संस्मरण दो हिस्सों में लिखा गया है. दूसरा हिस्सा यशवंत सिन्हा, अरुण जेटली, पी चिदंबरम और प्रणब मुखर्जी पर है और ये पहला हिस्सा जसवंत सिंह और डॉ मनमोहन सिंह पर.
हर साल, एक दिन के लिए भारत के वित्त मंत्री “ फर्स्ट अमॉन्ग इक्वल्स” यानी बराबरी के पद वालों में प्रथम होने के लिए मौजूदा प्रधानमंत्री से ज्यादा सुर्खियों में रहते हैं. साल के 365 दिनों में ये इकलौता दिन बजट वाला दिन होता है, अब सामान्य तौर पर फरवरी महीने का पहला दिन.
उदारीकरण के बाद के समय में भारत में सात शक्तिशाली वित्त मंत्री हुए हैं लेकिन उनमें से केवल एक, डॉ मनमोहन सिंह, प्रधानमंत्री बने. इसलिए, उन्होंने दोनों भावनाओं का अनुभव किया है, पूर्व प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव की सरकार में वित्त मंत्री के तौर पर और राजनीतिक तौर पर समझदार वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी और पी चिदंबरम के दौरान पीएम के तौर पर.
मौजूदा वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण के अलावा, जिनसे मैं अब तक नॉर्थ ब्लॉक में नहीं मिला हूं, 1991 से अब तक मुझे कई बार उनके पहले के वित्त मंत्रियों से बातचीत का सौभाग्य मिला है.
यादों के इस छोटे झरोखे में मैं दो यादगार (यानी नाटकीय) पलों को याद करना चाहता हूं तो, विस्मयादिबोधक चिन्ह के साथ मैं किसे याद करता हूं?
जबतक मैंने अपनी याददाश्त को फिर से टटोलना नहीं शुरू किया था, मैं सोच रहा था कि उनके महत्व और लंबे कार्यकाल के कारण ये मनमोहन सिंह या पी चिदंबरम या अरुण जेटली होंगे. लेकिन नहीं, मैं खुद को हैरान करता हूं उस वित्त मंत्री को चुनकर जिनका इन तीन दशकों में दो साल से भी कम का कार्यकाल था- स्वर्गीय जसवंत सिंह!
जसवंत सिंह, गैर-अर्थशास्त्री जो सेना जैसी सटीकता के साथ उदारीकरण चाहते थे
जसवंत सिंह को पहली बार 16 मई 1996 को अटल बिहारी वाजपेयी की 13 दिन की बदकिस्मत सरकार में वित्त मंत्री नियुक्त किया गया था. मुझे याद है उनका व्यस्त कार्यक्रम जहां उन्होंने मेरा आकर्षक रूप से सख्त, सैन्य अभिवादन किया था.
जसवंत सिंह: आहा, श्रीमान बहल, मेसर्स राव और सिंह के लिए चीयरलीडर (जो लोग नहीं जानते होंगे, उनका मतलब प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव और वित्त मंत्री मनमोहन सिंह था).
मैं (थोड़ा रक्षात्मक होकर ): एक चीयरलीडर नहीं सर, लेकिन हां मैं सैद्धांतिक तौर पर मुक्त-बाजार सुधारों का समर्थन करता हूं जो उन्होंने किए हैं. हमारे आंकड़ों से भरे, नौकरशाही व्यवस्था में, ये एक ताजी हवा का झोंका था जबतक, बेशक, वो डर गए और अपने ही कदमों को रोक लिया.
जसवंत सिंह (मानने से इनकार करते हुए): वो अनैच्छिक, लड़खड़ाते हुए “सुधार” (उनके मुंह से वास्तव में शब्द निकल आए). मेरे पास दो तरह की बात करने वाले अर्थशास्त्री के लिए काफी कम समय है, आप जानते हैं कि जो ये कहते हैं “एक तरफ कुछ और लेकिन दूसरी तरफ कुछ और” (साफ तौर पर मनमोहन सिंह और उनके भरोसेमंद अफसर मोंटेक सिंह आहलुवालिया पर ताना). अब आप देखिएगा कि असली सुधार क्या होते हैं.
जसवंत सिंह की याद के साथ मैंने विस्मयादिबोधक चिन्ह क्यों लगाया था?
काश, लेकिन किस्मत को कुछ और ही मंजूर था, 13 दिन के बाद ही उनकी सरकार ने इस्तीफा दे दिया. लेकिन जुलाई 2002 में जब वो तीसरी वाजपेयी सरकार में फिर से वित्त मंत्री बने तो उन्होंने वास्तव में अर्थव्यवस्था को लाइट-टच सुधारों से चकित कर दिया.
![जसवंत सिंह, गैर-अर्थशास्त्री जो सेना जैसी सटीकता के साथ उदारीकरण चाहते थे](https://images.thequint.com/quint-hindi%2F2021-01%2F608e1195-0682-4d71-a0c4-fdf58e0eb76c%2Fjaswant.jpg?auto=format%2Ccompress&fmt=webp&width=720)
उन्होंने सामाजिक और बुनियादी सेक्टर के अलावा सभी सेक्टर से सरकार के पीछे हटने पर जोर दिया-ये मेरे लिए बहुत आनंदित करने वाला था. उन्होंने दिवालिया यूनिट ट्रस्ट ऑफ इंडिया का साहसिक बेल आउट किया, चतुराई से सरकार के नियंत्रण वाली विशालकाय संस्था का निजीकरण किया गया. उनका मानना था कि टैक्स को केवल उत्पादकता से जोड़ा जाना चाहिए.
“ अर्थव्यवस्था में मांग बढ़ाने के लिए मैं ग्राहकों के हाथ में पैसे देना चाहता हूं. उसके लिए मुझे टैक्स कम करने चाहिए. “
मुझे खास तौर जनवरी 2004 में बजट से पहले व्यापक, अपरंपरागत टैक्स में कटौती याद है-कस्टम ड्यूटी पांच फीसदी प्वाइंट से कम की गई, एयर-ट्रैवल टैक्स को 15 फीसदी कम कर दिया गया-जिससे अर्थव्यवस्था आठ फीसदी की उछाल तक पहुंच गई, जिससे अगली यूपीए सरकार को आगे बढ़ने का सही आधार मिला और यूपीए सरकार तीन साल तक नौ फीसदी जीडीपी विकास दर की रफ्तार से बढ़ती रही.
अब, मुझे समझ आया कि क्यों मैं उनकी याद के साथ विस्मयादिबोधक चिन्ह लगाता हूं. मैं पूरी तरह से उनकी निजी खपत/ निवेश, सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों की एकमुश्त बिक्री की योजना के साथ था और कम टैक्स एक फिर से खड़ी होती अर्थव्यवस्था के आधार थे.
![जसवंत सिंह, गैर-अर्थशास्त्री जो सेना जैसी सटीकता के साथ उदारीकरण चाहते थे](https://images.thequint.com/quint-hindi%2F2021-01%2F91bd833e-0d82-426b-b678-a8e4bcd080fe%2Fthequint_2021_01_17bd80b6_09b4_4e8a_b373_7a1f07faee51_jaswant_2.jpg?auto=format%2Ccompress&fmt=webp&width=720)
लेकिन जसवंत सिंह से पहले एक और सिंह थे जो किंग थे!
बहुत से लोगों को शायद हैरत हो और शायद ये जायज भी है कि यहां मनमोहन सिंह इस आर्टिकल में इतना नीचे आंके गए हैं। आखिर अपनी दमदार आर्थिक नीतियों के बल पर वो 1991 के गहरे आर्थिक संकट से जूझने में कामयाब रहे थे.
![जसवंत सिंह, गैर-अर्थशास्त्री जो सेना जैसी सटीकता के साथ उदारीकरण चाहते थे](https://images.thequint.com/quint-hindi%2F2021-01%2Fcf891dfd-24b8-4505-9de1-27efef33db56%2Fthequint_2021_01_268efd8d_2119_4ec7_aaba_ac401bdc2e14_manmohan_singh_1.jpg?auto=format%2Ccompress&fmt=webp&width=720)
याद कीजिए भारत को सॉवरिन डेट को टालने के लिए 67 टन सोना गिरवी रखना पड़ा था. हमारी रैंकिंग को डाउनग्रेड कर काफी नीचे कर दिया गया था, महत्वपूर्ण आयात या विदेशी ऋण चुकाने के लिए बमुश्किल विदेशी मुद्रा बची थी.
अब कल्पना कीजिए कि सामान्य तौर पर संयमित रहने वाले मनमोहन सिंह “हॉप, स्किप और जंप” कर रहे हैं (जो कि लापरवाह ऑपरेशन का कोड-नेम था).
सोमवार, 1 जुलाई 1991 को भारत के नियंत्रित रूपये का एक सरकारी आदेश के जरिए नौ फीसदी अवमूल्यन कर दिया गया-हां, मैं फिर से कहूंगा, एक ही बार में नौ फीसदी. ये तेजी से घटते विदेशी मुद्रा भंडार को रोकने के लिए उठाया कदम था. लेकिन पहले से ही मुश्किल में पड़ा बाजार और ज्यादा घबरा गया. इसलिए, दो दिन बाद, 3 जुलाई 1991 को रुपये का फिर से 11 फीसदी अवमूल्यन किया गया-हां और 11 फीसदी-लेकिन आगे और न होने के वादे के साथ. इससे बाजार शांत हुआ और निवेशकों का बाजार से पैसे निकालना रुक गया.
![जसवंत सिंह, गैर-अर्थशास्त्री जो सेना जैसी सटीकता के साथ उदारीकरण चाहते थे](https://images.thequint.com/quint-hindi%2F2021-01%2F0762deb8-cad3-46ea-b928-cb6d61d7aa84%2Fthequint_2021_01_0e5e476b_c3e2_4f38_a557_3b1d48b865a0_Manmohan_singh1__621x414.jpg?auto=format%2Ccompress&fmt=webp&width=720)
आखिरकार दो साल बाद, भारत ने अपनी मजबूती से नियंत्रित मुद्रा को “नियंत्रित विदेशी मुद्रा विनिमय दर (मैनेज्ड फ्लोट)” पर रखा. जब आर्थिक झटके खत्म हुए, ये अच्छा और निर्भीक फैसला साबित हुआ.
(पोस्टस्क्रिपट: अभी हमारे पास करीब 600 बिलियन डॉलर का विदेशी मुद्रा भंडार है).
मनमोहन सिंह ने डूबती नाव को बचाया
सिंह ने अमेरिकी डॉलर को काम में लाने और देश में एक शेयर बाजार से लोगों को जोड़ने के लिए एक और अनौपचारिक कदम उठाया. भारत के बंद, एक समूह के जैसे काम करने वाले और घोटाले के खतरे से भरे स्टॉक मार्केट को विदेशी निवेशकों के लिए खोल दिया.
संरक्षित, नाजुक रुपये को आंशिक तौर पर पूंजी खाते (कैपिटल अकाउंट) में बदलने योग्य बनाया गया था. दो नए संस्थान, सेक्युरिटीज एंड एक्सचेंज बोर्ड ऑफ इंडिया (SEBI) और नेशनल स्टॉक एक्सचेंज (NSE) को शेयर बाजार की सफाई के लिए नए अधिकार दिए गए और उदघाटन किया गया. जल्द ही, भारत के उत्कृष्ट डिजिटाइज शेयर बाजार, शायद उस समय का दुनिया में सबसे आधुनिक, ने विदेशियों को अपनी ओर आकर्षित किया. भारत के शेयर बाजार से नए लोगों का जुड़ना शुरू हो चुका था.
![जसवंत सिंह, गैर-अर्थशास्त्री जो सेना जैसी सटीकता के साथ उदारीकरण चाहते थे](https://images.thequint.com/quint-hindi%2F2021-01%2Fe63c8fe1-cde8-4f78-b550-18b05139731b%2Fthequint_2021_01_4f19fcdf_2c75_4ae8_9bed_3f024a1aa0ee_manmohan.jpg?auto=format%2Ccompress&fmt=webp&width=720)
हां, मनमोहन सिंह ने हमारे निराशाजनक नियंत्रित/बंधी हुई अर्थव्यवस्था के उदारीकरण के लिए लाखों और काम किए, लेकिन उन्होंने ये सब एक डूबते जहाज को बचाने के लिए किया. उन्हें एक घातक संकट के कारण मजबूर होना पड़ा.
एक वित्त मंत्री के तौर पर उनका प्रभाव जसवंत सिंह जो कर सकते थे उसके बहुत अधिक था. लेकिन दूसरी तरफ (वो मुझे दो तरह की बात वाले मुहावरे के इस्तेमाल के लिए नफरत करेंगे) , जसवंत सिंह एक स्वस्थ अर्थव्यवस्था का दृढ़ निश्चय के साथ उदारीकरण में उत्सुक थे. इसलिए मैं उन्हें एक विस्मयादिबोधक चिन्ह के साथ याद करता हूं!
राघव बहल क्विंटिलियन मीडिया के को-फाउंडर और चेयरमैन हैं, जिसमें क्विंट हिंदी भी शामिल है. राघव ने तीन किताबें भी लिखी हैं-'सुपरपावर?: दि अमेजिंग रेस बिटवीन चाइनाज हेयर एंड इंडियाज टॉरटॉइस', "सुपर इकनॉमीज: अमेरिका, इंडिया, चाइना एंड द फ्यूचर ऑफ द वर्ल्ड" और "सुपर सेंचुरी: व्हाट इंडिया मस्ट डू टू राइज बाइ 2050"
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