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UP: प्रदर्शनकारियों से ‘बदले’ का कानूनी इंतजाम, अपील का हक नहीं

UP विधानसभा ने जो नया संपत्ति नुकसान वसूली विधेयक पास किया है उसमें मुआवजे लेने के बजाय सीधे जब्ती का इंतजाम

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भारत
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उत्तर प्रदेश विधानसभा ने अपने तीन दिन के सेशन में ताबड़तोबड़ 27 बिल पास कर दिए हैं. इनमें उत्तर प्रदेश का वह चर्चित बिल भी शामिल है जिसके जरिए प्रदर्शनकारियों से किसी प्रॉपर्टी के नुकसान की भरपाई की जाएगी- सार्वजनिक और निजी संपत्ति क्षति वसूली बिल. इसे पहले अध्यादेश के तौर पर लागू किया गया था. अब सेशन के दौरान अध्यादेश को बिल के रूप में पेश करके, पास कर दिया गया है और राज्यपाल की मंजूरी के लिए भेजा गया है.

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इस बिल को लाने से पहले अध्यादेश के तहत लखनऊ और मेरठ में क्लेम्स ट्रिब्यूनल बनाने को मंजूरी दी गई थी. यह क्लेम्स ट्रिब्यूनल तय करेगी कि किसी प्रदर्शन के दौरान किसी प्रॉपर्टी को कितना नुकसान हुआ है और उसकी वसूली कैसी की जाएगी. यह बात और है कि इस बिल को लेकर खुद वकीलों में भी नाराजगी है. इलाहाबाद हाई कोर्ट की बार एसोसिएशन ने इसे लोकतंत्र विरोधी बताया है, और वह विरोध प्रदर्शन का मन बना रही है. इससे पहले अध्यादेश को संविधान विरोधी बताते हुए इलाहाबाद हाई कोर्ट में ही एक पिटीशन डाली गई थी.

आखिर कैसे बना संपत्ति क्षति वसूली कानून

पिछले साल नागरिता संशोधन कानून के खिलाफ पूरे देश में विरोध प्रदर्शन हुए थे. उत्तर प्रदेश में भी ऐसे ही प्रदर्शनों के दौरान हिंसा भड़की और राजधानी लखनऊ में प्रशासन ने कुछ लोगों पर तोड़फोड़ करने और सरकारी संपत्ति को नुकसान पहुंचाने के आरोप लगाए. कई लोगों की गिरफ्तारियां हुईं और फिर इसके बाद प्रशासन ने शहर में ऐसे लोगों के नाम, फोटोग्राफ और पते वाले बैनर लगा दिए. इन पोस्टरों में आरोपियों से मुआवजे की मांग की गई थी और इस बात की धमकी भी दी गई थी कि अगर वे मुआवजा नहीं चुकाते तो उनकी संपत्ति जब्त कर दी जाएगी.

इसके बाद इलाहाबाद हाई कोर्ट ने यह फैसला सुनाया कि किसी के पर्सनल डीटेल्स को यूं सार्वजनिक तौर से प्रदर्शित करना संविधान के अनुच्छेद 21 का उल्लंघन है. तब सरकार ने सार्वजनिक और निजी संपत्ति क्षति वसूली अध्यादेश जारी किया. इससे पहले 2007 में सुप्रीम कोर्ट बंद और हड़ताल के दौरान सार्वजनिक और निजी संपत्ति के नुकसान पर दो कमिटियों का गठन कर चुका था. इन कमिटियों ने भी यही कहा था कि हिंसा भड़काने वालों से तोड़ फोड़ या संपत्ति के नुकसान का हर्जाना वसूला जाना चाहिए.

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उत्तर प्रदेश की तर्ज पर क्या कर्नाटक में भी लाया जाएगा कानून

उत्तर प्रदेश की तर्ज पर कर्नाटक में भी दंगाइयों और प्रदर्शनकारियों से ऐसे ही मुआवजा वसूलने की तैयारी की जा रही है. हाल ही में राजधानी बेंगलूर में एक फेसबुक पोस्ट को लेकर हिंसा भड़कने के बाद कर्नाटक के गृह मंत्री ने कहा था कि राज्य में उत्तर प्रदेश की तरह हिंसा करने वालों से हर्जाना वसूला जाएगा. बेंगलूर दक्षिण से भाजपा सांसद तेजस्वी सूर्य भी मुख्यमंत्री बी एस येदियुरप्पा से अनुरोध कर चुके हैं कि उन्हें उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ का रास्ता अपनाना चाहिए. सवाल यह है कि कर्नाटक में मुआवजा वसूलने का क्या तरीका अपनाया जाएगा. ऐसा अध्यादेश लाकर किया जाएगा, या किसी और तरीके से- अभी स्पष्ट नहीं है. फिलहाल उत्तर प्रदेश के अध्यादेश और अब विधेयक में भी तमाम लूपहोल्स हैं. तुरत फुरत में एक ऐसे संवेदनशील मुद्दे पर गैर संवेदनशील कानून बनाया गया है.

विधेयक में तमाम कमियां हैं

विधेयक राज्य सरकार को क्लेम्स ट्रिब्यूनल बनाने का अधिकार देता है, लेकिन विडंबना यह है कि इस ट्रिब्यूनल के सभी आदेश अंतिम बताए गए हैं. उन आदेशों के खिलाफ किसी अदालत में अपील नहीं की जा सकती. जबकि अपील करना कानून का ही एक हिस्सा होता है. हमारे यहां कई कानूनों में अपील को सशर्त बनाया गया है. जैसे ऋण वसूली अधिनियम, 1993 में देनदार को ट्रिब्यूनल के खिलाफ अपील करने के लिए आधी आदेश राशि जमा करानी होती है. पर इस विधेयक में ऐसा कोई प्रावधान नहीं है. इसके अलावा ट्रिब्यूनल में एक पूर्व जज और एडिशनल कमीश्नर के रैंक के अधिकारी शामिल होंगे.

यह सेपरेशन ऑफ पावर का मामला है, क्योंकि अगर कोई सरकारी अधिकारी सरकार द्वारा दायर मामले पर फैसला सुनाएगा तो इससे हितों के टकराव की गुंजाइश बनती है. इस सिलसिले में 2010 के एक मामले में सुप्रीम कोर्ट कह चुका है कि अगर ट्रिब्यूनल किसी तकनीकी पहलू से जुड़ा हुआ न हो तो उसमें सिर्फ न्यायिक सदस्य होने चाहिए ताकि न्यायालय की स्वतंत्रता बनी रहे.

विधेयक में मुआवजे के आदेश के साथ ही संपत्ति को जब्त करने की बात भी कही गई है. यानी इस बात का इंतजार भी नहीं किया जाएगा कि कोई आरोपी मुआवजा चुकाए. सीधा उसकी संपत्ति जब्त की जाएगी. अगर वह किसी वजह से सुनवाई के दौरान ट्रिब्यूनल के सामने हाजिर नहीं हो पाता तो उसकी गैर मौजूदगी में ही फैसला सुनाया जाएगा.

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इस तरह यह विधेयक सीपीसी, 1908 और सीआरपीसी, 1973 के प्रावधानों से एकदम अलग है जो अदालत के आदेश का पालन न करने या वारंट से बच निकलने वालों के साथ यह सख्ती अपनाते हैं. इसके अलावा लखनऊ में आरोपियों के खिलाफ पोस्टर बैनर लगाने वाला मामला इस विधेयक में भी रखा गया है. यह सीधे-सीधे राइट टू प्राइवेसी का मामला है क्योंकि किसी का फोटो उन्हीं स्थितियों में छापा जा सकता है जब पुलिस को उससे किसी भगोड़े को गिरफ्तार करने में मदद मिलती हो.

क्या सरकार का अपने ही लोगों से ‘बदला लेना’ सही है

इसमें कोई शक नहीं कि इस अध्यादेश को लाने का मकसद प्रदर्शनकारियों से बदला लेना था. पिछले साल दिसंबर में सीएए के खिलाफ प्रदर्शन करने वालों से नाराज होकर उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री ने खुद ही कहा था कि सीसीटीवी फुटेज और वीडियो से ऐसे लोगों की पहचान की जाएगी और सभी से बदला लिया जाएगा. इसके अलावा सरकार ने प्रदर्शनों को निर्ममता से रोकने की कोशिश की थी. जिस राज्य में पुलिस पहले ही बर्बर तरीके अपनाती है, वहां सीएए के दौरान कानून प्रवर्तन एजेंसियों पर अत्यधिक क्रूरता के आरोप लगे थे. पुलिस फायरिंग में लगभग 23 लोग मारे गए थे और पांच हजार से ज्यादा लोगों को हिरासत में लिया गया था.

माना जा रहा है कि उत्तर प्रदेश में ऐसे कानून के जरिए सिर्फ एक्टिविस्ट्स और विरोधियों को दबाने की कोशिश की जाएगी. क्योंकि सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान पहुंचाने के लिए सिर्फ उन्हीं को दोषी ठहराया जा रहा है. दूसरी तरफ बड़े व्यापारिक घरानों के भूमि अधिग्रहण और सार्वजनिक संसाधनों की लूट के खिलाफ कोई कदम नहीं उठाए जाते. जिस कर्नाटक में प्रदर्शनकारियों से हर्जाना वसूलने की तैयार की जा रही है, वहां पूर्व लोकायुक्त जस्टिस संतोष हेगड़े अवैध खनन घोटाले में बड़े दिग्गजों को घसीट चुके हैं.

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उत्तर प्रदेश में भी तमाम घोटाले सामने आ रहे हैं. खुर्जा स्थित थर्मल पावर प्लांट में भूमि अधिग्रहण के मुआवजे की वितरण राशि में घोटाले की जांच चल रही है. बरेली-मुरादाबाद नेशनल हाईवे के चौड़ीकरण के लिए ज्यादा भूमि का अधिग्रहण करके कम मुआवजा दिए जाने के आरोप लग रहे हैं और इस बीच जमीन की फाइल गायब हो गई है. इस प्रॉजेक्ट के लिए 25 गांवों के दो हजार से ज्यादा किसानों की जमीनें ली गई थीं. इसके अलावा हमीरपुर में मौरंग खनन घोटाले, तो लखनऊ में गोमती रिवर फ्रंट के घोटाले के चलते पिछली सपा सरकार पर सवालिया निशान हैं. योगी सरकार खुद भी नोएडा के होमगार्ड वेतन घोटाले, और यूपीपीसीएल पीएफ घोटाले से जूझ रही है.

यूं यह सवाल किया जा सकता है कि जब सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान पहुंचाया जा रहा हो क्या सरकार कुछ भी न करे. इस सवाल के जवाब में उत्तर प्रदेश पुलिस काफी कारनामे कर चुकी है. नन्हे बच्चों से लेकर युवा और बूढ़ों पर गुस्सा उतार चुकी है. यह उसका कैसा रंज है कि अपने ही लोगों से बदला लेना चाहती है. आखिर यह सवाल उससे कौन पूछेगा कि हिंसा का सबसे ज्यादातर ताकतवर हथियार किसके पास है. चूंकि जब हुकूमत करने वाले अपने आलोचकों को गोली मारने के नारे लगवाएं तो क्या यह मालूम नहीं चलता कि हिंसा कहां से शुरू होती है. तब मुआवजा वसूलने कौन और कहां से आएगा?

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