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बिहार में कैसे टूटा लालू का तिलिस्म,क्यों RJD से रूठे मुस्लिम-यादव

लालू की पार्टी आरजेडी को इस बार बिहार की एक भी लोकसभा सीट नहीं मिली है

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अपने मनोरंजक और चुटीले बयानों के साथ राजनीति की अलग लकीर खींचने वाले लालू प्रसाद यादव हमेशा सुर्खियों में बने रहते हैं. लोगों की सियायी नब्ज की पहचान रखने वाले राष्ट्रीय जनता दल (आरजेडी) के अध्यक्ष लालू इस लोकसभा चुनाव में नहीं दिखे, जिसका खामियाजा भी उनकी पार्टी को उठाना पड़ा है.

केंद्र में कभी 'किंगमेकर' की भूमिका निभाने वाले लालू आज उस बिहार से दूर झारखंड की राजधानी रांची की एक जेल में सजा काट रहे हैं, जहां उनकी खनक सियासी गलियारे से लेकर गांव के गरीब-गुरबों तक में सुनाई देती थी.

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इस लोकसभा चुनाव में आरजेडी के एक भी सीट ना जीत पाने पर उसके साथ बिना शर्त गठबंधन करने वाली कांग्रेस के नेता भी अब उस पर सवाल उठाने लगे हैं. कहा जाता है कि इस चुनाव में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) ने जातीय समीकरण की राजनीति करने वाले लालू प्रसाद के तिलिस्म को तोड़ दिया है. 
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बिहार की राजनीति पर नजदीकी नजर रखने वाले संतोष सिंह की चर्चित किताब 'रूल्ड ऑर मिसरूल्ड द स्टोर एंड डेस्टीनी ऑफ बिहार' में कहा गया है कि बिहार में 'जननायक' कर्पूरी ठाकुर की मौत के बाद लालू प्रसाद ने उनकी राजनीतिक विरासत संभालने वाले नेता के रूप में पहचान बनाई और इसमें उन्होंने काफी सफलता भी पाई. सिंह कहते हैं कि उन्होंने गरीबों के बीच जाकर खास पहचान बनाई और गरीबों के नेता के रूप में खुद को स्थापित किया.

इससे पहले बिहार में जब जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में छात्र आंदोलन हो रहा था, तो लालू ने सक्रिय छात्र नेता के तौर पर उसमें भाग लेकर अपनी राजनीति का आगाज किया था. आंदोलन के बाद हुए चुनाव में लालू यादव को जनता पार्टी से टिकट मिला और वह 1977 में चुनाव जीत कर पहली बार संसद पहुचे. सांसद बनने के बाद लालू का कद राजनीति में बड़ा होने लगा और वह साल 1990 में पहली बार बिहार के मुख्यमंत्री बन गए.

साल 1997 में जनता दल से अलग होकर उन्होंने आरजेडी का गठन किया. इस दौरान लालू के विश्वासपात्र और बड़े नेता उनका साथ छोड़ते रहे. किताब में कहा गया है, "भागलपुर दंगे के बाद मुस्लिम मतदाता जहां कांग्रेस से बिदककर आरजेडी की ओर बढ़ गए, वहीं यादव मतदाताओं ने अपनी जाति के लालू को अपना नेता मान लिया."

इस बीच, नीतीश कुमार ने भी नई 'सोशल इंजीनियरिंग' का तानाबाना बुनकर उसमें सुशासन और विकास को जोड़ते हुए भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) से गठबंधन कर बिहार की सत्ता से लालू को उखाड़ फेंका.

राजनीतिक विश्लेषक सुरेंद्र किशोर कहते हैं, "लालू प्रसाद का वह स्वर्णिम काल था. इस समय में वह किंगमेकर तक की भूमिका में आ गए थे. हालांकि 1997 में चारा घोटाला मामले में आरोपपत्र दाखिल हुआ और 2013 में लालू को जेल भेज दिया गया. उसके बाद उनके चुनाव लड़ने पर भी रोक लग गई."

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किशोर कहते हैं, "इसके बाद बिहार के लोगों को विकल्प के तौर पर नीतीश कुमार मिल गए. जब मतदाता को स्वच्छ छवि का विकल्प उपलब्ध हुआ तो मतदाता उस ओर खिसक गए."

हालांकि विधानसभा चुनाव 2015 में लालू प्रसाद और नीतीश कुमार की पार्टी गठबंधन के साथ चुनाव मैदान में उतरी और विजयी भी हो गई, परंतु कुछ ही समय के बाद लालू परिवार पर भ्रष्टाचार के आरोप लगने लगे और नीतीश को लालू का साथ छोड़ देना पड़ा.

नीतीश का अलग होना लालू के लिए किसी बड़े झटके से कम नहीं था. रातों रात लालू प्रसाद एक बार फिर राज्य की सत्ता से बाहर हो गए और उनकी पार्टी विपक्ष की भूमिका में आ गई. इसके बाद लालू पर पुराने चारा घोटाले के कई अन्य मामलों में भी सजा हो गई.

लोकसभा चुनाव 2019 से पार्टी को बड़े परिणाम की आशा थी, मगर जातीय गणित का तिलिस्म भी इस चुनाव में काम नहीं आया और 'किंगमेकर' की भूमिका निभाने वाले लालू को एक अदद सीट के भी लाले पड़ गए.

लालू को नजदीक से जानने वाले किशोर कहते हैं कि इस चुनाव में मुस्लिम और यादव वोट बैंक भी आरजेडी से दूर हो गए. यही कारण है कि कई मुस्लिम बहुल इलाकों में भी राजद को कारारी हार का सामना करना पड़ा.

लालू के जेल जाने के बाद दोनों बेटों तेजस्वी और तेजप्रताप में विरासत की लड़ाई शुरू हो गई. वर्ष 2018 में लालू के बड़े बेटे तेजप्रताप की शादी हुई, पर कुछ दिन के बाद ही तेजप्रताप तलाक के लिए अदालत की शरण में पहुंच गए.

बहरहाल, आरजेडी की हालत यह हो गई है कि लालू प्रसाद की पुत्री मीसा भारती को भी पाटलिपुत्र संसदीय क्षेत्र से दो बार हार का समाना करना पड़ा. लोकसभा चुनाव परिणाम के बाद हालत ये हैं कि आरजेडी के बड़े नेता रघुवंश प्रसाद सिंह को नीतीश कुमार को एक बार फिर से साथ आने के लिए न्योता देना पड़ रहा है.

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