ADVERTISEMENTREMOVE AD

हिंदुओं और मुसलमानों को 'एक' रहने के लिए पुकारती उर्दू शायरी और हिंदी कविताएं

Hindustan में जब भी नफरत ने अपने पांव पसारे समाज और साहित्य-अदब से जुड़े लोगों ने आगे बढ़कर इसकी काट निकाली.

छोटा
मध्यम
बड़ा

ये दाग़ दाग़ उजाला ये शब-गज़ीदा सहर

वो इंतिज़ार था जिस का ये वो सहर तो नहीं

ये वो सहर तो नहीं जिस की आरज़ू ले कर

चले थे यार कि मिल जाएगी कहीं न कहीं 

अभी चराग़-ए-सर-ए-रह को कुछ ख़बर ही नहीं

अभी गिरानी-ए-शब में कमी नहीं आई

नजात-ए-दीदा-ओ-दिल की घड़ी नहीं आई

चले-चलो कि वो मंज़िल अभी नहीं आई

- फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

पिछले दिनों राम नवमी के मौके पर हिंदुस्तान (Hindustan) के अलग-अलग इलाकों से हिंसा और आगजनी (Ramnavami Violence) की खबरें आईं. कहीं तालीम के इदारे को राख कर दिया गया तो कहीं गरीबों के घरों और दुकानों में नफरत की ऐसी आग भड़की कि सालो की मेहनत मिट्टी में मिल गई. नफरत (Hate) ने अपना पंख इस कदर फड़फड़ाए कि उसकी चपेट में आने वाले लोगों के अलावा हवा के इस असर को देखने वालों तक की रूह कांप गई.

ADVERTISEMENTREMOVE AD

लेकिन दूसरी ओर इस तरह की घटनाओं के बाद भी कुछ अच्छी खबरें भी सुनने में आईं. बिहार के बिहारशरीफ में नफरत को खत्म करने के लिए हिंदू और मुस्लिम समुदाय के लोगों ने मिलकर सद्भावना मार्च निकाला. देश को आज इसी की जरूरत है.

आओ कि आज ग़ौर करें इस सवाल पर

देखे थे हम ने जो वो हसीं ख़्वाब क्या हुए

- साहिर लुधियानवी

हिंदुस्तान में जब भी ऐसा वक्त आया समाज के लोगों ने आगे बढ़कर इसकी काट निकाली और इसमें साहित्य का भी अहम योगदान रहा है. तो आज हम ये जानने की कोशिश करेंगे कि साहित्य और अदब के लोगों ने ऐसे हालात में किस तरह से अपने अश'आर के जरिए समाज में सद्भाव-भाईचारा बढ़ाने की कोशिश की और हिंदुओं और मुसलमानों में एकता लाने की ओर कदम बढ़ाया.

साहित्य अकादमी अवार्ड से सम्मानित उर्दू शायर बशीर बद्र नफरत (Bashir Badr) को संदूकों में बंद करने की बात करते हुए लिखते हैं...

सात संदूक़ों में भर कर दफ़्न कर दो नफ़रतें

आज इंसाँ को मोहब्बत की ज़रूरत है बहुत

और मुशायरों की जान कहे जाने वाले मरहूम उर्दू शायर राहत इंदौरी (Rahat Indori) साहब कहते हैं...

आप हिंदू, मैं मुसलमान, ये ईसाई, वो सिख

यार छोड़ो, ये सियासत है...चलो इश्क़ करें

उत्तर प्रदेश (Uttar Pradesh) के मलीहाबाद से ताल्लुक रखने वाले उर्दू शायर जाफ़र मलीहाबादी हिंदुस्तान के लोगों को एक रहने की गुहार लगाते हुए कहते हैं...

दिलों में हुब्ब-ए-वतन है अगर तो एक रहो

निखारना ये चमन है अगर तो एक रहो

हिंदी के जाने-माने कवि उदयप्रताप सिंह (Udai Pratap Singh) हिंदुस्तान के लोगों को बड़ी गहराई से समझाते हैं और इससे होने वाले फायदे-नुकसान की ओर इशारा करते हुए कहते हैं...

न मेरा है न तेरा है ये हिन्दुस्तान सबका है

नहीं समझी गई ये बात तो नुकसान सबका है

 

जो इसमें मिल गईं नदियाँ वे दिखलाई नहीं देतीं

महासागर बनाने में मगर एहसान सबका है

 

हक़ीक़त आदमी की और झटका एक धरती का

जो लावारिस पड़ी है धूल में सामान सबका है

 

उदय झूठी कहानी है सभी राजा और रानी की

जिसे हम वक़्त कहते हैं वही सुल्तान सबका है

- उदयप्रताप सिंह

उर्दू शायर नज़ीर बनारसी लिखते हैं...

नफरत की आग बढ़ने न पाये बुझा के चल

उठ और प्रेम-प्यार की गंगा बहा के चल

 

फरमान वक्त का है यह हर भारती के नाम

मतभेद सारे अपने दिलों से मिटा के चल

 

होती है शाम, मस्जिदो-मन्दिर हैं सामने

इक एक दीप दोनों में पहले जला के चल

कोई मजहब नफरत नहीं सिखाता

कोई भी मजहब और धर्म किसी भी धर्म और मजहब के लोगों से नफरत करना नहीं सिखाता है. ये बात हिंदुस्तान के लोगों को उर्दू शायर और फलसफी अल्लामा इकबाल (Allama Iqbal) ने अपनी शायरी के जरिए बहुत पहले बता दी थी.

सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्ताँ हमारा

हम बुलबुलें हैं इस की ये गुलसिताँ हमारा

 

मज़हब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना

हिन्दी हैं हम वतन है हिन्दोस्ताँ हमारा

- अल्लामा इक़बाल

ADVERTISEMENTREMOVE AD

आधुनिक दौर के शायरों में एक बड़े नाम के तौर पर देखे जाने वाले उर्दू शायर इरफान सिद्दीकी (Irfan Siddiqui) कहते हैं...

नफ़रत के ख़ज़ाने में तो कुछ भी नहीं बाक़ी

थोड़ा सा गुज़ारे के लिए प्यार बचाएँ

हिंदू-मुस्लिम एकता पर साहिर लुधियानवी साहब लिखते हैं...

तू हिन्दू बनेगा न मुसलमान बनेगा

इंसान की औलाद है इंसान बनेगा

 

अच्छा है अभी तक तेरा कुछ नाम नहीं है

तुझ को किसी मज़हब से कोई काम नहीं है

 

मालिक ने हर इंसान को इंसान बनाया

हम ने इसे हिन्दू या मुसलमान बनाया

 

नफ़रत जो सिखाए वो धरम तेरा नहीं है

इंसाँ को जो रौंदे वो क़दम तेरा नहीं है

 

क़ुरआन न हो जिस में वो मंदिर नहीं तेरा

गीता न हो जिस में वो हरम तेरा नहीं है

 

तू अम्न का और सुल्ह का अरमान बनेगा

इंसान की औलाद है इंसान बनेगा

- साहिर लुधियानवी

उत्तर प्रदेश (Uttar Pradesh) के सुल्तानपुर (Sultanpur) की सरजमीं से ताल्लुक रखने वाले उर्दू शायर अजमल सुल्तानपुरी (Ajmal Sultanpuri) अपने पुराने हिंदुस्तान को याद करते हुए कहते हैं...

मुसलमाँ और हिन्दू की जान

कहाँ है मेरा हिन्दुस्तान

मैं उस को ढूँढ रहा हूँ

 

जहाँ के कृष्ण जहाँ के राम

जहाँ की शाम सलोनी शाम

जहाँ की सुबह बनारस धाम

जहाँ भगवान करें स्नान

मैं उस को ढूँढ रहा हूँ

 

जहाँ थे तुलसी और कबीर

जायसी जैसे पीर फ़क़ीर

जहाँ थे मोमिन ग़ालिब मीर

जहाँ थे रहमन और रसखा़न

मैं उस को ढूँढ रहा हूँ

ADVERTISEMENTREMOVE AD

शायर इमरान प्रतापगढ़ी (Imran Pratapgarhi) हिंदू-मुस्लिम दोनों मजहबों के लोगों के लहू के एक रंग के होने की बात करते हुए कहते हैं...

जब तेरा और मेरा एक ही रंग है, 

फिर बताओ भला किसलिए जंग है

कौन कहता है आबाद हो जाएंगे

एक गुज़री हुई याद हो जाएंगे

एक-दूजे के खूं की रही प्यास तो

एक दिन दोनों बर्बाद हो जाएंगे

मेरे बिन तू अधूरा रहेगा सदा

इस तरह से तेरा और मेरा संग है

जब तेरा और मेरा एक ही रंग है.

फिर बताओ भला किसलिए जंग है

- इमरान प्रतापगढ़ी

अपने दौर में हिंदुस्तान की सामाजिक और भाषाई संस्कृति के एक जिंदा प्रतीक माने-जाने वाले उर्दू शायर आनंद नारायण मुल्ला कहतें हैं...

मैं फ़क़त इंसान हूँ हिन्दू मुसलमाँ कुछ नहीं

मेरे दिल के दर्द में तफ़रीक़-ए-ईमाँ (आस्था का बंटवारा) कुछ नहीं

और आखिरी में फिर से साहिर लुधियानवी साहब (Sahir Ludhianvi) की एक नज्म, जिसमें वो इंसानी नस्ल की फिक्र करते हुए जिदगी की सच्चाई बयान करते हैं और वो ये भी बताते हैं कि हमें आपसी जंग के बजाय इंसानों की भलाई के लिए लड़नी चाहिए. साहिर साहब कहते हैं...

ख़ून अपना हो या पराया हो

नस्ल-ए-आदम का ख़ून है आख़िर

जंग मशरिक़ में हो कि मग़रिब में

अम्न-ए-आलम का ख़ून है आख़िर

बम घरों पर गिरें कि सरहद पर

रूह-ए-तामीर ज़ख़्म खाती है

खेत अपने जलें कि औरों के

ज़ीस्त फ़ाक़ों से तिलमिलाती है

फ़त्ह का जश्न हो कि हार का सोग

ज़िंदगी मय्यतों पे रोती है

जंग तो ख़ुद ही एक मसअला है

जंग क्या मसअलों का हल देगी

आग और ख़ून आज बख़्शेगी

भूक और एहतियाज कल देगी

इस लिए ऐ शरीफ़ इंसानो

जंग टलती रहे तो बेहतर है

आप और हम सभी के आँगन में

शम्अ' जलती रहे तो बेहतर है

 

बरतरी के सुबूत की ख़ातिर

ख़ूँ बहाना ही क्या ज़रूरी है

घर की तारीकियाँ मिटाने को

घर जलाना ही क्या ज़रूरी है

जंग के और भी तो मैदाँ हैं

सिर्फ़ मैदान-ए-किश्त-ओ-ख़ूँ ही नहीं

हासिल-ए-ज़िंदगी ख़िरद भी है

हासिल-ए-ज़िंदगी जुनूँ ही नहीं

आओ इस तीरा-बख़्त दुनिया में

फ़िक्र की रौशनी को आम करें

अम्न को जिन से तक़्वियत पहुँचे

ऐसी जंगों का एहतिमाम करें

जंग वहशत से बरबरिय्यत से

अम्न तहज़ीब ओ इर्तिक़ा के लिए

जंग मर्ग-आफ़रीं सियासत से

अम्न इंसान की बक़ा के लिए

जंग इफ़्लास और ग़ुलामी से

अम्न बेहतर निज़ाम की ख़ातिर

जंग भटकी हुई क़यादत से

अम्न बे-बस अवाम की ख़ातिर

जंग सरमाए के तसल्लुत से

अम्न जम्हूर की ख़ुशी के लिए

जंग जंगों के फ़लसफ़े के ख़िलाफ़

अम्न पुर-अम्न ज़िंदगी के लिए

- साहिर लुधियानवी

(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)

सत्ता से सच बोलने के लिए आप जैसे सहयोगियों की जरूरत होती है
मेंबर बनें
×
×