भारतीय जनता पार्टी के नेता जिस तरह हैदराबाद में ‘जिन्ना’ को याद कर रहे हैं और “सर्जिकल स्ट्राइक” की बात कर रहे हैं, उससे ऐसा लगता नहीं कि तेलंगाना की राजधानी में सिर्फ म्युनिसिपल चुनाव होने वाले हैं. हैदराबाद के स्थानीय चुनाव में पार्टी ने अपने सभी बड़े नेताओं को झोंक दिया है. पार्टी चीफ जे पी नड्डा, केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह, उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और दूसरे कई केंद्रीय मंत्री वहां चुनाव प्रचार कर रहे हैं.
सवाल यह है कि भाजपा वृहद हैदराबाद म्युनिसिपल कॉरपोरेशन (जीएचएमसी) जैसे स्थानीय निकाय के चुनावों को लेकर इतनी उत्साहित क्यों है? उसने वहां इतना बड़ा दांव क्यों लगाया है?
इसके दो पक्ष हैं-
हैदराबाद भाजपा के लिए जंग का मैदान है
तेलंगाना में भाजपा अपने पैर पसारना चाहती है
हैदराबाद या जंग का मैदान
हैदराबाद पर कब्जा भाजपा के लिए सिर्फ चुनावी जंग नहीं, एक सैद्धांतिक लड़ाई भी है.
हिंदुत्व परिवार के लिए हैदराबाद का वजूद विवाद का विषय है. भाजपा ‘हैदराबाद’ को भाग्यनगर नाम देना चाहती है और काफी समय से शहर के सबसे प्रतिष्ठित स्मारक चारमीनार पर बहस छेड़े हुए है.
हैदराबाद में हिंदुत्व के सबसे बड़े प्रतिद्वंद्वियों में से एक मौजूद है- असदुद्दीन ओवैसी की ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुसलमीन (एआईएमआईएम). हिंदूवादी संगठन एआईएमआईएम से
किस हद तक चिढ़ते हैं, यह चुनाव प्रचार के दौरान ओवैसी के लिए इस्तेमाल होने वाले शब्दों से साफ जाहिर होता है.
भाजपा के युवा चेहरा तेजस्वी सूर्या ने हैदराबाद में एक सार्वजनिक सभा में कहा भी था, ओवैसी को वोट देने का मतलब है, मोहम्मद अली जिन्ना को वोट देना. पार्टी ने एआईएमआईएम को ओसामा बिन लादेन से भी जोड़ा था. हालांकि एआईएमआईएम पर बीजेपी की बी पार्टी होने के आरोप लगते रहे हैं लेकिन हिंदूवादी संगठन एआईएमआईएम के लिए अपशब्दों का इस्तेमाल क्यों करते हैं?
हिंदूवादी संगठन ‘हैदराबाद’ पर इतिहास को कुरेदने हैं- यह दक्खन में मुसलमान वर्चस्व का प्रतीक है जोकि मराठा काल और ब्रिटिश शासन के दौरान भी बचा रहा.
‘चूंकि लोगों ने हैदराबाद में ओवैसी को वोट दिया, इसलिए वह बिहार में चुनाव लड़ पाए. यह जरूरी है कि उन्हें यहां हराया जाए.’- तेजस्वी सूर्या, भाजपा सांसद
यह वर्चस्व हैदराबाद के विलय के बाद टूटा और कुछ समय तक कमजोर रहा. लेकिन 70 के दशक के आखिर में एआईएमआईएम ने फिर से सांसें लेनी शुरू कीं और पुराने शहर की राजनीति ने नई करवट बदली. वह प्रभुत्व दोबारा कायम होना शुरू हुआ.
अब जब मजलिस महाराष्ट्र और बिहार की ओर बढ़ चली है तो हिंदूवादी ताकतों ने उसे उसके गढ़ में ही रौंदने की ठानी है.
तेजस्वी सूर्या ऐसे ही मनोभाव प्रकट करते हैं, जब वह कहते हैं कि “चूंकि लोगों ने हैदराबाद में ओवैसी को वोट दिया, इसलिए वह बिहार में चुनाव लड़ पाए. यह जरूरी है कि उन्हें यहां हराया जाए.”
तेलंगाना में पैर पसारना
तेलंगाना राष्ट्र समिति (टीआरएस) की स्थापना एक सामाजिक आंदोलन का नतीजा था. यह आंदोलन तेलंगाना को अलग राज्य बनाने की मांग के साथ शुरू हुआ था. इतिहास गवाह है कि सामाजिक आंदोलनों के जरिए सत्ता हासिल करने वालों को राजनीति से खदेड़ना आसान नहीं होता.
तृणमूल कांग्रेस ने नंदीग्राम और सिंगूर के प्रदर्शन के साथ बंगाल पर कब्जा जमाया और आप जन लोकपाल आंदोलन के जरिए दिल्ली में जा बैठी. ये दोनों हालिया उदाहरण हैं. हालांकि टीआरएस ने एक बड़े और पुराने आंदोलन की मदद से अपना परचम लहराया.
भाजपा को इसका पूरा एहसास है. वह जानती है कि सैद्धांतिक लड़ाई के बिना टीआरएस को तेलंगाना से उखाड़ना बहुत मुश्किल है. वह सीधे तेलंगाना की अवधारणा पर ही सवाल खड़े कर रही है.
तेलंगाना की अवधारणा
हिंदूवादी संगठन तेलंगाना को मुसलमान शासक यानी निजाम के खिलाफ हिंदुओं के प्रतिरोध के रूप में देखते हैं और कहते हैं कि वहां मुसलमानों के शासन से पहले के ‘गौरव’ को जगाया जाना चाहिए.
लेकिन तेलंगाना को लेकर टीआरएस की अवधारणा कुछ और है. वह इतिहास को बहुत बाद से देखती है. 1952 का मुलकी प्रदर्शन, फिर 1969 में अलग राज्य की मांग वाला आंदोलन और तेलंगाना प्रजा समिति का गठन और अंत में 2011 के प्रदर्शन जिसमें टीआरएस ने भी अहम भूमिका निभाई थी.
सो, टीआरएस तेलंगाना के इतिहास को हिंदू बनाम मुसलमान के लिहाज से नहीं देखती, बल्कि काकतीय, कुतुबशाही और आसफ़ जाही वंश की उत्पत्ति मानती है.
हैरानी की बात नहीं कि मुख्यमंत्री चंद्रशेखर राव जिस वेलम्मा जाति के हैं, वह राजशाही की वफादार रही है और उसका इस पर बहुत अधिक असर रहा है.
इसलिए भाजपा के नरेटिव से टीआरएस का नेरेटिव एकदम अलग है और लेफ्ट से भी- चूंकि वे लोग तेलंगाना को 1946 में निजाम के खिलाफ किसान आंदोलन के लिहाज से देखते हैं.
एआईएमआईएम का नजरिया टीआरएस से मिलता-जुलता है और वह मुसलमानों के हितों की रक्षा पर खास जोर देती है.
इसीलिए भाजपा ने अपने चुनाव प्रचार के दौरान टीआरएस को एआईएमआईएम का प्रॉक्सी कहा है और उसे “मुसलमान प्रेमी” और “हिंदू विरोधी” बताया है.
उसका इरादा टीआरएस के तेलुगू भाषी हिंदू वोट हासिल करना है और हैदराबाद में एआईएमआईएम से सीधा लोहा लेना है.
जीएचएमसी का इसीलिए महत्व है
हैदराबाद का प्रतीकात्मक महत्व तो है ही, जीएचएमसी तेलंगाना में सत्ता हासिल करने के लिए भी महत्वपूर्ण है.
जीएचएमसी में 24 विधानसभा क्षेत्र आते हैं जोकि तेलंगाना विधानसभा की कुल सीटों का एक बटा पांच हिस्सा है. जीएचएमसी के दायरे में चार लोकसभा सीटों के क्षेत्र भी आते हैं- सात-सात विधानसभा सेगमेंट हैदराबाद और सिकंदराबाद के, पांच मलकानगिरी के, तीन चेवेल्ला और एक मेडक के. 2019 के लोकसभा चुनावों में 24 में से सात सेगमेंट्स पर भाजपा आगे रही थी.
परंपरागत रूप से सिकंदराबाद लोकसभा क्षेत्र में भाजपा ताकतवर रही है, और पिछले तीन दशकों में पांच बार वहां से जीती है.
हालांकि दूसरी सभी सीटों पर वह ऐतिहासिक रूप से अपनी साथी तेलुगू देशम पार्टी (टीडीपी) के भरोसे रही है.
लेकिन जीएचएमसी में टीडीपी और कांग्रेस के कमजोर होने से भाजपा के लिए मंच खुल गया.
इसके लिए कुछ हद तक टीआरएस को भी जिम्मेदार ठहराया जाना चाहिए. लोक लुभावन वादे और केसीआर की लोकप्रियता को भुनाने के अलावा टीआरएस ने अपनी ताकत बरकरार रखने के लिए एक काम यह किया कि उसने विपक्ष को खत्म किया. कांग्रेसी की अंतर्कलह का भी टीआरएस को फायदा पहुंचा- उसके कई नेता टीआरएस में शामिल हो गए.
2018 के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस को 19 सीटें मिलीं लेकिन अब उसके पास सिर्फ छह विधायक बचे हैं. ए रेवंत रेड्डी और उत्तम कुमार रेड्डी जैसे नेता संसद में पहुंचे लेकिन अधिकतर ने टीआरएस का पल्ला थाम लिया.
विपक्ष इतना अप्रासंगिक हो गया है कि टीआरएस के अनौपचारिक सहयोगी एआईएमआईएम के अकबरुद्दीन ओवैसी तेलंगाना विधानसभा में विपक्ष के नेता हैं.
केसीआर भी केंद्र में भाजपा का विरोध न करने की कीमत चुका रहे हैं. उनकी पार्टी ने कई महत्वपूर्ण विधेयकों को पारित करने में भाजपा की बहुत मदद की है- या तो उन्होंने उनके पक्ष में वोटिंग की है या सदन से गैर मौजूद रहे हैं.
केसीआर को यह नहीं मानना चाहिए कि राष्ट्रीय मुद्दों पर उनकी तटस्थता भाजपा के मंसूबों से उन्हें बचा सकती है. अब भाजपा उनके दरवाजे पर पहुंच चुकी है.
2019 के लोकसभा चुनावों में उसे चार सीटें मिली थीं जिनमें से एक सीट केसीआर की बेटी की थी और अब वह जीएचएमसी में टीआरएस की पकड़ को चुनौती दे रही है. दुब्बक उपचुनावों में जीत से स्पष्ट होता है कि भाजपा की स्थिति मजबूत हो रही है. यहां कुछ साल पहले तक भाजपा को कोई नामलेवा नहीं था.
साफ है कि भाजपा कमर कसकर यह किला फतह करना चाहती है, चाहे इसके लिए निगम चुनावों को सांप्रदायिक रुख देना हो या स्थानीय चुनावों में अपने टॉपमोस्ट नेताओं को उतारना हो. सवाल यह है कि क्या टीआरएस इस दांव का जवाब देगी और भाजपा के खिलाफ मोर्चा खोलेगी.
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