ADVERTISEMENTREMOVE AD

हौले-हौले नेताजी, अपना देश झटके से भड़क जाता है

देश के लोकतांत्रिक इतिहास को देखें तो लोगों ने सबकुछ बदलने की जिद को बहुत नहीं सराहा है

story-hero-img
i
छोटा
मध्यम
बड़ा

सत्ता के दलालों की अब खैर नहीं.

अब भारत को 21 वीं सदी का देश बनाना है.

इस तरह के स्लोगन जाने-पहचाने लग रहे हैं ना? संयोग से आजकल भी इस तरह के स्लोगन ही सुनाई दे रहे हैं. लेकिन ऊपर लिखे दोनों स्लोगन कम से कम 30 साल पुराने हैं. राजीव गांधी के जमाने के.

प्रधानमंत्री बनने के बाद राजीव गांधी ने देश से दो बड़े वादे किए. पहला वादा था राजनीति में पावर ब्रोकर की भागीदारी को खत्म करना. उनके हिसाब से पावर ब्रोकर से लड़ना मतलब ब्लैक मनी और करप्शन से लड़ना था. इस वादे के बाद देश में उनकी लोकप्रियता काफी बढ़ी थी. मेरे जैसे बच्चों (उस समय मैं स्कूल में पढ़ता था) के भी वो रातों रात हीरो हो गए.

ADVERTISEMENTREMOVE AD

राजीव का दूसरा वादा था देश को 21वीं सदी के लिए तैयार करना. बड़े-बड़े एक्सपर्ट्स की सलाह ली गई. देश में कंप्यूटर्स की एंट्री हुई. टेलीकॉम में बड़े बदलाव की नींव रखी गई. आईटी क्रांति की शुरुआती झलक भी दिखने लगी थी.दोनों ही वादे रेडिकल थे. दोनों में एक बात निहित थी—वो देश को पूरी तरह से बदलना चाहते थे. शायद मैसेज यह दे रहे थे कि उनसे पहले जो कुछ भी हुआ वो ठीक नहीं हुआ इसीलिए सब कुछ बदलना पड़ रहा है. एक तरह से डेमोक्रेटिक क्रांति. वो भी ऊपर से.

लोकप्रिय नेता की देश हित में फैसले की जिद

लेकिन सब कुछ बदलने के चक्कर में राजीव कुछ ऐसा फैसला कर गए जिसका परिणाम सही नहीं हुआ. बाबरी मस्जिद का ताला खुलवाना या शाहबानो मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पलट देना. ये वो फैसले थे जो एक दंभ से लिए गए थे. इस मानसिकता से कि मुझसे गलती हो नहीं सकती. इस मानसिकता से कि चूंकि मैं सबसे लोकप्रिय हूं और सबसे ताकतवर भी इसीलिए मुझसे गलती हो नहीं सकती. और गलती हो भी जाए तो लोग फिर भी मान लेंगे. आखिरकार मैंने ये फैसले देश हित में ही तो लिए हैं.

इसके बाद जो हुआ वो हमें पता है. उस समय के सबसे लोकप्रिय नेता की लोकप्रियता पांच साल में ही फुर्र हो गई. उनके ही एक पुराने सहयोगी ने चुनाव में उन्हें धुल चटाई. और उनके कुछ फैसले का खामियाजा कांग्रेस अब तक भुगत रहा है.

ADVERTISEMENTREMOVE AD
देश के लोकतांत्रिक इतिहास को देखें तो लोगों ने सबकुछ बदलने की जिद को बहुत नहीं सराहा है. अपने समय की सबसे ताकतवर इंदिरा गांधी ने भी कभी सबकुछ बदलने की जिद की थी. देश में इमरजेंसी लगाने के पीछे भी शायद आई केन डू नो रौंग वाली मानसिकता काम कर रही होगी. शायद उन्होंने सोचा होगा कि मेरे साथ तो पूरा देश हैं. मैं कुछ भी करूं लोग तो मान ही जाएंगे. लोगों ने उनके एप्रोच को भी रिजेक्ट किया

इस सबसे अलग एप्रोच पूर्व प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव का रहा. वो अपने समय में भी बहुत लोकप्रिय नेता नहीं थे. लाचारी में ही सही, लेकिन उनको आर्थिक मामले में उदारीकरण जैसा बहुत बड़ा फैसला लेना पड़ा. फैसला देश में आर्थिक इतिहास में एक पैराडाइम शिफ्ट जैसा था. बिजनेस करने के तौर-तरीके बदले. टैक्स की दरों में कमी आई. टैक्स अधिकारियों की पावर में कमी आई. बिजनेस करना सम्मान का काम माना जाने लगा और बिजनेस करने वालों की सूदखोरों से इतर एक अच्छी छवि बनी. 1991 का आर्थिक उदारीकरण अपने समय का एक बड़ा बदलाव था. बहुत बोल्ड और अच्छे दूरगामी परिणाम वाला. लेकिन राव को चुनाव जिताने में वो फैसला भी कामयाबी नहीं दिला पाया.

ADVERTISEMENTREMOVE AD

लोग पावरफुल नेताओं के झटके रिजेक्ट करते रहे हैं

इन तीन उदाहरणों से एक चीज तो साफ है—देश का लोकतंत्र झटके बर्दाश्त नहीं करता है. मैं सबसे लोकप्रिय हूं इसीलिए सर्वज्ञानी भी और मेरे सारे फैसले लोगों को पसंद भी आएंगे—यह फॉर्मूला भी काम नहीं करता है.

लोकतंत्र की खासियत होती है कि इसमें छोटे-छोटे सही नीयत से और सही दिशा में लिए गए फैसले ज्यादा कारगर साबित होते हैं. ऐसे फैसले लोगों को पसंद आते हैं. शायद इसकी वजह यह है कि लोकतंत्र का मतलब होता है ऐसा सिस्टम जिसमें बहुत सारे लोगों की बहुत भलाई हो. जॉन स्टुअर्ट मिल के शब्दों में कहें तो—ग्रेटेस्ट अमाउंट ऑफ गुड फॉर मैक्सिमम पीपुल.

ADVERTISEMENTREMOVE AD
जब फैसले झटके वाले होते हैं तो शायद डेमोक्रेसी की इस थ्योरी को धक्का लगता है. यह संदेश जाता है कि झटके से नुकसान तो सबका होगा, फायदे कुछ चुनिंदा लोगों को ही मिलेंगे. अब बड़ा चुनावी सीजन शुरू होने वाला है. अगले कुछ महीने में लोकसभा के साथ-साथ दर्जन भर विधान सभाओं का चुनाव होना है. ऐसे में सारी पार्टियों के बड़े नेताओं को देश की लोकतांत्रिक इतिहास से सबक लेने की जरूरत है.
ADVERTISEMENTREMOVE AD

और साफ-साफ सबक है कि मैं बहुत लोकप्रिय हूं इसीलिए मेरे सारे फैसलों को जनता सराहेगी ही ऐसा कतई नहीं है. साथ ही यह भी ना सोचें कि अकेले मैंने देश बदला है, इससे पहले तो सब कूड़ा था. और तीसरा सबक- हर फैसला करते वक्त जॉन स्टुअर्ट मिल की बात को एक बार याद जरूर कर लें.

हां, इस बात का जरूर ध्यान रहे कि ग्रेटेस्ट अमाउंट ऑफ गुड फॉर मेक्सिमम पीपुल को बहुसंख्यावाद ना समझें.

ये भी पढ़ें : राजनीति में वंशवाद की जड़ें लगातार मजबूत हो रही हैं, पर क्यों?

(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)

सत्ता से सच बोलने के लिए आप जैसे सहयोगियों की जरूरत होती है
मेंबर बनें
×
×