ओम प्रकाश चौटाला (Om Prakash Chautala) का जेल से रिहा होना, भूपेंद्र सिंह हुड्डा (Bhupinder Singh Hooda) की दबाव की राजनीति और किसान विरोध प्रदर्शन (Farmer protests) का पुनरुत्थान- सभी हरियाणा की राजनीति में हलचल के संकेत हैं, विशेषकर राजनीतिक रूप से प्रभावशाली जाट समुदाय के बीच ,जो राज्य की आबादी का लगभग 25% हैं.
चौटाला शुक्रवार ,2 जुलाई को दिल्ली के तिहाड़ जेल से बाहर आए और यह उम्मीद की जा रही है कि वह मौजूदा किसान आंदोलन को खुलकर समर्थन देंगे. संभावना है कि वो जल्द ही सिंधु, टिकरी, गाजीपुर और शाहजहांपुर में विरोध स्थलों का दौरा करेंगे.
इसी बीच पूर्व मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा शक्ति प्रदर्शन मोड में है और उनके वफादार विधायक उनके लिये और बड़ी भूमिका की मांग कर रहे हैं. पार्टी जनरल सेक्रेट्री केसी वेणुगोपाल के साथ बैठक से पहले सोमवार, 5 जुलाई को कांग्रेस के 33 में से 21 विधायक हुड्डा के निवास स्थल पर मिले.
इस आर्टिकल में हम इन चार प्रश्नों पर विचार करेंगे:
चौटाला की रिहाई का संभावित प्रभाव क्या हो सकता है?
कांग्रेस में भूपेंद्र सिंह हुड्डा के शक्ति प्रदर्शन की क्या व्याख्या है?
बीजेपी के लिए इसका क्या मतलब है?
इन घटनाक्रमों और किसान आंदोलन के मद्देनजर हरियाणा की राजनीति क्या करवट लेगी?
चौटाला की रिहाई का संभावित प्रभाव क्या हो सकता है?
चौटाला की रिहाई नि:संदेह उनकी पार्टी इंडियन नेशनल लोकदल (INLD) को मजबूती देगी, जो उनकी गिरफ्तारी के बाद से कमजोर होती गई और बाद में उनके बेटे अजय चौटाला और पोते दुष्यंत और दिग्विजय चौटाला के नेतृत्व में जननायक जनता पार्टी(जजपा) का गठन हुआ. हालांकि हरियाणा में बीजेपी सरकार और कृषि कानूनों को उनके समर्थन के कारण जजपा ने अपना समर्थक बेस खोया है.
चौटाला की वापसी के साथ INLD,विशेष रूप से हरियाणा के उत्तरी जिलों जैसे सिरसा, फतेहाबाद ,जींद ,कैथल और हिसार के जाट कोर बेस को वापस जीतने की उम्मीद करेगी.
कांग्रेस के साथ INLD कृषि कानूनों के खिलाफ किसानों के आंदोलन के समर्थन में अडिग रही है. हरियाणा में विरोध कर रहे किसानों में जाटों की संख्या बहुत अधिक है. अगर INLD वापसी करती है तो यह मुख्य रूप से जजपा और कांग्रेस की कीमत पर होगा, क्योंकि इन दोनों ने चौटाला के पकड़ वाले पूर्ववर्ती क्षेत्रों में पैठ बनाना शुरू कर दिया था.
कांग्रेस में भूपेंद्र सिंह हुड्डा के शक्ति प्रदर्शन का क्या मतलब है?
इस बीच जाट राजनीति में चौटाला के प्रमुख प्रतिद्वंदी- तीन बार के सीएम भूपेंद्र सिंह हुड्डा अभी हरियाणा कांग्रेस में अपने प्रभुत्व के लिए संघर्ष में लगे हुए हैं.
हुड्डा के वफादार विधायक मांग कर रहे हैं कि उन्हें हरियाणा में पार्टी के मामले में ज्यादा बड़ी भूमिका दी जाए. हुड्डा के वफादार 19 विधायकों ने हाल ही में हरियाणा के कांग्रेस प्रभारी विवेक बंसल से मुलाकात कर यह मांग रखी थी. जाहिर तौर पर उनकी मांग है कि हुड्डा को कुमारी शैलजा की जगह कांग्रेस की हरियाणा इकाई का अध्यक्ष बनाया जाए. हालांकि हुड्डा हरियाणा विधानसभा में विपक्ष के नेता है लेकिन उनके लिए PCC अध्यक्ष का पद अधिक मायने रखता है. एक वैकल्पिक मांग यह भी रखी जा रही है कि हुड्डा के बेटे, दीपेंद्र सिंह हुड्डा को प्रमुख भूमिका दी जाए.
कांग्रेस जनरल सेक्रेट्री (संगठन) केसी वेणुगोपाल को पार्टी नेतृत्व द्वारा हरियाणा संकट को मैनेज करने के लिए नियुक्त किया गया है और हुड्डा के आवास पर बैठक में मौजूद 21 विधायकों का पूर्व सीएम के लिए समर्थन करने की संभावना है. यह स्पष्ट है कि हुड्डा को कांग्रेस के अधिकांश विधायकों का समर्थन प्राप्त है और वह राज्य में सबसे लोकप्रिय कांग्रेस नेता हैं. इसलिए इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि नेतृत्व पर उनका दावा मजबूत है.
हालांकि उन्हें पार्टी आलाकमान का समर्थन प्राप्त नहीं है, जिसके बारे में कहा जाता है कि वो शैलजा के साथ साथ रणदीप सिंह सुरजेवाला को भी पसंद करता है. सुरजेवाला वर्तमान में कर्नाटक के प्रभारी जनरल सेक्रेटरी हैं. आलाकमान की अनिच्छा के पीछे एक दूसरा कारण यह भी हो सकता है कि हुड्डा उन 23 असंतुष्टों के समूह का हिस्सा थें जिन्होंने पार्टी की स्थिति के बारे में शिकायत करते हुए एक पत्र जारी किया था.
कांग्रेस नेतृत्व के सामने स्थिति मुश्किल है. उसे हरियाणा कांग्रेस के विभिन्न प्रतिस्पर्धी गुटों और जाति-समुदाय के बीच संतुलन बनाना है. हुड्डा और सुरजेवाला दोनों जाट हैं जबकि कुमारी शैलजा दलित. अकेले हुड्डा को बढ़ावा देने से पार्टी को जाटों के बीच अपनी स्थिति मजबूत करने में मदद मिल सकती है लेकिन गैर-जाटों के बीच इसकी कीमत चुकानी पड़ सकती है, जो राज्य की राजनीति की सबसे बड़ी गलती बनी गई है.
हुड्डा के इस दबाव के पीछे एक बड़ी वजह उनकी उम्र भी है. वो वर्तमान में 73 वर्ष के हैं और अगले विधानसभा चुनाव तक 76 वर्ष के हो जाएंगे. ऐसी आशंका है कि पार्टी तब सुरजेवाला या शैलजा को प्रोजेक्ट करेगी. ऐसी स्थिति में पूर्व सीएम और दीपेंद्र हुड्डा ,दोनों को नुकसान होगा.
बीजेपी के लिए यह स्थिति फायदेमंद कैसे हैं?
बीजेपी इन घटनाओं को करीब से देख रही है और पार्टी के अंदरूनी सूत्रों का कहना है कि उनके लिए यह फायदे की स्थिति है. पार्टी कांग्रेस, INLD और जजपा के बीच जाट वोटों के बंटवारे पर आश्वस्त होते हुए राज्य में गैर-जाट वोटों पर पैठ बनाने की नीति का सावधानीपूर्वक पालन कर रही है. इसने 2014 में लोकसभा और विधानसभा चुनाव में पार्टी के लिए अच्छा काम किया था, जब जाट वोट कांग्रेस और INLD के बीच बंट गयें जबकि बीजेपी को सवर्ण, गुर्जर, अहिर और पंजाबी वोट मिल गयें.
2019 के लोकसभा चुनाव में जाट वोट कांग्रेस INLD और जजपा के बीच विभाजित हो गयें जबकि बीजेपी ने अपने गैर-जाट बेस को और मजबूत किया और उसे जाट वोटों का भी एक हिस्सा मिला. हालांकि 2019 के विधानसभा चुनाव में इस रणनीति का उल्टा असर हुआ, जिसमें जाटों ने भाजपा को हराने के लिए कुछ सीटों पर कांग्रेस और दूसरों पर जजपा को वोट दिया. बीजेपी बहुमत के आंकड़े से पीछे रह गई और उसे जजपा के साथ सरकार बनाने के लिए मजबूर होना पड़ा.
किसानों के विरोध और जजपा की बदनामी के साथ बीजेपी को डर था कि कांग्रेस मुस्लिम और दलित वोटों के अलावा अपने पूरे जाट वोट को मजबूत करेगी.ऐसे में चौटाला की रिहाई और राजनीति में वापसी हर रूप में बीजेपी के लिए लाभकारी हो सकता है.
चौटाला की वापसी के बाद हुड्डा के नेतृत्व वाली कांग्रेस के लिए हरियाणा के उत्तरी क्षेत्रों के INLD गढ़ों में विस्तार करना आसान नहीं होगा. यह याद रखना चाहिए कि हुड्डा एक अखिल हरियाणा जाट नेता नहीं है और उनके प्रभुत्व का क्षेत्र रोहतक, झज्जर और सोनीपत जैसे जिले हैं. हुड्डा के लिए यह और भी मुश्किल हो जाएगा अगर उन्हें कांग्रेस के राज्य इकाई में शीर्ष स्थान देने से वंचित कर दिया जाता है.
इन घटनाक्रमों और किसान आंदोलन के मद्देनजर हरियाणा की राजनीति क्या करवट लेगी?
गुटबाजी ग्रस्त इकाइयों में शांति बनाए रखने के कांग्रेस के हालिया प्रयासों को देखना महत्वपूर्ण है- केरल में इसमें पोलराइज्ड A-ग्रुप बना I-ग्रुप की राजनीति से आगे बढ़ने की कोशिश की है जबकि पंजाब में राहुल और प्रियंका गांधी ने मामले को अपने हाथ में लिया है.
संभावना है कि उन्हें किसी प्वॉइंट पर हरियाणा को लेकर कदम उठाना पड़ सकता है.तब बहुत कुछ इस बात पर निर्भर करेगा कि राहुल गांधी 'हुड्डाओं' को स्वीकार करने को कितना तैयार है. पार्टी नेतृत्व पहले ही एक बार उनके पंख कतरने की कोशिश कर चुका है जैसे कि 2014 के विधानसभा चुनाव की हार के बाद- जब पार्टी इकाई हुड्डा प्रतिद्वंदी अशोक तंवर के नेतृत्व में बनी रही और विधायक दलों का पद एक अन्य प्रतिद्वंदी किरण चौधरी के पास गया.
इस बार,यह संभावना है कि पार्टी हुड्डा को ज्यादा तरजीह दे सकती है, यह देखते हुए कि उन्होंने 2019 के विधानसभा चुनाव में पार्टी को एक अच्छी लड़ाई के लिए नेतृत्व दिया था.
लंबे समय में, बहुत कुछ इस बात पर निर्भर करेगा कि किसान आंदोलन का रूप कैसा रहता है. बीजेपी को विश्वास है कि वह आंदोलन के राजनीतिक नतीजों का सामना करने में उसी तरह सफल रहेगी जैसे उसने जाट विरोधी आंधी का सामना किया. वास्तव में जाट विरोध ने बीजेपी के गैर-जाट वोटों को मजबूत किया, जिन्होंने जाट बहुल कांग्रेस और INLD के विरोध में बीजेपी को अपने हितों की रक्षा करने वाली एकमात्र पार्टी के रूप में देखा.
लेकिन अगर आंदोलन फिर से गति पकड़ता है और यह हरियाणा निकाय चुनावों और उपचुनाव के दौरान बीजेपी को राजनीतिक नुकसान पहुंचाता है तो यह कांग्रेस के लिए लाभप्रद हो सकता है. कांग्रेस अभी भी हरियाणा के विपक्षी दलों में बीजेपी की मूर्खताओं का फायदा उठाने के लिए सबसे अच्छी स्थिति में है.
हालांकि अगर कांग्रेस आलाकमान हुड्डा को अपने पाले में बनाए रखने में विफल रहता है तो यह हरियाणा को एक अलग तरह की राजनीतिक प्रतिस्पर्धा में झोक देगा- हुड्डा और चौटाला के दो गुट जाट वोटों के लिए प्रतिस्पर्धा करेंगे जबकि बीजेपी और कांग्रेस गैर-जाट वोटों के लिए. ऐसी स्थिति में हुड्डा और चौटाला दोनों 'वैकल्पिक मोर्चे' की संभावना पर भी नजर रख सकते हैं, लेकिन यह अभी दूर की कौड़ी है. तत्काल संकट के बारे में तस्वीर 1 या 2 सप्ताह में साफ़ हो सकती है.
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