एक दिन सहसा
सूरज निकला
अरे क्षितिज पर नहीं,
नगर के चौक
धूप बरसी
पर अंतरिक्ष से नहीं,
फटी मिट्टी से.
छायाएँ मानव-जन की
दिशाहीन
सब ओर पड़ीं- वह सूरज
नहीं उगा था वह पूरब में, वह
बरसा सहसा
बीचों-बीच नगर के
काल-सूर्य के रथ के
पहियों के ज्यों अरे टूट कर
बिखर गए हों
दसों दिशा में.
ये पंक्तियां हैं, हिंदी साहित्य के जाने-माने कवि और कथाकार अज्ञेय जी (Sachchidananda Hirananda Vatsyayan Agyeya) की, जो उन्होंने उस नजारे को महसूस करते हुए लिखा था, जिसको देखकर सारी दुनिया की आंखें फटी की फटी रह गई थीं. 6 अगस्त 1945 की सुबह जापान के हिरोशिमा और नागासाकी में अमेरिकी वायु सेना के परमाणु बमों से जिंदगियां राख हो गईं थीं और अज्ञेय जी ने इसका वर्णन बड़े ही सजीवता से अपनी कविता में किया था. एक ऐसा साहित्यकार जिसे प्रकृति से बेहद मोहब्बत थी लेकिन देश की खातिर अपने स्वभाव से बिल्कुल इतर जाकर बम बनाया, भेष बदला और एक ऐसा भी वक्त आया कि जेल की रोटी भी खानी पड़ी.
उत्तर प्रदेश (Uttar Pradesh) के कुशीनगर में 7 मार्च 1911 को एक बालक का जन्म हुआ, जिसको प्यार से 'सच्चा' कहा जाता था और आगे चलकर वो हिंदी के कवि और लेखक 'अज्ञेय' के रूप में पहचाने गए. द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान कलम उठाने वाले हाथों ने बंदूक भी उठाई, किताबों के पन्ने खोलने वाली उंगलियों ने कारतूसों के खोखे भी खोले, इसके अलावा उन्होंने सेना में कप्तान के पद पर रहते हुए अपना योगदान भी दिया.
अज्ञेय जी ने घर पर ही हिन्दी, अंग्रेज़ी, संस्कृत, फारसी आदि भाषाओं की तालीम हासिल की. उनका बचपन लखनऊ, कश्मीर, बिहार और मद्रास में गुजरा. बी.एस सी. करके अंग्रेजी में एम.ए. करते वक्त चंद्रशेखर आजाद और भगत सिंह के बुलावे पर दिल्ली आए और क्रांतिकारी आंदोलन से जुड़कर बम बनाते हुए पकड़े गए. इसके बाद वो वहां से फरार हुए और अमृतसर जाकर एक मस्जिद में मुल्ला की तरह रहते हुए गिरफ्तार किए गए.
'अज्ञेय' नाम कैसे पड़ा?
सच्चिदानंद जी के नाम में 'अज्ञेय' जुड़ने की भी अलग कहानी है. उन्होंने अपनी कई कहानियां जेल में रहते हुए लिखीं और जब इन्हें छपवाने की बात आई तो नाम गुप्त रखने के लिए 'अज्ञेय' के नाम से रचनाएं प्रकाशित कराई गईं और इस तरह से सच्चिदानंद हीरानंद साहब 'अज्ञेय' हो गए. उन्होंने दिनमान साप्ताहिक, नवभारत टाइम्स, अंग्रेजी पत्र वाक् और एवरीमैंस जैसी मशहूर पत्र-पत्रिकाओं का संपादन किया.
इसके अलावा उनकी- हरी घास पर क्षण भर, बावरा अहेरी, इन्द्रधनुष रौंदे हुये ये, आंगन के पार द्वार, कितनी नावों में कितनी बार, पहले मैं सन्नाटा बुनता हूं और शेखर एक जीवनी जैसी कई रचनाएं ऐसी हैं, जो लोगों द्वारा बेहद पसंद की जाती हैं.
अज्ञेय जी को तन्हाई से बेहद प्यार था, वो अकेले बैठे हुए अक्सर कुदरत के तमाम पहलुओं से बातें किया करते थे. इसी तरह वो समंदर से बात करते हुए लिखते हैं...
यों मत छोड़ दो मुझे, सागर,
कहीं मुझे तोड़ दो, सागर,
कहीं मुझे तोड़ दो!
मेरी दीठ को और मेरे हिये को,
मेरी वासना को और मेरे मन को,
मेरे कर्म को और मेरे मर्म को,
मेरे चाहे को और मेरे जिये को
मुझ को और मुझ को और मुझ को
कहीं मुझ से जोड़ दो!
यों मत छोड़ दो मुझे, सागर,
यों मत छोड़ दो.
महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय में प्रोफेसर सत्यवीर क्विंट हिंदी से बात करते हुए कहते हैं कि
अज्ञेय की रचनाओं में सामान्य जन-जीवन से ऊपर की चीजें नज़र आती हैं. प्रेमचंद्र की लेखनी में किसान जीवन का यथार्थ दिखता है, लेकिन अज्ञेय ने एलीट क्लास की लाइफ और उसका सामान्य जन-जीवन में जो हस्तक्षेप होता है उसके बारे में बात की है. हमारे सामने अज्ञेय एक ऐसे परिदृश्य के रूप में नजर आते हैं कि वो केवल भारत की बात नहीं करते हैं. उन्होंने कई देशों की यात्राएं की और वहां की समस्याओं और उसकी विभीषिका के बारे में लिखा.
अज्ञेय जी ने एक कविता सांप से बात करते हुए भी लिखी, जिसमें वो लिखते हैं...
सांप!
तुम सभ्य तो हुए नहीं
नगर में बसना
भी तुम्हें नहीं आया.
एक बात पूछूं (उत्तर दोगे?)
तब कैसे सीखा डंसना
विष कहां पाया?
प्रोफेसर सत्यवीर कहते हैं कि अज्ञेय जी ने इस कविता के जरिए शहरी जीवन पर कटाक्ष किया है.
ऐसी कोई विधा नहीं है, जिस पर अज्ञेय ने ना लिखा हो, उन्होंने सिर्फ लेखनी ही नहीं चलाई है बल्कि एक मिसाल कायम की है. उनके द्वारा लिखा गया उपन्यास 'शेखर एक जीवनी' ने उपन्यास जगत में धमाल मचाने का काम किया. उनका साहित्य केवल आम जन-मानस पर नहीं है बल्कि वो हर तरह के लोगों को प्रभावित करता है. चाहे वह सामान्य वर्ग हो या उच्च वर्ग हो.प्रोफेसर सत्यवीर, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय
अज्ञेय जी को 1964 में उनकी रचना 'आंगन के पार द्वार' के लिए साहित्य अकादमी के पुरस्कार से नवाज़ा गया और 1978 में 'कितनी नावों में कितनी बार' के लिए भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार मिला.
अज्ञेय जी स्वाभिमानी होने के साथ-साथ बड़े ही निडर थे, परेशानियां उन्हें कभी हरा न सकीं, इसका असर उनकी कविताओं में भी नज़र आता है...
मैं कब कहता हूं जग मेरी दुर्धर गति के अनुकूल बने,
मैं कब कहता हूं जीवन-मरू नंदन-कानन का फूल बने?
कांटा कठोर है, तीखा है, उसमें उसकी मर्यादा है,
मैं कब कहता हूं वह घटकर प्रांतर का ओछा फूल बने ?
4 अप्रैल 1987 को हिंदी के पहले विश्वयात्री अज्ञेय जी की सांसों के साथ एक मजबूत कलम भी रुक गई, लेकिन वो क्रांतिकारी, प्रकृति प्रेमी, सच्चे लेखक और मार्गदर्शक के रूप में हमारे साथ आज भी मौजूद हैं और हमेशा रहेंगे.
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