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कैप्टन या सिद्धू? कांग्रेस को लेना होगा फैसला, 1 म्यान में 2 तलवार मुमकिन नहीं

Punjab Election : कांग्रेस अगर जल्द राज्य में नेतृत्व का विकल्प नहीं तलाशती है तो खुल सकते हैं AAP सरकार के दरवाजे

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पंजाब (Punjab) कांग्रेस (Congress) के प्रभारी हरीश रावत (Harish Rawat) ने 2 सितंबर 2021 को कहा कि पंजाब में अभी सब कुछ ठीक नहीं चल रहा है. इसको सीधे शब्दों में कहे तो पंजाब कांग्रेस में ऑल इज नॉट वेल वाली स्थिति है. खुद हरीश रावत ने स्वीकार करते हुए कहा कि पार्टी में गुटबाजी का मसला अभी सुलझा नहीं है.

इसके एक दिन पहले ही रावत ने कहा था कि पंजाब में कांग्रेस पार्टी कैप्टन अमरिंदर सिंह के नेतृत्व में ही चुनाव लड़ेगी, लेकिन बाद में उन्हें अपने इस बयान पर सफाई देनी पड़ी.

कांग्रेस पार्टी को किसी और के लिए न सही कम से कम रावत की खातिर पंजाब में नेतृत्व के लिए चल रहे घमासान को जल्द से जल्द सुलझाना चाहिए. क्योंकि हरीश रावत जितना ज्यादा वक्त पंजाब में बिताएंगे उतना कम समय उन्हें अपने गृह राज्य यानी उत्तराखंड को दे पाएंगे. जहां पार्टी अगर सही तरीके से काम करती है तो वह भारतीय जनता पार्टी (BJP) को हरा भी सकती है.

पंजाब में कांग्रेस के सामने कोई छोटी-मोटी दिक्कत नहीं है बल्कि विकराल समस्या है. वहां मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह और पंजाब प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष नवजोत सिंह सिद्धू के बीच संतुलन बनाना अब संभव ही नहीं लग रहा है.

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इस लेख के जरिए यह बताने का प्रयास होगा कि कैसे पार्टी के पास दो नेताओं में से एक को चुनने के अलावा कोई विकल्प नहीं है. वहीं दोनों को साथ लेकर चलना भी असंभव सा है.

आइए तीन पहलुओं पर नजर डालते हैं...

1. कैप्टन अमरिंदर सिंह की घटती लोकप्रियता

पहले कार्यकाल को छोड़ दें तो कैप्टन अमरिंदर सिंह की लोकप्रियता कभी भी ज्यादा नहीं रही है.

2019 में सीवोटर के द्वारा कराए गए सर्वे के अनुसार पंजाब में 49 प्रतिशत लोगों ने कहा कि वे सीएम अमरिंदर सिंह से "बिल्कुल भी संतुष्ट नहीं हैं". वहीं महज 17 फीसदी लोगों ने स्पष्ट तौर पर कहा था कि "वे संतुष्ट हैं."

उसमें एक बात यह भी सामने निकलकर आयी थी कि "कैप्टन बादल से बेहतर हैं." इस पॉइंट ने कैप्टन अमरिंदर सिंह को आलोचना से लड़ने में मदद की थी.

जनवरी 2021 में उसी ट्रैकर के अनुसार लोकप्रियता के मामले में कैप्टन अमरिंदर सिंह की रेटिंग और गिर गई, तब यह आंकड़ा 9.8 फीसदी पर आ गया था. उसके बाद से स्थिति और ज्यादा खराब हुई है. यह गिरावट खासतौर पर तब देखनी को मिली जब पंजाब और हरियाणा हाई कोर्ट ने 2015 बरगारी बेअदबी मामलों पर एसआईटी की रिपोर्ट को खारिज कर दिया था.

उस रिपोर्ट के खारिज होने पर यह संदेश गया कि उस बादल के प्रति कैप्टन नरम हो रहे हैं. जिसकी भूमिका बेअदबी मामले में जांच के दायरे में थी. बता दें कि प्रदर्शनकारियों पर गोलीबारी हुई थी, जिसमें दो लोग मारे गए थे.

बादल के खिलाफ कार्रवाई न होने के अलावा और भी कई विफलताएं है जो पंजाब के लोगों से बात करने पर सामने आती हैं.

बेरोजगारी राज्य भर में जनता के लिए सबसे बड़ा मुद्दा है और जनता ऐसा माना रही है कि कैप्टन सरकार ने इस मुद्दे को हल करने के लिए पर्याप्त काम नहीं किया है.

बुजुर्गों को 1500 रुपये पेंशन देने का वादा किया गया था, वह भी काफी हद तक अधूरा है. गुरदासपुर, अमृतसर, जालंधर, लुधियाना, श्री मुक्तसर साहिब, संगरूर और पटियाला जैसे जिलों में कुछ लोग ऐसे भी मिले जिन्होंने कहा कि या तो उन्हें पेंशन नहीं मिल रही है और जिन्हें मिल रही उन्हें प्रति माह केवल 750 रुपये दिए जा रहे हैं.

बिजली का बढ़ता बिल एक और अहम मुद्दा है. इस मुद्दे को आम आदमी पार्टी (AAP) बहुत बेहतर ढंग से भुना रही है.

2. 'बदलाव' Vs 'जस की तस स्थिति'

इसमें कोई शक नहीं कि पंजाब में किसानों का विरोध एक बड़ा फैक्टर है. लेकिन इस मुद्दे के अलावा भी कई विषय हैं जिनको लेकर पंजाब में विरोध प्रदर्शन हुए हैं. जैसे शिक्षकों (विशेषकर पैरा-टीचर्स), संविदा में काम करने वाले सरकारी कर्मचारियों, हेल्थ वर्कर्स, पेंशनभोगियों और युवाओं द्वारा किए गए विरोध प्रदर्शन देखने को मिले हैं.

कुछ जगहों पर लोगों से बादल, कैप्टन या पीएम मोदी के बारे में पूछा गया तो यह सामने निकलकर आया. वहां के लोग 'जस की तस स्थिति' से तंग आ गए हैं. इसी वजह से अब वहां 'बदलाव' का व्यापक महौल बन गया है.

ऐसे में जाहिर है कि इसका सीधा फायदा आम आदमी पार्टी को मिलता दिख रहा है. जो राज्य के कई हिस्सों में अपनी पकड़ मजबूत कर रही है.

यहां के दो प्रमुख दल शिरोमणि अकाली दल (शिअद) और कांग्रेस में से नवजोत सिंह सिद्धू एकमात्र ऐसे प्रमुख नेता हैं. जिनकी आलोचना जनता द्वारा नहीं होती है.

इसका मतलब यह नहीं है कि सिद्धू बहुत लोकप्रिय हैं. ऐसा इसलिए है क्योंकि वे बादल का विरोध लगातार कर रहे हैं चाहे वे जब भाजपा में थे तब और अब जब वे कांग्रेस में है तब भी. उन्होंने लगातार बादल से लोहा लिया, इसी वजह से उन्हें लोगों की आलोचनाओं से बचने में मदद मिली है.

पंजाब के कुछ हिस्सों में आम नागरिकों ने बातचीत के दौरान कहा कि "उन्हें (सिद्धू को) काम नहीं करने दिया जा रहा है."

सिद्धू की इस छवि से कांग्रेस को मदद मिल सकती है वह इससे AAP को बढ़ने से को रोक सकती है. इसका खास फायदा तब मिल सकता है जब सीएम उम्मीदवार को समय पर पेश करने सही दांव लगाया जाए, लेकिन इसके लिए कांग्रेस को कैप्टन को हटाना होगा.

कांग्रेस अगर सीएम के तौर पर कैप्टन फिर दांव लगाएगी तो उन वोटर्स के वोट फिर से नहीं प्राप्त कर पाएगी जो 'बदलाव' की वजह से उसके पाले में आए थे. क्योंकि बादल की तरह ही कैप्टन भी तेजी से अशांत पंजाब में 'जस की तस स्थिति' का प्रतीक बन गए हैं.

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3. कैप्टन और सिद्धू के सोशल बेस में अंतर 

कांग्रेस के सामने दूसरी समस्या यह भी है कि कैप्टन और सिद्धू दोनों ही अलग-अलग सामाजिक आधारों यानी सोशल बेस का प्रतिनिधित्व करने आए हैं.

पुराने गैर-दलित हिंदू वोटर्स को छोड़ दे तो लगभग हर वर्ग में कैप्टन सरकार के प्रति असंतोष है. यह एकमात्र ऐसा वर्ग है जिससे कैप्टन को अहम समर्थन मिला है.

यह कांग्रेस का परंपरागत वोट बैक रहा है. जो राष्ट्रीय स्तर पर बीजेपी की ओर चला जाता है. यह वोट बैंक रुढ़िवादी है जो 'बदलाव' पर बहुत ज्यादा विश्वास नहीं करता है.

2017 में भी हिंदू वोटर्स ने कांग्रेस की जीत में अहम भूमिका निभाई थी. सीएसडीएस (CSDS) के सर्वे के अनुसार 'कांग्रेस को गैर-दलित हिंदुओं के 48 फीसदी वोट मिले, जबकि AAP को 23 फीसदी और शिअद-बीजेपी (SAD-BJP) गठबंधन को 22 फीसदी वोट मिले थे.'

यह एक संयोग ही है कि जहां सिद्धू सत्ता के लिए संघर्ष कर रहे हैं वहीं पंजाब कांग्रेस के अहम हिंदू नेताओं का कैप्टन को प्रबल समर्थन प्राप्त है. इन चेहरों में ब्रह्म मोहिंद्रा, मनीष तिवारी, विजय इंदर सिंगला और ओपी सोनी जैसे नाम अहम हैं.

जुलाई में हिंदू नेताओं के एक समूह ने कैप्टन के साथ एक बैठक की थी. उस बैठक में उन्होंने कथित तौर पर यह शिकायत की थी कि सिद्धू की नियुक्ति से कांग्रेस में उच्च जाति के हिंदुओं की जगह जाट सिखों का वर्चस्व बढ़ रहा है.

जहां एक ओर कांग्रेस के मुख्य उच्च जाति हिंदू वोट बैंक के मुख्य रक्षक के रूप में कैप्टन को देखा जाता है, वहीं दूसरी ओर सिद्धू को सिख मतदाताओं के बीच पार्टी के आधार के संभावित विस्तार के तौर पर देखा जाता है.

अगर विशेष तौर पर जाट सिखों के वोट्स के मामले में देखा जाए तो कांग्रेस पार्टी परंपरागत रूप से उनके बीच कमजोर रही है. सीएसडीएस के सर्वेक्षण के अनुसार, कांग्रेस पार्टी को जाट सिख वोट का केवल 28 प्रतिशत मिला था. वहीं शिअद-बीजेपी को 37 प्रतिशत और आप को 30 प्रतिशत वोट मिले थे.

सिद्धू किसी भी तरह से पंथिक राजनेता नहीं हैं. उनका झुकाव किसी विशेष पंथ की ओर नहीं दिखता है. वे वैष्णो देवी और भगवान शिव के भक्त होने के साथ-साथ एक ऐसे नेता के रूप में जाने जाते हैं जो ज्योतिषियों से सलाह लेते हैं और हिंदू अनुष्ठानों में भी हिस्सा लेते हैं.

करतारपुर साहिब कॉरिडोर खोलने में उनकी भूमिका और बेअदबी के मामलों पर उनके मजबूत रुख के कारण सिद्धू सिख मतदाताओं के बीच पैठ बनाने में कामयाब हुए हैं.

कांग्रेस में सिद्धू के सबसे मजबूत समर्थक जाट सिख हैं. सिद्धू के प्रबल जाट सिख समर्थकों की बात करें तो तृप्त राजिंदर बाजवा, सुखजिंदर रंधावा, सुखबिंदर सरकारिया और परगट सिंह मुख्य चेहरे हैं. वहीं दलित सिख की बात करें तो सिद्धू के समर्थक में चरणजीत सिंह चन्नी एक अहम नाम है.

दलित मतदाता पंजाब के अहम वोटर्स में हैं. इनकी पंजाब के मतदाताओं में 34 प्रतिशत हिस्सेदारी है, लेकिन वे पंजाब में सभी मुख्य पार्टियों: शिअद, कांग्रेस और AAP में काफी से कम प्रतिनिधित्व करते हैं. अब शिअद बहुजन समाज पार्टी (बसपा) के साथ गठबंधन के जरिए इस वोट बैंक पर काबू पाने की कोशिश कर रही है.

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अब आगे क्या?

कांग्रेस कैप्टन और सिद्धू के बीच संतुलन बनाना चाह रही है, लेकिन अब यह संभव नहीं लग रहा. पंजाब के वोटर्स का एक बड़ा वर्ग दोबारा कैप्टन के कार्यकाल को नहीं पसंद कर रहा है. वे कैप्टन को नकार रहा है.

एक ओर कैप्टन को सीएम बनाए रखते हुए, दूसरी तरफ सिद्धू को पीसीसी प्रमुख बनाकर कांग्रेस ने खुद अपना नुकसान किया है. वह सिद्धू को प्रोजेक्ट करके अपना 'बदलाव' वाला कार्ड खेल सकती थी.

कांग्रेस के पास अब कैप्टन और सिद्धू में से किसी एक को चुनने के अलावा बहुत कम विकल्प बचे हैं. वहीं अलग-अलग वर्ग को मानने के लिए उनके नेताओं को भी आगे लाने होगा. जो हिंदू और दलित वोटर्स का प्रतिनिधित्व करेंगे. इससे पार्टी को यह उम्मीद करनी होगी कि उनके इस दांव से शिअद वापसी करने विफल हो सकता है वहीं AAP का प्रभाव पंजाब में ज्यादा न हो पाए.

लेकिन अगर कांग्रेस जल्द ही राज्य में अपने नेतृत्व का चयन करने में विफल रहती है तो वह पंजाब में AAP सरकार के लिए दरवाजे खाेल सकती है. वहीं इससे AAP को राष्ट्रीय पार्टी बनने का विकल्प भी मिल सकता है.

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